Friday 30 September 2016

श्राद्ध,मृतकों को हममें जिन्दा रखने की एक प्रक्रिया है

मिक्सी की तेज घिररर घिररर से नवीन की नींद खुली उसने आँखे मलते हुए बेड के साइड में रखी घड़ी पर नजर डाली तो पाया कि
सुबह के पाँच बजे हैं "पौर्णिका..पौर्णिका...यार बंद करो ये आवाज ...इतनी सुबह सुबह क्या बनाने लगीं" उसने अपने सिर पर तकिया रखा और लगभग चीखते हुए पौर्णिका को आवाज लगाई पर मिक्सी की आवाज किचेन से वैसी ही आती रही थोड़ी देर बाद वो झल्ला कर उठा और किचेन की तरफ आया

"अरे..आज तो तुम भी जल्दी उठ गए...लेकिन वेट..आज चाय बाद में मिलेगी...पहले जरा मैं ये दाल पीस लूँ...और उसके बाद सारा कुछ बना लूँ...तब..तुम चाहो तो थोड़ा सा और सो लो"पौर्णिका ने उसे देखते ही कहा और पहले की तरह अपने काम में लग गई

"सो लूँ?..इतने शोर में कोई सो सकता है क्या...और तुम ये आज सुबह सुबह क्या करने में लगी हो?" नवीन प्यूरीफायर से एक ग्लास पानी भरते हुए बोला

"नवीन..डोन्ट डिस्टर्ब मी...मुझे अभी बहुत काम है.." पौर्णिका ने उससे कहा और सबसे छोटी उंगली के पहले पोर पे अंगूठा रख ऐसे बुदबुदाने लगी मानो याद कर रही हो "सबसे पहले दही बड़ा...फिर पनीर की सब्जी...उड़द की दाल का हलवा... पापड़... चटनी... और...और...हाँ..चने की दाल की कचौड़ी..ये तो उसकी फेवरिट हुआ करती थी..ये मैं कैसे भूल गई"

"मेरे हाथ का बना खाना उसे कितना पसंद था...कहता था घर के खाने के आगे ये पिज्जा बर्गर नूडल वूडल सब बेकार हैं...हॉस्टल का खाना खा खा कर...बेचारा...कितना दुबला हो गया था..वजन भी..." वो काम करते जा रही थी और बोलती जा रही थी पर किससे ये शायद उसे भी पता नहीं था या शायद वो खुद से बातें कर रही थी

उसकी सारी बातें सुन और पागलों की तरह जूनून में उसे काम करता देख नवीन के दिल में हल्का सा एक धक उठा उसने खुद को संभाला और कहा "ग्यारह साल हो चुके हैं पौर्णिका.."

"अब तक तो उसकी शादी भी हो चुकी होती...क्या पता एक दो बच्चे भी हो जाते..मैं दादी हो गई होती और नवीन तुम दादा" उसने मानो नवीन की बात सुनी ही नहीं

"पौर्णिका..ग्यारह साल हो चुके हैं उसे गए हुए...जब तक हम इंडिया में थे तब तक तो ठीक था..पर अब एक साल हो रहा है न्यूयार्क आये हुए...यहाँ ये पितृपक्ष...ये..श्राद्ध..इन तिथियों का कोई मतलब है क्या"नवीन ने उसके हाथ में पानी का ग्लास दिया

उसने पानी पीने से मना किया और बोली "क्यों..क्या यहाँ न्यूयार्क में कोई दूसरे सूरज चाँद निकलते हैं...वही हैं न इंडिया वाले..मैं ये सब जल्दी से तैयार कर दूँगी..तुम किसी पंडित जी को ये खिला आना.."

"पंडित...पंडित यहाँ कहाँ मिलेगा" नवीन ने ऐसे कहा जैसे कोई अनोखी बात सुनी हो

"ठीक है...पादरी तो होंगे..उन्हें ही खिला देना या सीधे घर पर इनवाइट कर लेना" पौर्णिका को चिंता सिर्फ खाना बनाने की थी और वो उसी में रमी थी

"पादरी...हुंह..वो ये सब ढकोसले नहीं मानते...तुम क्यों यहाँ मेरी और अपनी हँसी करवाना चाहती हो..क्रिश्चन्श पुनर्जन्म में विश्वास नहीं रखते" नवीन ने ऐसे कहा मानो सारे अंग्रेज उस पर हँस रहे हैं उसका मजाक बना रहे हैं

