Thursday 31 December 2015

बूढ़ा दिसंबर और इक्कीसवीं सदी का सोलहवाँ साल

"ब्लू आईज हिप्नोटाइज तेरी करती हैं मैनू......." बूफर पे धमकती हुई आवाज पास आती जा रही थी,कुण्डी लगा कर वो दरवाजे से पीठ लगाकर बैठ गई..डर के मारे उसने अपनी साँसे तक थाम सी रखी थीं कि तभी..ठक-ठक..ठक-ठक..ठक-ठक..ठक-ठक जूतों की आहट से रात चीख उठी..कार से उतर के चार लड़के दरवाजे तक आ चुके थे

"दरवाजा खोलो..नहीं तो तोड़ देंगे..तू क्या सोचती है..ये पतले लकड़ी के दो पल्ले तुझे बचा लेंगे.."नशे में धुत एक आवाज आई

"अरे...सदी..कौन..लोग...हैं..ये" खाँसते खाँसते बहुत मुश्किल से बूढ़े दिसंबर ने पूछा

"बाबा..ये वही लड़के हैं..जो रोज मुझे छेड़ते रहते हैं..आज नए साल पे..मुझे अपने साथ ले जाने आये हैं..बाबा..मुझे बचा लो..ये बहुत गंदे हैं.."डरते डरते सदी ने बूढ़े दिसंबर से कहा

"हा हा हा ..ये बूढ़ा तुझे क्या बचाएगा..ये तो साला..खुद मर रहा है.. आ जा रानी..मजा करेंगे.." कहते हुए चारों ने दरवाजे को जोर का धक्का दिया..दरवाजे की कुण्डी निकल गई और वो चारों अंदर कमरे में आ गए

"हाय..क्या लग रही है ये..देख तो.." एक लड़के ने दूसरे को कोहनी मारते हुए कहा

"लगेगी क्यों नहीं..पंद्रह की पूरी हुई है आज..फुल माल बन गई है..देखो तो क्या उठान है.." दूसरे लड़के ने उसके वक्षों को देखकर अपनी जबान से होठों को चाटते हुए कहा, चारों लड़के धूर्तता से ठहाके लगा लगा के हँसने लगे और उसकी तरफ बढ़ने लगे

"दूररररर..हटो..कमीनो मेरी..बच्ची...बच्ची...से" बूढ़ा अपनी पूरी ताकत इकट्ठी कर चिल्लाया

"हट बुढ्ढे..तेरी तो..ये ले साले.." तीसरे ने बिअर की बोतल बूढ़े के सर पे दे मारी बूढ़े के खून से कमरे की दीवार पर मौत की चित्रकारी हो चुकी थी बूढ़ा वहीँ ढेर हो गया

"न...हींSSSSSS" सदी ने चीखना चाहा पर उनमें से एक लड़के ने उसका मुँह दबा लिया चौथे ने उसकी शर्ट खोलने को हाथ आगे बढ़ाया तो तीसरा बोला " अरे नहीं यार...यहाँ नहीं..यहाँ साली बहुत गर्मी लगेगी..कार में ले चल इसे..न्यू इयर के इस गिफ्ट को ..ए सी में खोलेंगे" ड्रग्स और शराब की गर्मी के आगे सर्दी बेकार जो थी

चारों ने उसे उठा लिया और कार की पिछली सीट पे जाकर पटक दिया
.. कार स्टार्ट हुई..ए सी..चालू हुआ....और "चार बोतल वोडका काम मेरा रोजका.." गाने की तेज आवाज में चारों लड़को को लड़की की चीखें भी सुरीली लगने लगीं

रात के बारह बज चुके हैं..लोग जश्न में डूबे हैं ... पंद्रह के आसपास की उमर के चार लड़के कार में एक लड़की के साथ 'एन्जॉय' कर रहे हैं
बूढ़ा दिसम्बर मर चूका है...इक्कीसवीं 'सदी' को सोलहवाँ साल अभी अभी लगा है।

-तुषारापात®™

Tuesday 29 December 2015

आखिरी तमन्ना

तुमने कभी कहा था मुझसे -

"यूँ तो तुम
नहीं जानते मुझे
एक रिश्ता है तो हमारे बीच
एक बार कुछ लिख के
कलम छिड़की थी तुमने
स्याही की गिरी एक बूँद
जो आवारा रह गयी
वही हूँ मैं
तुम्हारे किसी ख़त का
कोई लफ्ज़ न हो सकी
किसी कलाम में छपती
तो मुकाम पा जाती
बस एक
आखिरी तमन्ना पूरी कर दो
तुम्हारे होठों पे एक नुक़्ता बनके ठहरना चाहती हूँ"

कुछ बोल नहीं पाया था तुमसे उस दिन
बस इतना कहना था-

"तुम्हारी
आखिरी तमन्ना वाले दिन के बाद से ही
मेरी ठोड़ी पे एक काला तिल इठलाने लगा है"

- तुषारापात®™
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Thursday 24 December 2015

बड़ा दिन

"छोटू...छोSSटू..जाग बेटा..देख तेरे लिए कितना अच्छा अच्छा खाना लाइ हूँ मैं" सुबह के चार बजे कुसुमिया अपनी झोपड़ी में वापस आकर अपने बेटे को जगा रही थी

"खा..ना...माँ..खाना बन गया.." पिछली रात से भूखा सोया छोटू खाने के नाम पे ओढ़े हुए चीथड़े हटाकर एकदम से उठकर बैठ गया

कुसुमिया पन्नी में भरी नान,पूड़ी,कचौड़ी आलू,पनीर की सब्जी,सलाद और भी जो था सब कुछ जल्दी से एक अखबार पे पलटकर उसे खिलाने लगती है "ये ले..खूब पेट भर के खा मेरे लाल"

"अरे वाह माँ..आज तो बहुत अच्छा खाना है..अरे इसमें तो पनीर भी है..माँ देखो इत्ते सारे पनीर" छोटू खुशी के मारे खाने पे टूट पड़ा कुसुमिया उसे प्यार भरी नजरों से खाना खाते देखती रही

"माँ..इत्ता अच्छा खाना कहाँ से मिला..." छोटू ने उँगलियाँ चाटते हुए पूछा

"आज बड़ा दिन है बेटा..वही की दावत से लाइ हूँ " कहकर याद करने लगी कि अभी थोड़ी देर पहले चढ्ढा साहब के बंगले के बाहर फेंकी गई पत्तलों से कितनी मुश्किल से वो अपने जैसे कितने लोगों से झगड़ते हुए ये सब उठा के लाइ है

"माँ ये बड़ा दिन क्या होता है..कोई त्यौहार है क्या.." छोटू ने पूछा

"हाँ..लल्ला..आज के दिन संता भगवान आते हैं और सबको खाना देकर जाते हैं" अपने को सँभालते हुए उसने जवाब दिया

"पर..अपने यहाँ..कोई संता भगवान क्यों नहीं आते माँ..छोटू पनीर का टुकड़ा कुतरते हुए बोला

कुसुमिया एक पुरानी रात को याद करते हुए आह से भरी आवाज में बोली "आते हैं न बेटा..एक रात आये थे..मेरी झोली में तुझे डाल कर चले गए थे..25 दिसंबर की वो रात ऐसी ही थी" (मन ही मन सोचती है कि हम जैसे लोगों का बड़ा दिन 26 दिसंबर को होता है जब 25 दिसंबर को बड़े साहबों का फेंका हुआ खाना हमें मिलता है और कभी कभी उनकी जबरदस्ती से..बच्चे भी...)

