Thursday 7 April 2016

सिंहासन

"पिताश्री...पिताश्री अनर्थ हो गया...काल ने आर्यस्थान पर अपना आघात कर दिया..." राजकुमारी आर्यसेना विक्षिप्तावस्था में इन्हीं शब्दों को बारम्बार कहते हुए दरबार में प्रवेश करती है और आर्याधिराज के सिंहासन के अत्यंत समीप पहुँच जाती है

"आर्यसेना...ये क्या दुःसाहस है...कदाचित राजकुमारी को राजदरबार की मर्यादा का स्मरण नहीं ...आर्यस्थान के राजदरबार में राजकुमारियों का प्रवेश वर्जित है..." आर्याधिराज ने क्रोधित हो कहा

"मर्यादा और अभिवादन के शिष्टाचार का विपत्ति काल में लोप हो जाता है महाराज..युवराज आर्यमन नहीं रहे महाराज...आर्यस्थान का अंतिम उत्तराधिकारी भी काल का ग्रास बन गया.."आर्यसेना ने अश्रु विस्फोट कर रूदन आरम्भ कर दिया

यह सूचना सुनते ही आर्याधिराज मानो मूर्छित से हो गए...सभी राजदरबारी उठ खड़े हुए...महामंत्री ब्रह्मार्य ने सेनापति से कहा "सिंहार्य..आप राजकुमारी के साथ जाइये...और स्थिति की पड़ताल कीजिये मैं महाराज के साथ उपस्थित होता हूँ " और सभा समाप्ति की घोषणा कर ब्रह्मार्य महाराज के समीप गए

राजकुमारी और सेनापति राजदरबार से मृत युवराज के कक्ष की ओर अग्रसर थे तभी आर्यसेना कहती है "सेनापति प्रथम हमें स्वर्गीय ज्येष्ठ युवराज के कक्ष की ओर चलना चाहिए..युवराज आर्यमन की हत्या का सम्बन्ध उस कक्ष से अवश्य है ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है"

"परंतु वह कक्ष तो ज्येष्ठ युवराज की हत्या के पश्चात से आज तक बंद है... क्या आप भी राजपुरोहित की तरह विश्वास करती हैं कि ज्येष्ठ युवराज की आत्मा ने ही उनके अनुज युवराजों की हत्या की है?" सेनापति ने अपने पगों को गति देते हुए कहा

"आर्यस्थान की राजकुमारी..अंधविश्वासी नहीं है सेनापति...राजदरबार में आते हुए..ज्येष्ठ युवराज के कक्ष की ओर से कुछ कोलाहल सुनाई दिया था...आप शीघ्र चलें" कहकर वो और गतिमान हुई

ज्येष्ठ युवराज का कक्ष राजभवन के उत्तरी ओर था..वह पूरा क्षेत्र अछूता अस्वच्छ और अंधकार तथा दुर्गन्ध में डूबा था...आर्यसेना और सिंहार्य कक्ष के मुख्य कपाट पे पहुँचते हैं

"देवी इस बंद कपाट की कुंजी तो महाराज के पास रहती है...इसके भीतर जाना सम्भव कैसे होगा?" विशाल कपाट को धकियाते हुए सेनापति ने राजकुमारी से पुछा

इतना समय नहीं है सेनापति...आप शीघ्र इस कक्ष के एक मात्र दुसरे कपाट पे पहुँचिये..जो इसके ठीक पीछे है..अगर भीतर कोई है तो हम उसे भागने का अवसर न दें" राजकुमारी ने सेनापति को आदेश सा दिया

सेनापति लगभग दौड़ते हुए दूसरे कपाट की ओर भागे और कपाट पे पहुँच के कान लगाकर भीतर कुछ सुनने का प्रयत्न करने लगे उन्होंने सुना भीतर किसी की पदचाप स्पष्ट सुनाई दे रही थी इधर आर्यसेना कक्ष का मुख्य कपाट अपनी पूरी शक्ति से खटखटाए जा रही थी तभी सेनापति ने कपाट के पीछे प्रकाश देखा उसे ऐसा लगा जैसे कक्ष में कोई दीपक प्रज्ज्वलित हुआ है

सेनापति ने तलवार हाथ में निकाल पुकारा "कौन है भीतर...उत्तर दो ...कक्ष का कपाट खोलो..नहीं तो मृत्यु के भागी होगे... मैं सेनापति सिंहार्य तुम्हें आदेश देता हूँ..कपाट शीघ्र खोलो..." कक्ष से कोई उत्तर नहीं मिला किसी के सरपट भागने का पदचाप सुनाई दिया

सेनापति की पुकार सुनकर महल के दक्षिणी सिरे के पहरेदार कई सारे सैनिक सेनापति के समीप आ गए सेनापति ने उनमें से कुछ सैनिकों को राजकुमारी की ओर भेजा और शेष सैनिकों से कपाट को तोड़ने का आदेश दिया