"अजीब बात है...ईस्टर मनाने वाले...पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते...ठीक है मैं किसी गरीब को खिला दूँगी...अब ये मत कहना यहाँ गरीब भी नहीं होते" पौर्णिका की आँख में नवीन का बिम्ब धुंधलाने लगा,नवीन ने उसे अपने गले से लगाया,भर आई उसकी आँखों को चूमा और धीरे से कहा "जानता हूँ ये दुःख बहुत बड़ा है...पर पौरू..ये सब दिखावा नहीं लगता?"

"नव...मेरा बेटा था वो...उन्नीस साल तक पाला था उसे...उसे गए तो अभी बस ग्यारह साल ही हुए हैं...मुझे नहीं पता लोग इसे क्या कहते हैं दिखावा या अन्धविश्वास..पर ममता कोई तर्क नहीं सुनती..श्राद्ध हमारे मृतकों को हममें जिन्दा रखने की एक प्रक्रिया है.. और..और..मैं जानती हूँ ..कि..अब वो कभी भी..मेरे हाथ का खाना नहीं खा सकेगा...पर...नव..वो मेरी भावनाएं तो जरूर चख सकता होगा.."पौर्णिका ने कहा,उसके बाद न जाने कितनी देर तक नवीन का कन्धा भीगता रहा।

-तुषारापात®™ (पलकों पे कुछ बूँदों के साथ)

Tuesday 27 September 2016

क्या वाकई ?

रख के खंजर मेरे गले पे ये कहा उसने 'तुषार'
लिखो के कलम तलवार से ज्यादा ताकतवर है 

Thursday 22 September 2016

वर्षगाँठ

तुमने मुझे छुआ
मैं कवि हुआ
तुम्हारी मेरी कहानी ने आकार लिया
संसार ने घोषित मुझे कथाकार किया
तुम्हारा मुझमें विन्यास हुआ
मुझसे उत्पन्न उपन्यास हुआ
आँखों का त्राटक हुआ
मुझसे पहला नाटक हुआ
तुम्हारे संग चित्र खिंचा
मैंने अनोखा रेखाचित्र रचा
तुम्हारे मेरे जीवन की झाँकियाँ
ही हैं मेरी समस्त एकांकियाँ
तुम आच्छादित सुगंध
मेरा पहला अंतिम निबंध
तुम्हारे खुले मुंदे शुष्क नम नयन
मेरे हास्य व्यंग्य कटाक्ष प्रहसन
दर्पण की तरह प्रतिबिम्बित करतीं तुम सदैव सत्य सूचना
मेरी समीक्षा रिपोर्ताज साक्षात्कार हो तुम मेरी आलोचना
तुम्हारे साथ व्यतीत जीवन अधिक पर शब्द हैं अल्प
यात्रा वृतांत की डायरी पर अंकित सब सत्य गल्प
तुम्हारे साथ बंधा था आज मेरा जीवन मरण
पिछले जन्मों के पुण्यों का हुआ मुझसे संस्मरण
तुमसे है मेरा साहित्य मेरे लेखन की हर विधा
तुम्हारे बिना ये तुषारापात मात्र एक लघुकथा
मेरे जीवन की बस इतनी आख्या
मैं सन्दर्भ तुम्हारा तुम मेरी व्याख्या
अर्धांगिनी!सात जन्मों की प्रिय संगिनी
तुम्हीं आत्मकथा मेरी तुम्हीं हो जीवनी

-तुषारापात®™

Tuesday 20 September 2016

16 मोहरे 32 खाने

"उफ़ इस बार सत्रह शहीद...भगवान जाने कब तक और कितने सैनिक यूँ ही मारे जाते रहेंगे.....सरकार से अपना डिफ़ेन्स तक तो सही से होता नहीं...अटैक क्या खाक करेंगे" सेना पर आतंकवादी हमले की खबर देख पापा मायूसी और आक्रोश से मिली जुली आवाज में बड़बड़ाने लगे

"पापा..सरकार में हमसे और आपसे तो बेहतर ही लोग बैठे होंगे...वो समझते होंगे कब क्या और कैसे करना है...वैसे भी हम इंडियंस डिफ़ेन्स में बिलीव रखते हैं अटैक में नहीं "मन ही मन मुझे भी इस हमले को लेकर एक कड़वाहट थी तो उसी भावना में उनसे तल्खी से ये कह गया