"पच्चीस दिगम्बर को ही बड़ा दिन होता है क्या माँ...तुम क्यों नहीं मनाती ये वाला त्यौहार..माँ..और त्यौहार पे तो सब अच्छे अच्छे कपड़े पहनते हैं न माँ तुम कब अच्छे कपड़े पहनोगी" छोटू खाना खाते ही जा रहा था और साथ साथ बोलता भी जा रहा था "माँ..मैं जब बड़ा हो जाऊंगा तो तेरे लिए नए नए खूब सारे कपड़े लाऊँगा..बिलकुल चढ्ढा साहब वाली मेम साहब के जैसे"

"गरीबों के छोटू..बड़े तो होते हैं पर कभी...बड़े आदमी नहीं हो पाते.......... बेटा..दुनिया के इस कैलेंडर में तेरी माँ गरीब फरवरी की तरह है उसके यहाँ कभी कोई 25 दिसंबर पैदा नहीं होता" कड़वा सच बुदबुदाते हुए उसने मीठे छोटू को गले से लगा लिया ।

-तुषारापात®™

Wednesday 23 December 2015

विनम्रता और दक्षता

विनम्रता कहती है कि स्वयं को सबसे नीचा स्थान देना चाहिए और दक्षता कहती है हाँ मगर इस तरह के सबके आधार आप हों ।

-तुषारापात®™
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प्यार का फार्मूला

प्यार को नापने वाला सूत्र लिखिए :-
चक्रवृद्धि ब्याज प्राप्ति का सूत्र आपको याद ही होगा

A = P ( 1 + r/n )nt (nt यहाँ इसकी पॉवर है गुणन नहीं)
तो P=A/(1+r/n)nt ........................................(i)

तो दिए गए उपरोक्त समीकरण के हिसाब से
प्यार यानी P = A/(1+r/n)nt
जहाँ A ऐशोआराम,r रकम प्राप्ति की दर, n नखरों की संख्या और t बर्दाश्त करने का समय है ।
अब आप सब अपने अपने प्यार को इस सूत्र पे रख के नाप लीजिये ;)

-तुषारापात®™

Monday 21 December 2015

कैलेंडर

एक कील पे तुमने
पूरा कैलेंडर टाँग रखा है
जिस्म के कैलेन्डर में
कुछ तारीखें चुभती हैं
यहाँ कीलों की तरह

-तुषारापात®™

नपुंसक बलात्कारी

अंग्रेजी में एक अलंकार होता है oxymoron दो विरोधी अर्थ रखने वाले शब्दों का एक साथ प्रयोग जब होता है तो उसे oxymoron अलंकार कहते हैं जैसे open secret, bitter sweet यानी इसे विरोधाभास अलंकार कह सकते हैं ।
कल मीडिया में एक शब्द सुनाई दिया तो यही अलंकार याद आया शब्द था 'नाबालिग बलात्कारी' काफी देर तक दिमाग इस शब्द में उलझ के रह गया 16 दिसंबर का वो दर्दनाक हादसा जहन में फिर जिन्दा हो गया फिर एक oxymoron मेरे मन में भी आया अब आप लोग बताइये कितना सही है :
नपुंसक समाज में बलात्कारी आते कहाँ से हैं ?

-तुषारापात®™
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Friday 11 December 2015

ऐ मकड़ी जरा चलके दिखा

"ए मकड़ी ..चलके दिखा"-खचाखच भरे कोर्ट में वकील साहब ने अपनी मध्यम लेकिन सधी हुई आवाज में अपने हाथ में पकड़ी एक टेरेंटुला मकड़ी (आम मकड़ियों से काफी बड़ी होती है ) को जमीन पे छोड़ते हुए उससे कहा और उनका कहना मान कर मकड़ी चलने लगी अभी मकड़ी जरा सी ही चली थी कि वकील साहब ने दस्ताने पहने अपने दोनों हाथों से उसे फिर पकड़ लिया और जज साहब से बोले-"जज साहब...देखा आपने...मकड़ी पूरी तरह स्वस्थ है और मेरी बात सुनकर चल भी रही है" जज ने भी हामी भरी

अब वकील साहब ने मकड़ी की आठ टाँगों में से बायीं तरफ की सबसे आगे वाली एक टाँग तोड़ दी और उसे जमीन पे छोड़ने से एक सेकंड पहले बोले-" मकड़ी चल के दिखा" मकड़ी अपना एक पैर टूटने के कारण दर्द में थी और डर में भी तो तेजी से भागी पर वकील ने इस बार भी उसे पकड़ लिया और जज की तरफ देख के मुस्कुराया जज ने सहमति में सर हिलाया

अब वकील ने मकड़ी की दायीं तरफ वाली एक टाँग तोड़ दी और कहा -"मकड़ी रानी..चल के तो दिखा" मकड़ी इस बार भी चली मगर थोड़ा सहम के, जज साहब और आम लोग पूरी प्रक्रिया बड़े ध्यान से देख रहे थे

वक़ील ने ऐसा अगले पाँच बार और किया हर बार मकड़ी की एक टाँग तोड़ता गया और मकड़ी से कहता रहा कि मकड़ी चलो और मकड़ी किसी तरह चली भी आखिर में मकड़ी की एक टाँग बची तब वक़ील ने उससे कहा-"ए मकड़ी चलके दिखा" मकड़ी की एक ही टाँग बची थी फिर भी वो दर्द से छटपटाते हुए अपनी जगह से थोड़ी सी हिली

इसके बाद वकील ने मकड़ी को अपने हाथ में उठाया और जज से बोला- "जज साहब..अब वो पल आ गया है..जिसके लिए मैंने इतना खेल दिखाया है प्लीज अब जरा और ध्यान से देखियेगा" ऐसा कहकर उसने मकड़ी की आखिरी टाँग भी तोड़ दी उसे जमीन पे छोड़ा और कहा-"प्यारी मकड़ी..जरा चल के दिखा" मकड़ी अपनी जगह पे पड़ी रही उसने फिर थोड़ा जोर से उससे कहा-" ए मकड़ी जरा सा चल के तो दिखा" कोर्ट में पिन ड्राप साइलेन्स था सारे लोगों की नजरें जमीन पे थीं पर मकड़ी नहीं चली

वकील इस बार बहुत जोर से चिल्लाया और चिल्लाता ही गया "अरे ए मकड़ी..तू चलती क्यों नहीं..चल..जरा सा तो चल..चल्लल्लल्ल...." पर मकड़ी न चली और वो जज की तरफ देख के गर्व के साथ मुस्कुराया और दैट्स आल मीलॉर्ड बोल के अपनी कुर्सी पे बैठ गया सारे लोग सांस रोके जज की तरफ देख रहे थे

जज साहब ने अपना फैसला सुनाया-"सारी प्रक्रिया को बहुत गौर से अपने सामने देखने के बाद अदालत इस निर्णय पे पहुँची है कि मकड़ी की आठों टाँगे तोड़ देने पर वो बहरी हो जाती है।"

-तुषारापात®™
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Monday 7 December 2015

असहिष्णुता

"अरे आबिद..रुक मैं भी चलता हूँ तेरे साथ" ऑफिस में लंच टाइम होते ही जैसे ही मैं अपनी डेस्क से उठकर शर्मा भोजनालय जाने को हुआ तो अकरम की इस आवाज ने मुझे रोक लिया, मैं वापस घूम कर उसकी टेबल पे पहुँचा और हँसते हुए बोला-"पर..तू तो अपना लंच घर से ही लाता है..आज क्या हुआ..बीवी ने लात जमा दी क्या"

" नहीं यार..मैडम दो दिन के लिए मायके गई हैं...टिफिन कौन बनाता..तो सोचा तेरे साथ ही लंच किया जाय..वो भी तेरे फेवरिट..शर्मा भोजनालय में" उसने भी हँसते हुए जवाब दिया और यूँ ही इधर उधर की बात करते हुए हम दोनों ऑफिस के बिलकुल नजदीक शर्मा जी के रेस्टॉरेंट कम ढाबे में पहुँच गए

"अच्छा बता क्या लेगा तू...मैं तो जनता थाली ही खाता हूँ कम बजट में पूरा जायका " रेस्टॉरेंट की टेबल के दोनों ओर पड़ी चार कुर्सियों में से एक कुर्सी पे बैठते हुए मैंने उससे पूछा

"तो यार ..हम कौनसे महाराजा हैं ...मेरे लिए भी थाली ही मँगा ले" मेरे ठीक सामने वाली कुर्सी पे बैठा अकरम टेबल पे तबला बजाते हुए बोला

मैंने शर्मा जी को आवाज लगाई-" शर्मा जी..भई आज दो थाली लगा दीजिये..अकरम साहब भी आज शौक फरमाने आये हैं"

"अभी लीजिये आबिद साहब" शर्मा जी अपनी चिर परिचित व्यवसायिक मुस्कान के साथ बोले

रेस्टॉरेंट के एक कोने में पुराना सा टीवी चल रहा था और ज़ी न्यूज़ पे आमिर खान के बयान का पोस्टमार्टम हो रहा था हम दोनों थोड़ी देर तक टीवी देखते रहे फिर मैंने उससे कहा-"बिलकुल सही कहा है आमिर ने..इनटॉलेरेन्स तो है ही हर जगह."