उधर राजकुमारी आर्यसेना सैनिकों को कक्ष के मुख्य कपाट पे स्थिर कर सेनापति की ओर आ गई...सैनिकों ने कुछ ही समय में कपाट धराशाई कर दिया.. सेनापति और आर्यसेना कक्ष के भीतर दौड़े पर उन्हें कोई नहीं मिला...एक दीपक अवश्य प्रकाशित था.. सेनापति ने सैनिकों की सहायता से कक्ष का चप्पा चप्पा छान मारा पर वहाँ किसी मनुष्य क्या मूषक का भी चिन्ह न था

सेनापति और राजकुमारी ने अच्छे से जांचा कि कक्ष में कोई गुप्त रास्ता तो नहीं जिससे कोई पलायन कर गया हो या कोई खिड़की खुली हो पर उन्हें घोर निराशा हुई ये जानकर कि कक्ष में कोई भी गुप्त दरवाजा नहीं था और सारी खिड़कियों की लौह चौखट मजबूती से अपनी जगह स्थिर थीं उससे सिर्फ वायु का प्रवेश ही सम्भव था मनुष्य का नहीं..कक्ष में जलता रहस्यमयी दीपक बुझ चुका था..सैनिकों को दोनों कपाटों में पहरा देने का आदेश देकर दोनों युवराज आर्यमन के कक्ष की ओर बढ़े

युवराज आर्यमन के कक्ष में रूदन और कोलाहल की गूँज अंतरिक्ष तक जा रही थी आर्याधिराज अपने मृत पुत्र युवराज आर्यमन के शव को गोद में लिए संताप कर रहे थे राजमाता आर्यमणिका पुत्र शोक में बारम्बार मूर्छित हो जातीं थीं सेविकाएं उन्हें संभाल रहीं थीं महामंत्री ब्रह्मार्य सेनापति और राजकुमारी को आते देख उनकी ओर हुए।

"मुझे ज्ञात न था आर्यस्थान के सेनापति स्त्रियों की भाँति मध्यम चाल से भ्रमण करते हैं" महामंत्री ब्रह्मार्य ने रोष प्रकट किया

"महामंत्री...स्त्रियाँ कोमल अवश्य हैं पर शक्तिहीन नहीं...सेनापति मेरे आदेश पे राजभवन के उत्तरी छोर पे थे" आर्यसेना ने उसी भाव से उत्तर दिया

" सेनापति क्या आर्यस्थान का महामंत्री जान सकता है कि राजभवन में क्या घटित हो रहा है?" ब्रह्मार्य ने आर्यसेना को अनसुना करते हुए सिंहार्य से प्रश्न किया, सेनापति ने ज्येष्ठ राजकुमार के कक्ष का सम्पूर्ण वृतांत विस्तार से कहा सुनकर ब्रह्मार्य बोले "असम्भव! यह नहीं हो सकता, उस कक्ष से कोई अदृश्य कैसे हो सकता है...क्या राजपुरोहित का कथन ही सत्य है " वो जैसे स्वयं से ही प्रश्न कर रहे हों फिर संभल के उन्होंने सिंहार्य को संबोधित कर कहा "सेनापति राज्य की समस्त सीमाओं पे सक्रियता का स्तर उच्च कर दो....नगर से बाहर कोई बगैर अपनी पहचान दिए जाने न पाये...जाओ....मेरे आदेश का पालन शीघ्र हो" सेनापति तत्काल कूच कर गए

"महामंत्री मुझे इन सभी हत्याओं के भेद की कुंजी ज्येष्ठ राजकुमार का कक्ष ही प्रतीत हो रहा है..क्या रात्रि के द्वितीय पहर में आप मेरे साथ उस कक्ष का निरीक्षण करने चल सकेंगे "आर्यसेना ने अपने अधरों से अधिक अपने पुष्ट उभारों से प्रश्न किया

ब्रह्मार्य ने अपने नयन सर्पों से वक्षों को चखा और उत्तर दिया "अवश्य देवी हम एकांत में ही निरीक्षण करेंगे सैनिकों को आदेशित करे देता हूँ....रात्रि प्रथम पहर के बाद वहाँ किसी का पहरा न रहेगा" यह तयकर दोनों मृत युवराज के शव की ओर चले ।

रात्रि के द्वितीय पहर में ज्येष्ठ युवराज के कक्ष में महामंत्री ने प्रवेश किया उनके पीछे आर्यसेना थी ब्रह्मार्य ने पीछे आती आर्यसेना से कहा "देवी मुझे तो यहाँ कुछ भी संदिग्ध नहीं दिख रहा..." "प्रिय....क्या तुम्हें अपना...काSSSSल नहीं दिखाई दिया.." कहकर आर्यसेना ने अपने कटिबन्ध से विषाक्त कटार निकाल कर महामंत्री की पीठ में उतार दी

"आह....दुष्टा..तूने मुझे काम के मद में....आह..ह..तू पाप की भागी.."इससे अधिक ब्रह्मार्य कुछ बोल नहीं पाये