पापा ने एक पल मुझे देखा,मुस्कुराये फिर बोले "डिफ़ेन्स... हूँSS....चलो एक बाजी शतरंज की हो जाए"

"अचानक शतरंज...अच्छा ठीक है...हो जाए" वैसे मेरी हार तो तय है क्योंकि मैंने शतरंज अभी अभी ही सीखा है और पापा इसके मंझे हुए खिलाड़ी हैं पर फिर सोचा चलो मन की थोड़ी भड़ास शतरंज पे मारकाट मचा के ही शांत की जाए,मैंने शतरंज का बोर्ड उठाया सारे मोहरे बिछाए और उनसे कहा "पहली चाल आप चलें आज मैं डिफ़ेन्स पे ज्यादा ध्यान दूँगा"

"ठीक है ये लो" कहकर पापा ने एक पैदल आगे कर दिया,बदले में अपनी चाल में मैंने भी एक पैदल आगे किया,देखते ही देखते कई चालें हो गईं पापा के कई मोहरे मेरे मोहरों के नजदीक आ गए और मेरा डिफ़ेन्स कमजोर होने लगा

"आज तो आपका अटैक बहुत तेज है...मैं डिफ़ेन्स ही करता रह गया.. और आप मेरे किले तक पहुँच गए..."मैंने अपनी अगली चाल चलते हुए कहा

"बेटा जी..पूरी शतरंज में चौंसठ खाने हैं...सोलह पे तुम्हारे मोहरे और सोलह पे मेरे मोहरें हैं...लेकिन खेल की शुरुआत में ही तुम्हें ये समझना चाहिए था...कि...अपने सोलह मोहरों की दो लाइनों के आगे की दो लाइनों तक यानी कुल बत्तीस खानो तक तुम्हें अपना डिफ़ेन्स कायम करना था... जो तुमने नहीं किया..और देखो मैंने तुम्हारे मोहरों पे मार करने की जगह बनाने को अपने कई मोहरे सेट कर दिए... अब मैं तुम्हारी ही जमीन पे युद्ध कर तुम्हें हराऊँगा... क्या समझे?...तुम्हें लाइन ऑफ़ कंट्रोल...अपने मोहरों तक नहीं बल्कि आधी शतरंज तक समझनी चाहिये थी तब तुम्हारा डिफ़ेन्स बढ़िया कहा जाता...." उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा,मैं कसमसा के रह गया

फिर उन्होंने अपना एक पैदल बढ़ा के मेरे पैदल की मार की रेंज में रख दिया मैं झट से बोल उठा "लेकिन पिताश्री...जोश में आपने ये चाल गलत चल दी...आपके इस पैदल पे किसी और मोहरे का जोर नहीं है...इसे तो...ये लीजिये..मेरा प्यादा खा गया" व्यंग्य में कहकर मैंने अपने प्यादे से उनके प्यादे पे तिरछा मार की और उसे हटा दिया
पापा मुस्कुराये जा रहे थे और मुझे उनकी ये मुस्कुराहट बहुत खतरनाक लगने लगी,उन्होंने अपने ऊँट से मेरे उस घोड़े को मार दिया जो पैदल हटने से उनके ऊँट की रेंज में आ गया था,और मजे की बात ये कि घुस आए उनके इस ऊँट पे मेरे किसी मोहरे की मार भी न थी मैं दर्द से बिलखते हुए बोला "ओफ्फो...मैं भी कितना बेवकूफ हूँ...पैदल के बदले...अपना घोड़ा मरवा बैठा..."