"हाँ यार..सही कह रहा है तू ...हम मुस्लिमों के साथ ज्यादती हर जगह हो रही है" अकरम ने भी आमिर का बयान सही बताया

हम बात कर ही रहे थे और इतनी देर में माथे पे तिलक लगाये एक लंबा चौड़ा आदमी हमारी टेबल पे खाली पड़ी एक कुर्सी पे अकरम के बाजू में आकर बैठ गया छोटा सा रेस्टॉरेंट और कुर्सियाँ भी कम होने के कारण ये एक आम बात थी उसपे हमने कोई विशेष ध्यान नहीं दिया हम अपनी बात करते रहे

"और क्या..सरकार भी उनका ही साथ दे रही है..दादरी में देखो सरेआम क्या हुआ..खुलेआम ज्यादती हमपर की जा रही है और अगर उसकी मुखालफत में कोई कुछ कहे तो...ये साला 'सहिस्नुता' 'असहिनुस्ता' चिल्ला चिल्लाकर हमारी आवाज दबा देना चाहते हैं" मैं हलके गुस्से में आ गया था अकरम के पड़ोस में बैठा शख्श टीवी देख रहा था उसके पहनावे वैगेरह से मैंने समझ लिया था कि हिन्दू है ,हम थोड़ी तेज आवाज में अपना नाम ले ले कर बात कर रहे थे,पता नहीं क्यों,पर मैं चाहता था कि वो हमारी ये बातें सुने,उसने सुना या नहीं मुझे पता नहीं चला वो चुपचाप बैठा टीवी देखता रहा और इसी बीच रामू हमारी दोनों थालियाँ टेबल पे लगा गया और उस बन्दे ने भी थाली ही आर्डर की, मैं और अकरम खाना खाने लगे

"अरे भाई...ओ...लड़के..रोटी ले आओ..अकरम के बाजू में बैठा वही बंदा रामू को आवाज लगा रहा था भीड़ होने के कारण रामू उसकी थाली में दो रोटी दे गया था और भी कई लोग खाना खा रहे थे इसलिए रोटी आने में टाइम लग रहा था हाँ हम दोनों की थाली में शर्मा जी ने चार चार रोटियाँ ही भेजी थीं क्योंकि मैं रोज खाने वालों में से था और वो जानते थे कि मुझे जल्दी रहती है ऑफिस वापस पहुँचने की

"यार आबिद..ये दो रोटियाँ तुम खा लो..मेरा तो दो में ही पेट भर गया" अकरम अपनी थाली से मेरी थाली में रोटियाँ रखते हुए बोला

मुझे किसी की थाली से कुछ भी बचा कु्चा खाना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता है तो मैंने बात घुमाते हुए कहा-"अरे न भाई न...मैं तो चार रोटी में फुल हो गया..और अभी तो चावल भी खाना है तुम्हें नहीं खाना है तो छोड़ दो"

जैसे ही मैं रोटियाँ वापस उसकी थाली में रखने जा रहा था अकरम के बाजू में बैठे शख्स ने मुझसे कहा-"भाई साहब..अगर आप लोग न खा रहे हों तो ये रोटियाँ मुझे दे दें"

मैं और अकरम दोनों ये सुनकर भौंचक्के रह गए एक अनजान हिन्दू मुझ मुसलमान की थाली से रोटी माँग रहा था,थोड़ा सम्भलते हुए मैं उससे बोला-" हाँ हाँ क्यों नहीं..पर अगर आप थाली में दो रोटी कम भी लोगे तब भी आपको पैसे तो पूरी थाली के ही चुकाने होंगे..फिर आप मेरी थाली की रोटियाँ...

वो मेरी बात बीच में ही काटते हुए बोला-"हाँ जानता हूँ पैसे पूरे देने होंगे पर ऐसे दो रोटी फिंकने से बच जाएंगी...और..मेरी थाली की बची रोटियाँ किसी और की भूख मिटा सकेंगी हाँ अब ये मत कहियेगा कि जहाँ फेंकी जायेगी वहाँ कोई भिखारी या भूखा इन्हें बीन के खा लेगा..आखिर किसी इंसान को कूड़े से बीनकर खाना खाते देखना कहाँ की सहिष्णुता है?"

हम दोनों को सांप सूंघ गया मैंने उसे रोटियाँ दी और चुपचाप खाना खाकर जाने ही वाले ही थे कि वो आदमी मुझसे बोला -"बरसों कोई आबिद.. किसी शर्मा के होटल में खाना खाता रहता है..पर एक दिन अचानक..... किसी के कहने से उसे क्यों लगने लगता है कि पूरे देश में भेदभाव है .... आबिद साहब... कभी आराम से सोचियेगा कि..मुल्क में चालीस रुपैये की थाली खाने वाले को असहिष्णुता कहीं नहीं दिखाई देती..पर उसी मुल्क में चार सौ करोड़ कमाने वाला इनटॉलरेन्स की बात करता है क्यों ?"

(सौ फीसदी सच्ची घटना पे आधारित)
-तुषारापात®™
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Sunday 6 December 2015

वक्त का प्लास्टर

पुराने जख्मों पे हम/न जाने कितनी/मुस्कुराहटें ओढ़ते हैं
वक्त के प्लास्टर को/फिर भी /कुछ लम्हे तो खरोंचते हैं

-तुषारापात®™
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Saturday 5 December 2015

धुलाई वाला

वाशिंग मशीन में कपड़े धोते धोते ये तुषारापात उत्पन्न हुआ (हाँ अपने कपड़े मैं खुद ही धोता हूँ क्योंकि मेरा मानना है की अपना जितना काम हो सके स्वयं करना चाहिए कई सारे ग्रह इससे मजबूत रहते हैं ;) खासतौर पे पत्नी जी वाला ग्रह सबसे ज्यादा)
तो वाशिंग मशीन (सेमी ऑटोमैटिक) में धोने के लिए हरा कुर्ता, अपनी भगवा धोती, नीली शर्ट,काली पैंट आदि कई कपड़े डाल के टाइमर सेट कर दिया और रिलैक्स हो के कुछ लिखने लगा। थोड़ी देर के बाद टाइमर जी ने अपनी चीखों से मुझे बताया की आपके डाले कपड़े बाहर निकलने के लिए बेक़रार हैं (हाँ ड्रेन करके पानी भी निकाला था) उसके बाद जब स्पिनर में डालने के लिए वाशर से कपड़े निकालने के लिए हाथ बढ़ाया तो देखा की सारे कपड़े आपस में उलझे हुए हैं, हरा कुर्ता भगवा धोती से दो दो हाथ कर रहा है और भगवा धोती ने हरे कुर्ते के साथ साथ नीली शर्ट का भी गला जकड़ रखा है काली पैंट भी पीछे नहीं थी उसने भी जहाँ जगह पाई वहां अपनी टांगे फंसा रखी थीं कुल मिला के हर महंगा सस्ता कपड़ा अपनी अपनी औकातानुसार जम के एक दूसरे से उलझा हुआ था।
अब जरा अपने अपने धर्मग्रन्थ केे पन्ने उलटिये और सोचिये की इस दुनिया की वाशिंग मशीन में हम सब अपनी शुद्धि और उन्नति के लिए भेजे नहीं गए थे क्या? और हम करते क्या हैं एक दूसरे से उलझते रहते हैं अपना रंग/धर्म एक दूसरे पे थोपते रहते हैं।
अच्छा एक बात और है कपड़े धोते समय हम सफ़ेद कपड़ों को अलग से धोते हैं कि कहीं दूसरे कपडे का रंग उनपर न लग जाये। हाँ सफ़ेद कपड़े हर रंग के साथ पहने खूब जाते हैं और अच्छे भी लगते हैं जैसे सफ़ेद शर्ट काली पैंट या सफ़ेद कुर्ता नीली जीन्स और भी न जाने कितने रंग के जोड़ीदार हैं सफ़ेद कपड़ों के।
आपको पता ही होगा सफ़ेद रंग सात रंगों से मिलकर बनता है यानी सफ़ेद रंग अपने में कई रंग समाहित करे रहता है और ऊपर से बिलकुल सादा बगैर कोई तड़क भड़क के बना रहता है,अब यही मैं कहना चाहता हूँ की सच्ची आध्यात्मिकता/सच्चा धर्म भी इसी सफ़ेद रंग की तरह है अगर आपको आपको अपनी आध्यतामिक उन्नति करनी है सच्चे धार्मिक बनना है तो इसी तरह अपने अंदर सभी रंगों को सोखना पड़ेगा मतलब सभी धर्मो को सम्मान देना होगा और उनकी सारी अच्छाइयाँ अपने अंदर समाहित करनी होगी सिर्फ लाल हरा या कोई और रंग पकड़ के आप कभी भी सफ़ेद रंग नहीं बना सकते और न ही सच्चे धार्मिक।
एक मित्र ने बहुत पहले कहा था की धार्मिकता और आध्यात्मिकता पे कुछ लिखिए उनसे इस लेख के माध्यम से यही बहुत साधारण सी बात कहना चाहता हूँ कि कट्टर धार्मिकता मात्र एक धर्म विशेष (वो चाहे जो कोई भी धर्म/मज़हब हो ) की रूढ़िवादिता को बढ़ावा देती है सिर्फ एक रंग को पकड़ने का मौका देती है और आध्यात्मिकता के अंतर्गत सभी पंथों की उत्कृष्ट मान्यताएं जो प्रयोगों द्वारा आप स्वयं सत्य सिद्ध करते हैं, समाहित होती हैं।
तो अब देखते हैं कौन कौन सभी रंगों को मिलाकर अपनी सफेदी पूरी करते हैं और कौन कौन अपना एक रंग विशेष का झंडा फहराते फिरते हैं।
-तुषारापात®™

