Monday 11 April 2016

हाशिये का तिरेसठ

"भुला चुका था तुम्हें..हमेशा के लिए...बहला लिया था खुद को ये यकीन दिलाकर कि कुछ कलम ऐसे ही सूख जाते हैं..उन्हें कागज नहीं मिलता जिंदगी की रंगीन इबारत लिखने को...पर जब दोबारा से तुम्हें देखा...मेरे अंदर की स्याही उबलने लगी..आयत..बिखर जाना चाहता हूँ...तुम्हारे पन्नों पे..." दोनों कन्धों से उसे पकड़ते हुए मैंने कहा

"संभालो खुद को..वेद...वेद..लीव मी" उसने खुद को मुझसे छुड़ाया और सामने वाले सोफे पे जाकर बैठ गई और गहरी साँस लेकर आगे बोली "किसी और की इबारतों से भरे कागज पे जब.... स्याही बिखरती है तो नई इबारत नहीं लिखती....कागज का मुँह काला होता है.."

मैंने देखा उसने ये कहते हुए अपने ऊपर के होंठ को दाँत से दबाया ये उसके कशमकश में होने की निशानी हुआ करती थी वो केटल से चाय कप में निकालने लगी,हदीस आज आउट ऑफ़ स्टेशन था..ऑफिस से मैं आयत के घर ही आ गया था वो भी उससे..पूछे बिना

"और कब तक यूँ अनछपे फ्रस्ट्रेटेड राइटर से घूमते रहोगे..तलाश करो..तुम्हें बहुत से कोरे कागज मिल जाएंगे...किसी एक पे अपनी जिंदगी की गजल लिखो..कविता लिखो....आगे बढ़ो पुरानी बातों से...अब इस कागज पे किसी और की कहानी है"अपने गले पे आये पसीने की बूँदे उसने अपनी साड़ी से पोछी और मुझे चाय का कप पकड़ाते हुए कहा

"कोरे कागज...हा हा हा...आयत.. अधूरी कहानियों को कोरे कागज नहीं ....बासी कागज मिलते हैं... जानती हो...मुझे ये बात बहुत तकलीफ देती है कि इस कागज ने मुझे हाशिये पे डाल दिया" मैंने उसकी ओर ऊँगली का इशारा किया और उसपे नजर जमाये हुए चाय का एक सिप लगाया

अपनी गहरी आँखों में उसने मेरी आँखों को डुबाये रखा और भीगी सी आवाज में बोली "वेद..हाशिये पे लिखा हुआ एक छोटा सा शब्द या नम्बर...अक्सर कागज पे लिखी इबारतों की पहचान होता है..उसी से पता चलता है क्या पहला है क्या दूसरा"

"तो मैं तुम्हारी जिंदगी में..बस एक सीरियल नम्बर हूँ..तुम नहीं समझोगी आयत....इस सीरियल नम्बर को कितनी तकलीफ होती है..जब वो हाशिये से देखता है..किसी और कलम को इस कागज पे चलते हुए.." वो मेरी बात सुनके कुछ नहीं बोली,सोफे से उठकर ड्राइंग रूम के खुले दरवाजे की तरफ खड़ी हो गई दरवाजे की बाईं तरफ की दीवार की ओर सरका हुआ पर्दा पंखे की हवा से उड़ रहा था मैं उसके पास गया और दरवाजे की तरफ जिधर पर्दा था उसे खींच लिया,दरवाजे के पल्ले के पीछे वाली दीवार के सहारे उसे टिकाकर उसके सामने सट के ऐसे खड़ा हो गया जैसे हाशिये में ६३ लिखा हो

"याद करो आयत..ऐसे ही कितने ६३..हम बनाया करते थे.." उसके होंठो के बहुत पास जाकर मैंने कहा ,उसकी साँसे तेज होने लगीं..होंठ सुर्ख होने लगे..कांपती हुई..मेरी आँच से खुद को पिघलने से बचाते हुए उसने मुझे जोर का धक्का दिया..और गुस्से से भरी रूआंसी आवाज में बोली "अक्सर ६३ बनाने वाले ही ३६ बनकर रह जाते हैं" कहकर वो अंदर के कमरे में चली गई

मैंने दरवाजे के बंद होने की तेज आवाज सुनी,उसके घर से बाहर निकल के सड़क पे आया और एक सिगरेट सुलगाई,एक गहरा कश लगाया
धुएं का एक छल्ला छोड़ा और काफी देर तक उस छल्ले को बड़ा होते और ऊपर उठते हुए देखता रहा..बिल्कुल मेरी ही तरह दिख रहा था वो खाली और शून्य..शायद यही मेरा सीरियल नम्बर था..मैं मुस्कुराया और कार में आकर बैठ गया।

-तुषारापात®™