"हूँS..यही होता आ रहा है...हम घुस आए पैदल को मारने के चक्कर में अपने घोड़े मरवाते जा रहे हैं" कहकर उन्होंने खेल बंद कर दिया उनके चेहरे से मुस्कुराहट जा चुकी थी, अचानक से उनकी शतरंज खेलने की बात का मतलब अब मुझे समझ आ चुका था।

-तुषारापात®™

Wednesday 14 September 2016

हिंदी दिवस

"क्या कहा 'क्ष' 'त्र' 'ज्ञ' भी बंदी बना लिए गए..आह..परन्तु ये कैसे संभव हुआ ये तीनों तो संयुक्ताक्षर होने के कारण अधिक शक्तिशाली थे" पूरा देवनागरी शिविर दूत की सूचना पे एक साथ बोल उठा,दूत ने साम्राज्ञी हिंदी को प्रणाम किया और अपना स्थान लिया।
"अवश्य धूर्त आंग्ल अक्षरों ने पीछे से आक्रमण किया होगा.. और हमारी सेना की अंतिम पंक्ति के ये तीनो वर्ण युद्ध के अवसर के बिना ही दासत्व को प्राप्त हुए होंगे" महामंत्री पाणिनि ने अपना मत प्रस्तुत किया जो समस्त सभा को भी उचित प्रतीत हुआ।
हिंदी अपने सिंहासन से उठते हुए बोली "महामंत्री..इससे पहले भी हमारे 'ट' 'थ' 'ठ' 'भ' 'ण' 'ड़' 'ढ' 'ऋ' जैसे अत्यन्त वीर अक्षर भी युद्ध में बंदी हो चुके हैं...किस कारण हमारी पराजय हो रही है... बावन अक्षरों वाली विशाल सेना अपने से आधी...मात्र...छब्बीस अक्षरों की आंग्ल सेना के सामने घुटने टेक रही है..आह दुःखद किंतु विष के समान ये सत्य.."
"साम्राज्ञी का कथन उचित है..इसके दुष्परिणाम निकट भविष्य में स्पष्ट होंगे..आने वाली पीढ़ी तुतलायेगी..परन्तु बहुत अधिक संभावना है तब ये दोष नहीं अपितु एक गुण ही मान लिया जाय..देवी हमारी पराजय का कारण सेनापति की अदूरदर्शिता है.. हमारी सेना एकमुखी होकर लड़ी..और शत्रु ने हम पर चारो ओर से वार किया.. देवी..हमें चतुर्मुखी सेना का निर्माण करना चाहिए था" महामंत्री ने भी अपना आसन छोड़ दिया
"क्या अब ये संभव नहीं..अब क्या उपाय शेष है?" हिंदी ने मात्र पूछने को जैसे पूछा हो
महामंत्री ने शीश झुका उत्तर दिया "हम पूर्व की ओर ही मुँह किये खड़े रहे और हमें पता भी न चला कि हमारी पीठ के पीछे पश्चिम में सूर्य अस्त हो रहा है..आह..दृष्टि पूर्व पर नहीं सूर्य पे रखनी चाहिए थी"कहकर उसने एक गहरी साँस छोड़ी और धीरे से कहा "संधि ही मात्र एक उपाय शेष है" सुनकर पूरी सभा में निराशा दौड़ गई

"दोष अवश्य हमीं में है..मेरे पुत्र..साम्राज्ञी हिंदी के अक्षर.. अपने अभिमान में सदैव ऊपरी रेखा पर रहे..धरा पर उनके पाँव ही न पड़ते थे..परन्तु आज ऊपरी रेखा पे लटके(लिखे) इन अक्षरों को फाँसी लग रही है..और अंग्रेजी के अक्षर मजबूती से अपने पाँव धरा पे जमाते जा रहे हैं (हिंदी ऊपरी रेखा पे लिखी जाती है और सिखाने को अंग्रेजी नीचे की रेखा पे)" कहकर हिंदी ने अपना मुकुट उतार दिया।

-TUSHAR SINGH तुषारापात®

Tuesday 13 September 2016

जरा मुस्कुराइये

कभी कभी मुझे एफ बी पे ख्याल आता है
कि जैसे तूने अकाउंट बनाया है मेरे लिए
तू अबसे पहले पोस्टों पे फिर रही थी गैरों की
तुझे इनबॉक्स में बुलाया गया है मेरे लिए

कभी कभी मुझे एफ बी पे ख्याल आता है
कि ये पोस्ट और शेयर मेरी अमानत हैं
ये फोटुओं के घने अल्बम हैं मेरी खातिर
ये लाइक और ये कमेन्ट मेरी अमानत हैं

कभी कभी मुझे एफ बी पे ख्याल आता है
कि जैसे बजते हैं नोटिफिकेशन्स से कानो में
बेकार पोस्ट है तरस रहा हूँ लाइक्स को
कमेंट कर रही है तू अपने सारे फोनो से