विधाता

वो कहतें हैं :-
"लेखक हो, नकारा हो
बंद कमरे में बेकार से बैठे
न जाने अला बला क्या लिखते हो
घंटो की तुम्हारी कागज़ रंगाई से
एक रंगीन नोट भी नहीं छपा आज तक तुमसे
घड़ी और कैलेंडर देखो कभी तो पता लगे
स्याह बालों में कितनी सफ़ेद धारियां पड़ गयी"
मैं कहता हूँ ज़रा महसूस तो करो इसे
"जब कुंवारे सफ़ेद कागज़ से
मदहोश कलम का आलिंगन कराता हूँ
तो कितनी चिंगारियाँ सुलगती हैं
सुनो ये किलकारी सुनो
अभी अभी जन्मीं इस रचना की
ये बांटेगी किसी को ख़ुशी तो बाँट लेगी किसी का ग़म
डायरी मेरी है मेरा कैलेंडर/मेरी घड़ी
इसका हर एक अक्षर है एक सेकंड,
एक एक मिनट है हर एक शब्द
हर वाक्य एक घंटा है मेरा
पन्ना बदलता हूँ तो दिन बदल लेता हूँ
बंद कमरा है मेरा ब्रह्माण्ड,रचयिता हूँ मैं यहाँ
और कभी देखा है तुमने विधाता को कमाते हुए?"

-तुषारापात®™

Sunday 29 November 2015

जा तू खुदा हो जाए

खुदा ने कहा इबादतगार जा तू खुदा हो जाए
फरिश्तों* का भी तेरे आगे सजदा हो जाए
शर्त इतनी है बस किसी मासूम बच्चे की तरह
एक बार मेरे आगे तेरी नमाज अदा हो जाए

(*इस फोटो में फरिश्ते=superhero)

-तुषारापात®™



Saturday 28 November 2015

फेसबुकिया नशा

फेसबुक का नशा इतना है कि पूछिये मत,देखिये ये सच्चा किस्सा-

एक फंक्शन में जाने को मैं और पत्नी जी तैयार हो रहे थे

पत्नी जी -"आप बताइये कि कौन सी साड़ी पहनू ?वरना कहोगे ऐसे कैसे तैयार होके चल रही हो"

मैं -" अरे वो चिकन वाली सफ़ेद और नीली साड़ी है न ,जो कमल की सगाई में तुमने पहनी थी बड़ी जंच रहीं थी उस दिन तुम,ऐसा करो आज वही पहन लो "

पत्नी जी - "पर वो तो राधिका भाभी देख चुकी हैं वो भी आ रही हैं इस पार्टी में,मन ही मन सोचेंगी की मैं साड़ी रिपीट कर रही हूँ"

मैं -"अरे तो कोई नहीं राधिका भाभी को 'ब्लाक' कर देना फिर नहीं देख पाएंगी"

-तुषारापात®™ (जरा मुस्कुराइए)

Friday 20 November 2015

नवम्वर याद आता है

नवम्बर की गुलाबी शाम का
तुम्हारे छूने से
सुर्ख लाल रात हो जाना
याद आता है,

सुरमई बादल में लपटा चाँद
और चाँदिनी रंग की
रिमझिम बारिश का होना
याद आता है,

मखमली काले बादल की ओट में
सितारे का टूट के
चाँद पे ज़ार ज़ार हो जाना
याद आता है

बिजली की चमकती आवाज़ पे
मदहोश पड़े पड़े अचानक
तुम्हारा चौंक के मुझे थामना
याद आता है

चाय की प्याली हाथ में लिए
खिड़की खोल के
तुम पर सूरज फेंकना
याद आता है

चले भी आओ अब
ज़िन्दगी की सफेदी
यादों से रंगीन नहीं होती
बिस्तर की नीली चादर पे
बनाया हमारा इंद्रधनुष
याद आता है ।

-तुषारापात®™

Thursday 19 November 2015

मदिरा मंथन

मदिरा सेवन कर्ता के प्रथम कुछ वर्षों में 100 Pipers बजता है उसे लगता है कि उसका जीवन NO 1 है पर शनेः शनेः उसके जीवन का सूर्य 8PM पे अस्त होने लगता है तब उसकी 'देशी माधुरी' उसका 'सुमिरन करना ऑफ' कर देती है और वो एक असहाय old monk बन के रह जाता है :)

जनहित में जारी -
-तुषारापात®™

Wednesday 18 November 2015

लाजवाब

उनके इस जवाब कि "लाजवाब हो तुम" का कोई जवाब नहीं
ख्वाब देखूँ जो कहीं उनका तो  सोंचू ये तो कोई ख्वाब नहीं

गिनने चलती हैं मेरी धड़कनें सीने पे रख के हाथ अपना
बढ़ जाएं जो धड़कनें तो कहती हैं इनका कोई हिसाब नहीं

लफ्ज़ लफ्ज़ पढता हूँ तो हर्फ़ हर्फ़ वो खुलती हैं
उसपे ये कहना के जल्दी में पढ़ी जाने वाली मैं किताब नहीं

सुलगती आँखों की छुअन से भाप उठती है शबनमी बदन से
गिरा के आँचल वो कहना उनका के एक तुम ही बेताब नहीं

लाल होंठों के लफ़्ज़ों पे है नुक्ते सा एक काला तिल
एक ग़ज़ल जैसा वो चेहरा जिसपे आज नकाब नहीं

कोरे कागज़ को आहिस्ता से रंगीन किया जाता है
बेसबर होके ग़ज़ल पढ़ना महफ़िल का आदाब नहीं

मीर ने भी कहा और खूब असद भी कह गए उर्दू फ़ारसी में
'तुषार' से कहना उनका मगर हिंदी में तुम्हारा कोई जवाब नहीं

उनके इस जवाब कि "लाजवाब हो तुम" का कोई जवाब नहीं.....
-तुषारापात®™
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Monday 16 November 2015

चोर

दिन के वक्त जब तुम मिली थीं
तो थोड़ा सा तुमको चुरा लाया था
तुम्हारी खुश्बू तुम्हारा अक्स
चाय की प्याली से टकराती तुम्हारी अँगूठी की खनक
सुरमई आँखों में तुम्हारी डूबते दो सूरजों की चमक
घर आकर चोरी का ये सारा सामान
बंद आँखों से देख रहा था कि
पलकों के पल्लों पे कोई दस्तक देता है
खोलकर देखता हूँ तो
अपनी वर्दी में कई सितारे टाँकें
रात एक इन्स्पेक्टर की तरह
तुम्हारे ख्वाबों की हथकड़ी लिए खड़ी है
चाँद के पुलिस स्टेशन में
चोरी की रपट तुमने तो नहीं लिखवाई ?