"जा ऊपर मेरे सभी भ्राता तुझसे भेंट करेंगे" कहकर वो अपने कक्ष की ओर प्रस्थान कर गई

अगले दिवस भोर से ही राजभवन में हाहाकर मच गया आर्यधिराज राजपुरोहित,आर्यसेना और सेनापति अपने कुछ सैनिकों के साथ ज्येष्ठ युवराज के कक्ष में थे

"महाराज देखिये महामंत्री की पीठ में ज्येष्ठ युवराज आर्यजीत की कटार है...और ये कक्ष भी उन्हीं का है..आर्यस्थान राजवंश उन्हीं की आत्मा से श्रापित है" राजपुरोहित धर्मार्य ने महाराज को अपनी कही वाणी का पुनः स्मरण कराया, महाराज के समीप खड़े सेनापति सिंहार्य
किसी गहन मंथन में चले गए

"हाँ धर्मार्य..कदाचित कुल के दीपक से ही कुल भस्म हो रहा है"..दुखी आर्यधिराज ने राजपुरोहित से कहा "महामंत्री का अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किया जाय"आदेश देकर वो आर्यसेना के साथ अपने कक्ष की ओर अग्रसर हुए

एक और हाहाकारी दिवस गत हुआ रात्रि का तीसरा पहर था आर्यसेना अपने कक्ष में निद्रा मग्न थीं...तभी कोई कक्ष में प्रवेश करता है हस्त में तलवार लिए हुए वह आर्यसेना की ओर बढ़ता है और सिंह की तरह वार करता है परन्तु ये क्या..यहाँ तो कोई नहीं था ...आर्यसेना उसके पीछे खड़ी थी उसने विषाक्त कटार उसकी पीठ से सटा दी...और..क्रोध में बोली "अपने बाजुओं को आकाश की ओर उठाओ..या स्वयं आकाश लोक में जाओ...सेनापति सिंहार्य.."

"दुष्टा...तू जीवित न रहेगी...तेरे सारे भ्राताओं के पास आज तुझे भी विदा करूँगा...उसके बाद उस वृद्ध राजन को....सेनापति अभी भी शक्ति के मद में था

"विदाई तो...आपकी होगी सेनापति...उस महामंत्री के पास..आप दोनों का षड़यंत्र मैं जान चुकी थी...इसी लिये युक्ति से पहले आपको भ्रमित किया ..ज्येष्ठ युवराज के कक्ष में मुख्य कपाट से भीतर जाकर अपनी पदचाप सुनाई और तत्काल बाहर आकर कपाट खटखटाया....कहकर उसने कटार सेनापति में उतार दी और मुड़कर बोली "महराज आपके राज्य का अंतिम शत्रु भी देवलोक को प्रस्थान कर गया

कक्ष के दूसरी ओर छुपे महाराज जिन्हें आर्यसेना ने आज ही सारी बात बताई थी और स्वयं परीक्षण करने को कहा था,बाहर निकल आये "आह आर्यस्थान ने सर्पों का पालन किया...आर्यसेना हम तुमसे अति प्रसन्न हैं तुमने सेनापति और महामंत्री के षड़यंत्र से आर्यस्थान की रक्षा की...और महामंत्री को प्रथम समाप्त कर ये भी सिद्ध किया कि बुद्धि और शक्ति में से पहले बुद्धि को समाप्त करना चाहिए"

"महाराज...शक्ति को पहले मारने से बुद्धि दूसरी शक्ति खोज सकती है... परन्तु बुद्धि का वध प्रथम करने से शक्ति अस्त व्यस्त अनाथ सी हो जाती है" आर्यसेना ने उन्हें प्रणाम किया

"आह...राजनीति का इतना अच्छा ज्ञान...यह वृद्ध महाराज तुमसे आर्यस्थान का सिंहासन सुशोभित करने का आग्रह करता है" आर्यधिराज ने राज्य को उत्तराधिकारी देना चाहा

"रानी होने पे भी क्या मैं राज दरबार में जा सकूँगी...महाराज...राज दरबार की अति प्राचीन परम्परा और मर्यादा का..." आर्यसेना ने व्यंग्य बाण छोड़ा

"आह...कटाक्ष...आर्यसेना...जिस वृद्ध राजा के चारों पुत्रों को युवराज बनाने की आकांक्षा पे नियति ने 'तुषारापात' कर दिया हो..वह इसी व्यवहार का पात्र है...."आर्यधिराज के कंधे झुक गए

"जहाँ शक्ति (सेनापति)...बुद्धि (महामंत्री)...और.धर्म (राजपुरोहित) ने स्त्री का मान न किया हो उस राज्य का हश्र आप (आर्याधिराज) के जैसा ही होता है महाराज...सिंहासन सिंहिनियों के लिए बना ही कब है..मैं आपके राज्य को त्यागती हूँ..आपका 'आर्य' आपको लौटा रही हूँ पिताश्री...आज से 'आर्यसेना' 'देवदासी' के नाम से जानी जायेगी" कहकर वो संन्यास को चली।

-तुषारापात®™
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