कभी कभी मुझे एफ बी पे ख्याल आता है
कि जैसे तू खर्चेगी सारी जीबी मुझपे यूँ ही
किसी को नहीं मिलेगी तेरी एक केबी भी
मैं जानता हूँ कि तू फेक है मगर यूँ ही

कभी कभी मुझे एफ बी पे ख्याल आता है

Saturday 10 September 2016

उम्मीद

फिर तुझसे कुछ उम्मीदें लगा रखीं हैं
दिल बहलाने को ये बातें बना रखीं हैं

कि छत नहीं पूरा आसमाँ टिका रखा है
बिना नींव के हमने दीवारें उठा रखीं हैं

बरगद के नीचे पनपने का हुनर ले आये
बेवजह उग आईं अपनी मूँछें कटा रखीं हैं

गर ये चार हो जातीं तो तीन हम हो जाते
इसी डर से नजरें बीवी से हटा रखीं हैं

कभी अच्छा था हमारा भी तुम्हारे जैसा 'तुषार'
उस गए वक्त की रुकी कुछ घड़ियाँ सजा रखीं हैं

-तुषारापात®™

Friday 9 September 2016

नाना जी

"नूतन दीदी..नानाजी की हालत बहुत नासाज है...आप तुरंत आ जाओ" सुबह सुबह मोबाइल पे शन्नो की रुआंसी आवाज सुनाई दी

नब्बे साल के वृद्ध की तबियत खराब होना कोई नयी बात नहीं होती पर शन्नो की आवाज की अजीब सी बेचैनी ने मेरे अंदर कुछ घबराहट सी भर दी मैंने उससे पूछा "क्..क्या हुआ...अभी परसों ही तो मेरी बात हुई थी उनसे..बिलकुल भले चंगे थे...अचानक तबियत बिगड़ी क्या"

"नहीं दीदी...तबियत नहीं...नानाजी पर हमला हुआ है...आप बस जल्दी से आ जाओ...शायद दोबारा न देख.." बात अधूरी छोड़ उसने रोते रोते फोन काट दिया मैं सोचती ही रह गई कि एक नब्बे साल के देवता तुल्य बूढ़े से किसी की क्या दुश्मनी हो सकती है

मैंने जल्दी से अपने पति राज को उठाया,उन्हें सारी बात बताई और अपने सात साल के बेटे राहुल का माथा चूम,उसे सोता छोड़ ड्राइवर के साथ कार लेकर निकल पड़ी मैं उड़कर उनके पास पहुँच जाना चाहती थी पर दिल्ली से हरदोई तक की दूरी कुछ कम नहीं थी, ड्राइवर कार चला रहा था और मैं पिछली सीट पे बैठी दिल्ली पीछे छूटते देख रही थी और साथ ही पिछली यादों में खोती जा रही थी

शादी के आठ साल के बाद भी मुझे बच्चे का सुख नहीं था एक दिन मेरी एक सहेली ने हरदोई के पास एक जगह बिलग्राम के एक बहुत पहुँचे हुए पीर नानाजी के बारे में मुझे बताया और एक हफ्ते के भीतर ही मेरे लाख मना करने पर भी मुझे अपने साथ उनके पास ले आई थी

बिलग्राम की उबड़ खाबड़ सड़कों से दोचार होते हुए दिल्ली से बिलकुल ही बदले परिवेश में बिलग्राम के भी और अंदर आकर हम नानाजी के सामने बैठे थे वहाँ भीड़ लगी थी मैंने देखा मटमैले सफेद कुर्ते और मुड़े तुड़े नीले तहमद में एक वृद्ध चारपाई पे बैठा कागज पे कुछ लिख रहा था उसका चेहरा झुर्रियों से भरा हुआ था सर पर काला सफेद चौखाने वाला मुसलमानी कपड़ा बाँधा हुआ था माथे पे पाँच लकीरें थीं जिन्हें देख कर मेरा ज्योतिषीय दिमाग उनके प्रति कुछ श्रद्धा से जरूर भर गया था पर पूरे माहौल में मुसलमानी महक से मुझे उबकाई सी भी आ रही थी

"तो क्या जाना क्या लिखा है हमारे भाग्य में" एकदम से वो मुझे देखते हुए मीठी सी आवाज में बोले उन्होंने मुझे अपने माथे की लकीरें पढ़ते देख लिया था शायद