-तुषारापात®™

Sunday 15 November 2015

बुद्ध

कई किस्से सुनाता रहा
वो बूढ़ा मुझे
शायद कई दिनों से तरस रहा था
किसी से दो शब्द बतियाने को/
दवा की दो पुड़ियों से
बीमार का तीमारदार बन गया मैं
शर्मा रहा था भूख और मर्ज में से
किसी एक को पहले बताने को/
और लावारिस मुर्दे को फूँक आया मैं
शायद हिन्दू ही था वो
अब समझा क्यों कहा जाता था
कलाई पे नाम अपना गुदवाने को/
एक बूढ़े
एक बीमार और
एक मुर्दे के साथ
गुरु ने कहा था मुझे एक दिन बिताने को/
लेकिन मैं 'बुद्ध' नहीं बन पाया
चलो अच्छा ही हुआ
बेवजह क्यूँ जाता मैं
एक नया मजहब बनाने को/

-तुषारापात®™

Tuesday 10 November 2015

ताश के आध्यात्मिक पत्ते

दिवाली का त्यौहार और ताश के खेल का कॉम्बिनेशन तो सभी रात्रि जागरण करने वाले बहुत अच्छी तरह से समझते हैं। ताश के बदनाम पत्तों को देखकर अचानक ख्याल आया की इसमें तो पूरी दुनिया का ज्ञान छुपा है।
ताश के 52 पत्तों की एक अपनी पूरी दुनिया है जो हमारी दुनिया से बहुत मिलती जुलती है बादशाह और बेगम,हमारी दुनिया के शाषन करने वालों जैसे हैं और गुलाम कहने को ही बस गुलाम है वास्तव में वो 10 पत्तों को अपने नीचे दबा के रखता है और व्यवस्था बनाये रहता है जैसे हमारे IAS या PCS अधिकारी आदि ।बाकी 10 से 2 तक के पत्ते आम इंसानों जैसे अपनी अपनी हैसियत अनुसार रहते हैं।
अब बात करते हैं इक्के की कि वो क्या है ? इक्के की हैसियत बादशाह के भी ऊपर है और दुक्की के नीचे भी है तो उसे क्या कहा जा सकता ? मेरे हिसाब से इक्का उस ईश्वर या उपरवाले का प्रतीक है जिसकी हम अलग अलग रूप में इबादत करते हैं,उसे सबसे बड़ी शक्ति भी मानते हैं और सबका आधार भी,यानि बादशाह के भी ऊपर और दुक्की के नीचे का भी ,ताश का पहला और आखिरी पत्ता भी इक्का ही है।
पत्तों के अलग रंग और प्रकार अलग अलग मजहब और रहन सहन को दिखाते हैं जिनके अपने अपने ख़ुदा हैं (हुकुम,ईंट,चिड़ी और पान और उनके इक्के),रूप रंग में अलग होते हुए भी मूल रूप से सब एक ही व्यवस्था का पालन करते हैं।
अच्छा आप सबने ये भी देखा होगा की ताश की गड्डी में दो या तीन जोकर भी मिलते हैं जो आमतौर पे खेल में काम नहीं आते और गड्डी की डिब्बी में बेकार पड़े रहते हैं और हम उन्हें भूल भी जाते हैं,हाँ जब कोई पत्ता गुम हो जाता है और पूरी गड्डी बेकार हो सकती है तब उनका इस्तेमाल होता है,अब सवाल उठता है उन्हें क्या नाम दूं फिर अचानक ख्याल आया की ये शायद उस ब्रह्म शक्ति उस सबसे बड़ी ताकत को दिखाते हैं जिन्हें हम जानते भी नहीं क्यूंकि इक्के तो हमारी कल्पना के खुदा हुए पर ये जोकर वास्तविक सर्वोच्च शक्ति के अवतार के रूप में आते हैं जब गड्डी यानि संसार खतरे में होता है।
और जनाब जरा गौर से देखिएगा,सारे पत्तों का असली रंग हम माया में पड़े लोगों की तरह हल्का पड़ जाता है पर इन जोकरों का रंग वैसा ही पाएंगे जैसी नई गड्डी के पत्तों का होता है
जाइये देखिये रंग जाँचिये और हाँ मुझे बताइएगा जरुर ,इस गड्डी का कौनसा ताश का पत्ता आपसे मिलता है ?

(वैधानिक चेतावनी:- जुआ खेलना आप और समाज दोनों के लिए हानिकारक है।)

-तुषारापात®™

Monday 9 November 2015

नया कटोरा और धनतेरस

के ये सोचकर/जो आज खरीदे बर्तन/खुदा उसको बरकत देता है
नुक्कड़ का/एक भिखारी/हर धनतेरस/नया कटोरा खरीद लेता है

-तुषारापात®™

Sunday 8 November 2015

बिहार चुनाव

सूरज जब दीपक बनने का प्रयास करता है तो लालटेन से पराजित होता है
इति सिद्धम्

-तुषारापात®™

Friday 6 November 2015

दिवाली की सफाई

दिवाली आने वाली है,बचपन में तो त्यौहार का मतलब नए नए कपड़े, मिठाई और पटाखों का मिलना भर होता था,10 दिन पहले से रोज माँ से पूछना कब है दिवाली,कब है दिवाली ?
ताऊ जी और दादी को देखता था तो उनके लिए दिवाली का त्यौहार मतलब पूजन,लक्ष्मी पूजा की तैयारी वो बड़ी जोर शोर से किया करते थे।
खैर मैं अब न उतना छोटा रहा और न ही ताऊ जी के जितना बड़ा हो पाया हूँ तो उम्र के इस मुकाम पे मेरे लिए दिवाली का मतलब है घर की सफाई, हाँ भाई दिवाली पे सबसे ज्यादा मजा आता है पूरे घर को साफ़ करने में और वो भी पत्नी जी के special comments and guidelines के साथ,
तो साहब सबसे पहले बारी आती है उस जरुरी सामान की जिसे हर बार की सफाई के बाद सहेज के इसलिए रख लिया जाता है की वो कभी आगे काम आएगा ( जो शायद ही कभी काम आता है ) और हाँ अभी उसे हम कबाड़ नहीं कह सकते क्यूंकि अभी वो भविष्य में कभी काम आ सकने वाले सामान की स्थिति में है ,हर बार की तरह इस बार भी हम उसमे से कुछ सामान छाँट के निकाल देते हैं मतलब उसे कबाड़ घोषित कर कबाड़ी की राह देखते हैं और बाकी सामान को बड़ी अच्छी तरह झाड़ पोछ के अगली बार की दिवाली की सफाई में फेंकने के लिए रख देते हैं ।
भई हमारी आदत है हम कोई नयी चीज़ इसलिए इस्तमाल नहीं करते कि इस्तमाल करने से वो पुरानी हो जाएगी इसलिए उसे रखे रहते हैं फिर जब रखे रखे वो पुरानी हो जाती है तो उसे कबाड़ के रूप में कभी आँगन तो कभी दुछत्ती पे डाल देते हैं कि 5 साल तो काम आई नहीं पर आगे शायद कभी काम आये, फिर उसके साथ वही होता है जो ऊपर लिखा है ।
हम सोफा हो या साईकिल की गद्दी पहले तो मनपसंद रंग की बड़ा सर खपा के पसंद करते हैं फिर एक गन्दा सा कवर लाकर उसे ढके रहते हैं और तब तक ढके रहते हैं जब तक की अन्दर वाली गद्दी फट नहीं जाती मजाल है कि कभी अन्दर की गद्दी का असली रूप रंग कोई देख पाए।
हमारे आपके सबके घरों में ऐसे सामान भरे पड़े हैं जो कभी कोई काम नहीं आते पर हम मोह नहीं छोड़ पाते और उसे रखे रहते हैं
अरे भई हटाइए ऐसे सामान को ,बहुतों के वो बहुत काम आ सकता है उन्हें दे दीजिये और उस सामान की अच्छी हालत में दीजिये नाकि घर में रखे रखेे जब ख़राब हो जाये तब आप उसे किसी को दें और वो किसी के काम न आ सके,उसे कबाड़ न बनने दें ऐसा करके आप किसी की दिवाली खुशियों से भर सकते हैं
एक बात कहूँ दिवाली न धन की पूजा है,न पटाखों का शोर ,न रौशनी की सजावट और न ही मिठाइयों की लज्जत,दिवाली तो है सफाई का त्यौहार
मन की सफाई का और विचारों की सफाई का और ज्ञान रूपी लक्ष्मी का स्वागत करने का
तो इस दिवाली जलन,कुढ़न,लालच आदि के पटाखे फोड़तें हैं और कुत्सित विचारों को जलाकर खुद की सफाई करते हैं और सदविचारों के दियों की रौशनी में दिवाली मनाते हैं देखिये फिर कितना आनंद मिलता है।
(पिछले वर्ष fm रेनबो पर मेरा ये लेख RJ aparajita द्वारा प्रसारित हुआ था हमेशा की तरह डेट मुझे याद नहीं है पर पिछली दिवाली के कुछ दिन पहले की बात है )

