Saturday 18 July 2015

जलनखोर सूरज

दहकता है
सुलगता है
जलता फिरता है
ये सूरज यूँ ही नहीं
देख लिया था
एक अमावस की रात
इसने उस चाँद को
कहीं और चार चाँद लगाते हुए

-तुषारपात®™
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कलमकार

मैंने कहा :-
"लहू की सौ बूंदों से
बनता है कहीं जा के
स्याही का एक लफ्ज़/
बड़ी आसानी से
कह दिया तुमने
तेरी मेरी अब खत्म हुई/
तुम तो माहिर हो
जाओ अपने लिए
और एक नयी कहानी बना लो"/
उसने कहा :-
"इस कागज़ पे तो हैं
हर तरफ
तुम्हारी ही इबारतें/
ख़ुद को पढ़ती भी हूँ तो
तुम्हारे दस्तख़त के साथ/
नया कुछ लिखने को
तुम्हे ही नहीं दिखती बाकी
कोई जगह मुझमें/
तो क्यों रोकूँ मैं
एक कलमकार के हाथ"/

-तुषारापात®™