"क्..कुछ नहीं...ये आप कागज पे क्या लिखते हैं..अरबी में लिखा है न..आयतें?" मैं हड़बड़ाहट में उनके प्रश्न का उत्तर न देकर उनसे ही प्रश्न कर बैठी उन्होंने सुना और हलके से मुस्कुराये इसी बीच मेरी सहेली प्रिया ने उन्हें मेरी समस्या बता दी उन्होंने एक धागा उठा के कुछ बुदबुदाया और मुझे उसी धागे से सर से पैर तक नापा और फिर अपनी चारपाई पे बैठ कागज पे लिखने लगे वो कलम भी अलग सा था सुनहरे रंग की स्याही थी जैसे फूलों के रस से बनी हो कागज की जरा सी पुर्ची पे बहुत घना और बारीक मगर बहुत ही सुंदर अक्षरों से उनका लिखा मानो लिखा न छपा हो

"आप इतना महीन लिख कैसे लेते हैं...इतनी उम्र होने पर भी चश्मा नहीं लगाते..."मैंने आश्चर्य से उनसे पूछा

"बिटिया..तिरासी साल की उम्र भी क्या कोई ऐनक लगाने की होती है ..नजर दुरुस्त रखने को सूरज को रोज सुबेरे पानी पिलाता हूँ...वो क्या कहते हैं तुम्हारे यहाँ सूर्य नमस्कार.."वो मुस्कुराते हुए बोले और अपने लिखे हुए कागज को एक गिलास जिसमें आधा पानी था उसमें घोलने लगे

मैं उनके मुँह से सूर्य नमस्कार का नाम सुनकर चौंक गई फिर खुद को लगा चश्मा ठीक करने में कुछ शर्म भी आई मुझे,मैंने उनसे एक सवाल और किया "आपको सब नानाजी क्यों कहते हैं"

"अब तुम्हारी जैसी तमाम बिटियों की सूनी कोख भर जाती है तो सबके लल्ला लल्ली के नाना हुए न हम..बाकी सबका नाना तो वो ऊपरवाला है सब उसी का करम है" कहकर उन्होंने गिलास का पानी मुझे पीने को दिया

थोड़ी हिचक के साथ मैं वो पानी पी गई और बोली "ऊपरवाले से आपका मतलब अल्लाह से है या भगवान से"

उनके होठों पे छाई मुस्कान गायब हुई और दुःख से भरी आवाज में बोले "हम अपने बाप को उनके नाम से बुलाते हैं क्या..इंसान बिलकुल पागल है बिटिया..उसकी बिसात है क्या ऊपरवाले का नाम रखने की..." कहकर उन्होंने एक ताबीज मुझे पहनने को दिया

मैंने वो ताबीज पहन लिया और बोली "आपने बताया नहीं आप अरबी में आयतें लिख रहे थे न कागज पे"

"सब कुछ आज ही जान लेगी..या जब लल्ला लेकर आएगी तबके लिए भी कुछ छोड़ेगी" उनके होठों पे मुस्कान फिर से आ चुकी थी
उन्होंने कुर्ते की जेब से माचिस निकाली हाथ में कुछ देर घुमाते रहे फिर कुछ सोच कर जेब में वापस रख दी और दूसरे कमरे में बैठी अपनी सबसे छोटी बेटी शन्नो को आवाज दी और हमें खाना खिलाने को कहा मैंने बहुत मना किया पर शन्नो के प्यार और प्रिया के हाँ कहने पर मैंने खाना खाया,खाना बहुत ही स्वादिष्ट था और शन्नो का व्यवहार इतना मीठा कि दिल हिन्दू मुस्लिम सब भूल गया
खाना खाकर जब हाथ धोने उठी तो देखा नानाजी एक बच्चे की तरह छुपकर बीड़ी पी रहे थे मेरे चेहरे पे मुस्कान फैल गई

ड्राइवर ने एक जगह चाय पानी के लिए कार रोकी तो मैं पुरानी यादों से वर्तमान में वही मुस्कराहट लिए आई,चाय फटाफट निपटा हम फिर से निकल पड़े शाहजहाँपुर क्रॉस हो रहा था