- तुषारापात®™
© tusharapaat.blogspot.com

Tuesday 3 November 2015

बेटी बचाओ

'ऋचाओं'को मिटाते जाओगे तो 'वेद' कोरे रह जायेंगे।

-तुषारापात®™

Sunday 1 November 2015

लफ्ज़

बेपर्दा होकर
बहुत मुश्किल से निकले थे
बड़ी हिफाजत से
चिट्ठियों का लिबास पहनाया था इन्हें
तुम्हारे होठों को छूकर पाकीज़ा होना था इन्हें
इसीलिए
डाक के उस काफ़िर लाल डिब्बे में नहीं भेज पाया
आज पुरानी बकस से खनक के बाहर आ गए
कुछ सील से गएँ हैं
मुलायम ठंडी धूल में लिपटे हुए
झाड़ पोछ के सोचा थोड़ी गर्माहट कर दूं इनपे
आँगन की डोरी पे टांग दिए हैं सारे
पर तेज़ आंच में सख्त न होने पायें
इसलिए
पिछली मार्च के उन 'लफ़्ज़ों' को
जाते हुए अक्टूबर की नर्म धूप लगा रहा हूँ

-तुषारापात®™


Tuesday 20 October 2015

"एक थाली दो प्लेट और पाँच गिलास"

बाबू विश्वनाथ तखत पे बैठे बैठे अपनी छड़ी से कच्ची जमीन को कुरेदे जा रहे थे और उनका मन यादों की सुरंग के भीतर और भीतर कहीं चला जा रहा था••••••••••••••••••••

•••आह..कितनी भव्य हुआ करती थी ये शारदीय नवरात्र की महाष्टमी पूजा, अष्टमी की पूजा क्या..कुलदेवी की पूजा, सारे इसे बस 'पूजा' कहते थे
पूरा खानदान इस दिन यहाँ,पुरखों के इस घर में,इकठ्ठा होता था..
मेरे सातों सगे भाई,भाइयों के बीवी बच्चे,सारे चाचा ताऊ और उनके पुत्र और उनके पुत्रों के बच्चे भी कानपूर लखनऊ और अन्य जगहों से पूजा में जरूर आते थे ऐसा लगता था मानो कोई विवाह जैसा बड़ा आयोजन हो रहा हो पूरे कस्बे में लोग चर्चा करते कि परिवार में एकता हो तो विश्वनाथ ठाकुर के परिवार जैसी•••••
खानदान में सबसे बड़े होने के नाते इस पूजा का उत्तरदायित्व विश्वनाथ बाबू को ही प्राप्त था घर का सबसे बड़ा बेटा या सबसे छोटा पुत्र ही इस पूजा के लिए भवानी माँ का सेवक हो सकता था और पुरे खानदान के सिर्फ लड़के ही इस पूजा में शामिल हो सकते थे घर की लड़कियों के लिए ये पूजा देखना तक वर्जित था, हाँ घर की बहुएँ वगैरह पूजा के कार्यों जैसे प्रसाद बनाना और भोजन बनाना आदि कार्य करती थीं क्योंकि पूजा में हवन के तुरंत बाद ही भोजन ग्रहण करने की परम्परा थी घर के पुरुष हवन स्थान से थोड़ा दूर पंगत में बैठते थे और घर की औरतें भोजन से सजी थालियां लगाती थीं
विश्वनाथ बाबू के पिताजी अपने कुल में सबसे बड़े पुत्र थे उनके बाद उनके सारे चाचा ताऊ के परिवार में विश्वनाथ बाबू ही सबसे बड़े थे सो उन्हीं को अपने घर में नौ दिनों के लिए जगदम्बा को कलश में थामने का सौभाग्य मिला था
पर धीरे धीरे समय बदलता गया और उनके भाइयों में कुछ रहे कुछ चल बसे,भाइयों और चाचा ताऊ के बाद उनके पुत्रों का आना पहले तो कम हुआ और फिर न के बराबर हो गया फिर भी विश्वनाथ बाबू अपने पुत्रों के साथ इसका आयोजन करते रहे हाँ अब इसका वो विशाल स्वरूप न रहा था
आज भी महाष्टमी है पर अब विश्वनाथ बाबू पचहत्तर वर्ष के हो चुके हैं उनके अपने पाँचों पुत्र अब उनकी रत्ती भर नहीं सुनते उनका सबसे बड़ा लड़का सोमनाथ घर का पहला पुत्र होने के नाते बहुत लाड़ प्यार से पला था फलतः वो निरंकुश हो शराब आदि दुर्व्यसन में लिप्त रहने लगा, आज भी वो नशे में पड़ा हुआ है एक अरसा हुआ विश्वनाथ बाबू उससे कोई आशा रखना छोड़ चुके हैं , चूँकि मझले बेटों को पूजा का दायित्व दिया नहीं जा सकता था तो छोटे बेटे ओमनाथ के गले में ये घंटी उन्होंने बाँधी
उनके सारे पुत्रों के बीच मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के पुत्रों की तरह जबरदस्त झगड़ा फसाद हुआ करता है कोई दूसरे को फूटी आँख न सुहाता है घर में ही पाँच भोजनालय खुल गए हैं (सबके चूल्हे अलग हो गए हैं)
घर की ये दुर्दशा देखकर विश्वनाथ बाबू को काफी पहले की एक बात रह रह कर याद आती रहती है जब उनके भाई की पाँच साल की पोती ने बड़े भोलेपन से उनसे पुछा था-" दादाजी..दादाजी..ये बताइये हम ये पूजा क्यों नहीं देख सकते?"
हालाँकि विश्वनाथ बाबू इस रसम को पसंद नहीं करते थे पर खानदान के रिवाज में बंधे थे सो उन्होंने उससे कहा था-"वो इसलिए मेरी रानी बेटी क्योंकि ये कुल देवी की पूजा है और इसे सिर्फ लड़के करते हैं लड़कियाँ तो दूसरे घर की होती हैं न"
तब वो बच्ची तपाक से बोली थी-" पर दादाजी..हम लड़कियाँ ही तो देवियाँ हैं और आप हमको ही हमारी पूजा से दूर रखते हैं तो क्या आपकी पूजा पूरी होगी ?" विश्वनाथ बाबू को आज भी यही लगता है कि उस दिन माँ जगदम्बा ही उनसे ये कह गईं थीं और उन्होंने उनका कहना नहीं माना इसलिए माँ का श्राप उनके कुल पे लग गया जो इतने बड़े परिवार की आज ये दशा है
खैर ओमनाथ ने पूजा आयोजित की,बड़े भाई को छोड़ के उसके सारे भाई अपने पुत्रों समेत शामिल हुए क्योंकि अभी विश्वनाथ बाबू ने वसीयत जो नहीं की थी हाँ ओमनाथ का एक चचेरा भाई भी पूजा में आया है,
हवन हो चुका है सब प्रसाद चख चुके हैं आज किसी भी लड़के के यहाँ भोजन नहीं बना है सब खाने की आस में बैठे हैं
पर ओमनाथ मन ही हिसाब लगा रहा है..एक पिताजी की, एक चचेरे भाई रामनाथ की, मैं और मेरे दोनों लड़के तो पम्परा के अनुसार एक ही में हो जायेंगे और जोर से चिल्लाके अपनी पत्नी को आवाज लगाता है-"पार्वती..एक थाली..दो प्लेट..और पाँच गिलास लगाओ"