मैं नानाजी को याद कर बेचैन हो रही थी राहुल के होने के बाद से आजतक उनके यहाँ लगातार आना जाना बना रहा एक परिवार की तरह हो गए थे हम,अब तो मोबाइल पे भी तीसरे चौथे दिन नानाजी से बात करती रहती हूँ यही सब सोचते न जाने कब बिलग्राम पहुँच गई

उनके घर पहुँचते ही कार से उतरकर दौड़ते हुए नानाजी के कमरे में पहुँची घर के बाहर भीड़ जमा थी नानाजी अपनी चारपाई पे पट्टियों से बंधे पड़े थे मुझे देखकर शन्नो मेरे गले लग रोने लगी और कहने लगी "दीदी गाँव में जेहादियों का जोर है..इनसे कहते हैं कि सिर्फ बेऔलाद मुसलमानों के लिए उपाय करें..हिंदुओं के लिए किया तो जान से हाथ धोना होगा" मैं ये सुनकर सन्न रह गई बेऔलाद होने का दुःख भी क्या हिन्दू का अलग मुसलमान का अलग होता है

"अरे..तुझे भी बुला लिया इस निगोड़ी ने.." नानाजी मुझे देखते हुए बोले "सौ साल का होकर ही मरूँगा..इतनी जल्दी नहीं जाऊँगा इस घर से." मैं उनकी बात सुनकर उनके पैरों से लिपट गई मेरे आँसूओं से उनके पैर भीग गए

"दीदी..इनपे हमला उस जमील ने किया है अभी सत्रह बरस का ही होगा पर जेहादी हो गया है..जानती हो ब्याह के बारह बरस बाद भी उसकी अम्मी के कोई बच्चा न था..इन्हीं के बताये उपाय से ये जमील हुआ था..और आज वो ही इन्हें मारने आया था..जबकि ये उस समय जानते भी थे कि ऐसा ही होगा"

मैं ये जानकर हैरत से उनकी ओर देखने लगी और गुस्से में आ गई कि जब जानते थे उसका पैदा हुआ बच्चा उनकी जान लेगा तो उसे उपाय क्यों बताया

उन्होंने जैसे मेरा मन पढ़ लिया और बोले "आस में आई किसी बेऔलाद बिटिया को रोता छोड़ना इस्लाम नहीं सिखाता.. जब जमील हुआ था तब उस बिटिया को मिली खुशी इस बूढ़े की जिंदगी से ज्यादा कीमती थी"

-तुषारापात®™

Wednesday 7 September 2016

बातें

खामोशियाँ तोड़ने को वो बेकरार थी
लबों पे लब रख उसने बातें हजार की

-तुषारापात®™

Friday 2 September 2016

हारजीत

"बट सर फर्स्ट पेपर में मेरे इतने कम नम्बर कैसे आ सकते हैं...मैंने सारे क्वेश्चन्स के आंसर सही सही लिखे थे...और सर ये तो सिद्धांत ज्योतिष (गणित) का पेपर था जिसमे मार्किंग भी पूरी पूरी होती है" अपने सेकंड सेमेस्टर के रिजल्ट से नाखुश राघवेंद्र फोन पे अपने टीचर से बात कर रहा था

"आई एम ऑल्सो शॉक्ड राघवेंद्र...ओके यू मस्ट गो फॉर स्क्रूटनी" कहकर उन्होंने फोन डिसकनेक्ट कर दिया राघवेंद्र मायूस होकर अपना फोन देखता रह जाता है,उसके साथ ही बैठा उसका बैचमेट अभय सब कुछ समझते हुए बोला

"क्या बोला प्रोफेसर..स्क्रूटनी न...कुछ नहीं आएगा उसमें...कॉपियाँ यहीं जाँची जाती हैं...राघवेंद्र..तेरे साथ ये लोग ये सब जान के कर रहे हैं...पिछले सेमेस्टर में भी तेरे साथ ऐसा ही हुआ था...ये उस पवन उपाध्याय को आगे कर रहे हैं...वाइवा और प्रैक्टिकल में भी उसे सबसे ज्यादा नम्बर दिए गए हैं...जबकि पूरे क्लास को पता है उसे कितना आता है और तुझे कितना....ये हेड ऑफ डिपार्टमेंट का ब्राह्मणवाद है"