-तुषारापात®™
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Wednesday 14 October 2015

फलाहारी चिकन तंदूरी

व्रत की पकोड़ी, व्रत के चिप्स,पापड़,और तो और फलाहारी पूरी थाली बाजार में अब उपलब्ध हैं
थोड़े दिन और रुकिए सेंधा नमक से बने चिकन तंदूरी और व्रती मटन कोरमा भी मार्केट में जल्दी मिलेंगे।

नवरात्रि स्पेशल फलाहारी -'तुषारापात'®™

Sunday 11 October 2015

कार्बन का पर्दा

कलम और ऐतबार ?
वो लिखता है एक कागज पे,दो पे छपता है
कलम दो कागजों के बीच कार्बन का पर्दा रखता है

-तुषारापात®™

Saturday 10 October 2015

दाँतों के निशान

तारीफ में कह जाते हो तुम जिसे वाह बड़ा 'गहरा' लिखा है
कागज के सफ़ेद गालों पे कलम के दाँतों के नीले निशान हैं वो

-तुषारापात®™

सलवटें

तुम्हें दिखती हैं जो इबारतें
कलम की अंगड़ाइयों से बनी
कागज की सलवटें हैं वो

-तुषारापात®™

Wednesday 7 October 2015

कुछ मीठा हो जाए


आप लोगों ने वो कहानी तो सुनी/पढ़ी ही होगी जिसमे सारस और लोमड़ी एक दुसरे को दावत पर बुलाते हैं सारस लोमड़ी को दावत देता है तो खाना परोसता है सुराही में (सुराही अपनी जगह fix रही होगी ) अब सारस तो अपनी चोंच से खाना खा जाता है पर लोमड़ी बेचारी सुराही में कैसे खाती खैर फिर लोमड़ी ने दावत दी सारस को और खाना परोसा थाली में अबकी सारस बाबु भूखे रह जाते हैं,बचपन में सबने सुनी होगी ये कहानी
अब आते हैं असली कहानी पे

भई मेरी और पत्नी ट्विंकल की खाने पीने की पसंद और आदतें बहुत अलग अलग हैं उन्हें हद से ज्यादा रसीली सब्जी पसंद है (शायद वो प्रयाग से हैं जहाँ तीन तीन नदियों का संगम है इसलिए ऐसा हो ;) ) और मुझे पसंद है सूखी सब्जी खूब भुनी हुयी (हमारे यहाँ की गोमती नदी की भी हालत आजकल ऐसी ही है) तो एक दिन मेरी पसंद का खाना बनता है तो दूसरे दिन पत्नी जी की पसंद का (ये नहीं बताऊंगा की बनाता कौन है शादीशुदा सब समझदार हैं समझ ही लेंगे) तो जिस दिन जिसके मन का खाना नहीं बनता तो वो उस दिन थोड़ा कम खाना खाता है और उसकी भरपाई के लिए kitchen में कुछ मीठा ढूंढता है मिठाई हो या बिस्किट वैगरह वैगरह।

कल रात परवल आलू की रसीली सब्जी बनी,यकीन मानिये इतनी रसदार कि कटोरी में गंगा माँ साक्षात् थीं खैर हम चुपचाप हर हर गंगे कर लिए और कुछ मिठाई ढूंढी वो भी न मिली (badluck बड़ा अच्छा है हमारा)
अब भाई आज बनी सूखी सब्जी वो भी सोया-मेथी आलू की और साथ में पराठे अब अपने राम तो फटाफट मन से पूरा खाना खा गए अब बारी ट्विंकल जी की थी जो बेचारी बड़ी मुश्किल से एक एक कौर निगल रहीं थी फिर बड़ी मासूमियत से बोलीं (इसी बात से ये पोस्ट लिखने का विचार इस नाचीज को आया) कि "सोन पापड़ी घर में रखी जा सकती है वो जल्दी ख़राब भी नहीं होती", इतना सुनना था की हम दोनों पूरी बात समझते हुए खिलखिला के हँसते हँसते खाने की मेज पे लोटपोट हो गए ,
इन्ही खट्टे मीठे लम्हों से गृहस्थी का सुख है।
फिर मन में विचार आया की यही हम जिंदगी के साथ करते हैं जो मन का होता जाये वो तो ख़ुशी ख़ुशी स्वीकार करते हैं और जो मन का नहीं उससे भागते हैं और दुःख का रोना रोते हैं और मिठाई वाले (किसी ज्योतिषी/ताबीज वाले बाबा) के पास जाते हैं। मिठाई भोजन का छोटा सा विकल्प हो सकती है परन्तु सम्पूर्ण भोजन नहीं बन सकती । तो ज्यादा मीठा खाओगे तो डाईबीटीज हो जाएगी भईया फिर न कहना की बोले नहीं थे।
तो इसी बात पे कुछ मीठा हो जाए ;)

-तुषारापात®™ (repost)
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Monday 5 October 2015

चाँद की रिश्वत

कहना चाहा स्याह रात ने जब उजले दिन का सच
ख़ुदा ने उसके होंठो पे चमकीला चाँद रखा और खामोश कर दिया

-तुषारापात®™

Sunday 4 October 2015

अपमान के काँटे और सफलता के फूल

कदम कदम पे अपमान के काँटे चुभोने वालों से मैं खूब बदला लेता हूँ
मैं उन्हें अपनी हर सफलता के फूल भेज देता हूँ।

-तुषारापात®™

Wednesday 30 September 2015

हिसाब

हिसाब के कच्चे तो नहीं हैं हम आप बताइये ?

'पूरे चाँद की एक आधी रात उधार ली थी तुमने हमारी
चौथ की दो चांदनी रातों से कभी कर्ज़ा अदा कर जाओ'

-तुषारापात®™

Tuesday 29 September 2015

पिज्जा

जोर की भूख में
पहला दूसरा टुकड़ा
फटाफट खत्म होता है
तीसरा टुकड़ा भी
धीरे धीरे किसी तरह टूँग ही लेता हूँ
पर चौथा न खाया जाता है न फेंका
प्लेट में पड़ा पड़ा
ख़राब हुआ करता है
तुम्हारे बिन
सुबह दोपहर शाम और रात
दिन के मेरे ये चार हिस्से
मानो उसी
लार्ज पिज्जे के चार टुकड़े हों ।