अगले दिन क्लास में वास्तु पढ़ाने वाली मैडम जिनका अधिक स्नेह था राघवेंद्र पर,कम नंबरों के बारे में उससे पूछती हैं तो वो बुझे मन से कहता है "मैम..आखिर कब तक हम बारहवीं शताब्दी तक के ज्ञान के आधार पे ज्योतिष पढ़ते रहेंगे..कोई उस ज्ञान को अपनी रिसर्च कर आगे क्यों नहीं बढ़ाता... आखिर तबसे अबतक मानव के रहन सहन जीवन यापन के साधन और उसकी सोच में जमीन आसमान का चेंज आ चुका है..आज भी जो लोग इसे आगे ले जाना चाहते हैं उन्हें ही पीछे किया जा रहा है...मैम.... ज्योतिष के लिए बस इतना ही कहना चाहूँगा कि..सुनहरे अतीत ने अपने को लोहे के निकम्मे वर्तमान को सौंपा था...भविष्य में जंग तो लगनी ही थी.."वास्तु वाली मैडम उसकी बात में छुपे दर्द को समझती हैं पर कुछ न कहकर क्लास को पढ़ाने लगती हैं

क्लास खत्म होने के बाद पवन राघवेंद्र से कहता है "तू खुद को क्या आर्यभट्ट या भाष्कराचार्य समझता है...देखना मैं यहाँ से पी०एच०डी० कर यहाँ ही प्रोफेसर हो जाऊँगा और साथ ही फलित की प्रक्टिस कर नोटों की खूब छपाई भी करूँगा...तू मुझे कभी हरा नहीं पायेगा.."राघवेंद्र उसकी बात सुन आगे बढ़ जाता है

इसी तरह तीसरे और चौथे सेमेस्टर का हाल रहता है राघवेंद्र सभी विषयों में तेज होने के बावजूद एम०ए० ज्योतिर्विज्ञान में दूसरे स्थान पे आता है, उससे काफी कम ज्ञान रखने वाला पवन प्रथम स्थान प्राप्त करता है।

उसके बाद दोनों नेट की परीक्षा पास कर पी०एच०डी० के लिए अपने अपने शोध प्रस्ताव ज्योतिर्विज्ञान विभाग को भेजते हैं पर सिद्धान्त में एक ही सीट होने के कारण सिर्फ पवन का प्रस्ताव ज्योतिर्विज्ञान कमेटी द्वारा स्वीकार किया जाता है राघवेंद्र पक्षपात के आगे बेबस रह जाता है

समय के अणु अत्यन्त गतिशील होते हैं राघवेंद्र की कोई भी खबर किसी के पास नहीं थी कोई कहता कि वो विदेश चला गया तो कोई कहता कि उसने मायूस होकर ज्योतिष की पढाई ही छोड़ दी,वहीं दूसरी ओर पवन अब डॉक्टर पवन हो चुका था वो यूनिवर्सिटी में लेक्चरर भी है और शहर का जाना माना ज्योतिषी भी है ज्योतिर्विज्ञान के हेड रिटायर हो गए थे और अब वास्तु वाली मैडम हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट हैं

अगस्त के महीने का आखिरी सप्ताह चल रहा है ज्योतिर्विज्ञान के बी०ए० और एम०ए० का नया सत्र आरम्भ हो चुका है पवन को हेड मैडम बताती हैं "इस बार सिद्धान्त ज्योतिष के पाठ्यक्रम में कुछ नई किताबें भी पढाई जाएंगी अब चूँकि सिद्धान्त तुम ही पढ़ाते हो तो बेहतर है तुम इन किताबों से रुबरु हो लो"

"ओहो मतलब कुछ नई खोज भी हुईं हैं इधर..देखूं तो किसकी किताबें हैं.." कहकर पवन ने सामने रखी किताबों से पहली किताब उठाई जिस पर लिखा था 'भारतीय ज्योतिष: आधुनिक सिद्धान्त' वो पहला पन्ना खोलता है जिसपर लेखक की सिर्फ दो पंक्तियाँ लिखी थीं "मेरे उस सहपाठी को समर्पित जो कहीं किसी विश्वविद्यालय में अब आजीवन इस पुस्तक को प्रतिदिन पढ़ायेगा" पवन जल्दी से नीचे लिखे लेखक का नाम देखता है और बुदबुदाता है "राघवेंद्र सिंह..जर्मनी"

-तुषारापात®™