-तुषारापात®™
© tusharapaat.blogspot.com

Sunday 27 September 2015

पितृदोष

पितृपक्ष शुरू हो गया है मैंने कई लोगों को पितृदोष के उपाय पूछते देखा है और उसके लिए तरह तरह के उपाय करते भी देखा है लेकिन बगैर इसे जाने हुए कि ये है क्या ? क्या ये वाकई कोई दोष है ? या ये महज एक भ्रम मात्र है ?
पितृदोष का स्वरुप वैसा नहीं है जैसा कि आपकी कुंडली देख के कोई बता देता है और आप लग जाते हैं पूजा पाठ में या कौओं को खाना खिलाने में या किसी अमावस्या को पानी में कुछ बहाने में
हम अपनी मान्यताएं और मूल विचार भूलते जा रहे हैं और इसी मूल से हमारे विचलन का नाम है पितृदोष और ये व्यक्तिगत न होकर सामूहिक है मैं तो कहूँगा कि ये दोष पूरे भारत को लगा हुआ है हम अपनी परम्पराओं और विचारों को अपनाना छोड़ते गए और पराजित होते गए अब यहाँ ये समझना आवश्यक है कि प्राचीन ज्ञान को उसकी उसी अवस्था में छोड़ देना उस ज्ञान को विकसित न करना ही अपनी परम्परा छोड़ना है अब आप में से कई कहेंगे कि पुरानी और सड़ी गली मान्यताओं को ढोना कहाँ की समझदारी है तो मैं ये कहूँगा उन्हें विकसित करने की जिम्मेदारी हम सब की ही थी क्या कोई बाहर से आकर उन्हें विकसित करेगा ? पुरानी मान्यता थी कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता था और इसी मान्यता को जब और अधिक विकसित किया गया तब पाया गया कि नहीं पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है इसलिए हर मान्यता हर विचार का महत्व है जरुरत है उसे विकसित करने की अगर आप ऐसा नहीं करते तो आप पर दोष लगेगा ही आप इससे बच नहीं सकते
हमारी संस्कृति और धर्म जो कि पूर्णतया वैज्ञानिक है हमें यही सिखाती है कि आपने इस संसार के जितने संसाधन प्रयोग किये या कहूँ भोगे तो उनके बदले में आप भी कुछ कीजिये उन संसाधनों का संरक्षण और विकास भी कीजिये (इसी लिए नदियों को देवी और सूर्य आदि को भगवान का स्थान दिया गया) अगर आप ऐसा नहीं करते तो आप दोषी हैं
अगर आप पितृदोष से मुक्त होना चाहते हैं तो इसका बहुत साधारण सा उपाय है कि अपने आने वाली पीढ़ी में पुरानी पीढ़ियों के विचारों का बीजारोपण कीजिये और उन्हें उनमे सुधार लाने और उन विचारों को विकसित करने की दिशा दिखाइए हर एक व्यक्ति को ये करना होगा और एक दूसरे को जागरूक करना होगा तभी ये दोष राष्ट्र से हटेगा और खुशहाली आएगी वरना व्यक्तिगत कष्ट भी दूर नहीं होगा आप चाहे जितना उपाय कर लें
अपने बच्चों को उचित संस्कार देकर सही वैज्ञानिक सोच देकर ही आप अपने पुरखों को तृप्त कर सकते हैं क्यूंकि उनके द्वारा उत्पन्न विचार और उन विचारों के आविष्कार व्यर्थ जा रहे हैं वो अतृप्त हैं और यही आप पर दोष है और इसका यही एक मात्र उपाय है जो ऊपर बताया गया है वरना चाहे करोड़ों कौओं को आप खाना खिलाते रहें और पेड़ काटते रहें ये दोष नहीं हट सकता और इसका भुगतान पूरे राष्ट्र को करना पड़ेगा।

-तुषारापात®™
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Thursday 24 September 2015

सच्चा लेखक

दो लफ्ज़ लिखने को सौ लोगों को पढता हूँ
सच्चे किस्सों से झूठी कहानियां गढ़ता हूँ

-तुषारापात®™

Monday 21 September 2015

मूर्ती पूजा से मोक्ष तक

अजब है बंदगी तेरी
तू पहले ही घर में दस्तक दिया करता है
दो कदम चल के तो देख
उस बंद गली के
आखिरी मकाँ का दरवाजा खुला रहता है

-तुषारापात®™
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Sunday 20 September 2015

नसीब

अपनी पूरी दावात उड़ेल कर
खुदा ने नीले आसमान को स्याह किया
फिर चमकती कलम से कुछ लिख दिया
हाँ तुम्हें यकीन नहीं होगा
मगर ये चाँद तारे उसकी ही लिखावट हैं
मैं पढ़ता हूँ इन्हें हर्फों और लफ़्ज़ों की तरह
किसी रात जब आसमान साफ़ हो
मेरे साथ बैठना
नक्षत्रों की इबारतें तुम्हारी हथेली में दिखा दूँगा
तुम्हारा नसीब बता दूँगा
अपना नसीब बना लूँगा।

-तुषारापात®™
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Thursday 17 September 2015

माँ

नहीं जानता,नहीं मानता कि
खाली बर्तन देख के निकलो
तो अपसगुन होता है या नहीं
गंगाजल देख के जाओ तो
काम बनता है या नहीं
पर जब किसी खास काम पे जाना होता था मुझे
तो माथा मेरा चूम लिया करती थी
हाँ अब कुछ कुछ समझा हूँ आखिर क्यों
माँ, तू भरी आँखों से मुझे विदा किया करती थी

-तुषारापात®™

Tuesday 15 September 2015

शक्कर का टुकड़ा और चींटे

सुबह सुबह
चाय बना रहा हूँ
शक्कर का एक टुकड़ा
चम्मच से छिटक कर
जमीं पे गिर गया
चार पाँच चींटे
उस टुकड़े के पास चक्कर काटने लगे
और चीनी के उस टुकड़े को
खींचते हुए कहीं ले गए
ऐसा ही कुछ देखा था
कल शाम बस स्टॉप पे
जब ऑफिस से लौट रहा था
चाय बन गई है
चुस्कियों के साथ
अखबार का तीसरा पन्ना पढ़ रहा हूँ
'बस स्टॉप के पास बलात्कार!'

-तुषारापात®™
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Monday 14 September 2015

ब्लैकबोर्ड का मुंह काला

चरित्र की सफ़ेद चॉक
लिखती है कई अक्षर
पल में उन्हें मिटाकर
कामना का डस्टर
ब्लैक बोर्ड का मुँह काला कर देता है।

-तुषारापात®™
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Sunday 13 September 2015

कुत्ता कौन ?

ग्यारहवें माले के फ्लैट से 'भट्टाचार्या' साहब का पालतू कुत्ता पेडिग्री को मन लगाकर खूब चबा चबा के खाकर अपनी भूख शांत कर बिल्डिंग से बाहर के फूटपाथ पे आया ।
शंका समाधान के उपरांत उसने देखा की कुछ उसके जैसे ही चार पैर, एक दुमधारी जीव लुटे पिटे भूखे नंगे से 'फुटपाथ' पे लोट रहे हैं उसने कड़क आवाज़ में उनसे पूछा "ऐ कौन हो तुम लोग और यहाँ क्या कर रहे हो चोरी के इरादे से हो क्या ? लुच्चे कहीं के"

फूटपाथ पे लेते एक कुत्ते ने डरते डरते कहा "दोस्त हम भी तुम्हारी तरह ही कुत्ते हैं बस देसी हैं आवारा हैं गन्दा संदा खा के यहाँ फूटपाथ पे पड़े रात बिता रहे हैं"

भट्टाचार्या के कुत्ते ने कहा "कमीनो मुझे बेवक़ूफ़ बनाते हो अगर तुम कुत्ते होते तो मेरी तरह AC लगे फ्लैट में होते यहाँ फुटपाथ पे नहीं,अच्छी तरह जानता हूँ मैं फुटपाथ पे भूखे नंगे सोने वाले 'आदमी' होते हैं कुत्ते नहीं, चलो भागो यहाँ से"

-तुषारापात®™

Saturday 12 September 2015

अमावस

वो अपने चिमटे से
चाँद सी रोटियाँ सेंक देती
मगर
आटे के खाली कनस्तर ने
उसे बताया कि अमावस है आज

-तुषारापात®™
©tusharapaat.blogspot.com

Thursday 10 September 2015

पंख

सपनो के पंख
बचपन का ये हवाई सफ़र
फिर नहीं आएगा
उड़ लो जी भर के आज
कल इन्हीं परों पे
काबिलियत का बस्ता आ जायेगा

-तुषारापात®™

Wednesday 9 September 2015

विज्ञान आओ करके सीखें

आपको आपके इश्क की सही स्थिति तब पता चलती है :-

जब आप अपनी प्रेमिका को ,अपनी रेशमी जुल्फों में कंघी फिरा फिरा के,बड़े प्यार से दिए आपके love letters के छोटे छोटे टुकड़े, उसी कंघे से चिपका चिपका के अपने छोटे भाई को 'विद्युत् चुम्बकत्व' पढ़ाते देखते हैं।

-तुषारापात®™


Tuesday 8 September 2015

रेतघडी


कभी महसूस किया
रेतघड़ी में बंद रेत का दर्द
जाने कितनी बार
कभी उलट के कभी पलट के
उसे वक्त के पोस्टमैन सा दौड़ाते हो
मीलों का सफर छोटी सी इक डिबिया मेँ
ज़र्रा ज़र्रा उसका गर्म होकर प्यासा है
अब तो उसे काल के इस चक्र से आज़ाद कर दो
नम होकर बिखर जाने दो
समंदर की रेत बन जाने को

-तुषारापात®™