Thursday 31 December 2015

बूढ़ा दिसंबर और इक्कीसवीं सदी का सोलहवाँ साल

"ब्लू आईज हिप्नोटाइज तेरी करती हैं मैनू......." बूफर पे धमकती हुई आवाज पास आती जा रही थी,कुण्डी लगा कर वो दरवाजे से पीठ लगाकर बैठ गई..डर के मारे उसने अपनी साँसे तक थाम सी रखी थीं कि तभी..ठक-ठक..ठक-ठक..ठक-ठक..ठक-ठक जूतों की आहट से रात चीख उठी..कार से उतर के चार लड़के दरवाजे तक आ चुके थे

"दरवाजा खोलो..नहीं तो तोड़ देंगे..तू क्या सोचती है..ये पतले लकड़ी के दो पल्ले तुझे बचा लेंगे.."नशे में धुत एक आवाज आई

"अरे...सदी..कौन..लोग...हैं..ये" खाँसते खाँसते बहुत मुश्किल से बूढ़े दिसंबर ने पूछा

"बाबा..ये वही लड़के हैं..जो रोज मुझे छेड़ते रहते हैं..आज नए साल पे..मुझे अपने साथ ले जाने आये हैं..बाबा..मुझे बचा लो..ये बहुत गंदे हैं.."डरते डरते सदी ने बूढ़े दिसंबर से कहा

"हा हा हा ..ये बूढ़ा तुझे क्या बचाएगा..ये तो साला..खुद मर रहा है.. आ जा रानी..मजा करेंगे.." कहते हुए चारों ने दरवाजे को जोर का धक्का दिया..दरवाजे की कुण्डी निकल गई और वो चारों अंदर कमरे में आ गए

"हाय..क्या लग रही है ये..देख तो.." एक लड़के ने दूसरे को कोहनी मारते हुए कहा

"लगेगी क्यों नहीं..पंद्रह की पूरी हुई है आज..फुल माल बन गई है..देखो तो क्या उठान है.." दूसरे लड़के ने उसके वक्षों को देखकर अपनी जबान से होठों को चाटते हुए कहा, चारों लड़के धूर्तता से ठहाके लगा लगा के हँसने लगे और उसकी तरफ बढ़ने लगे

"दूररररर..हटो..कमीनो मेरी..बच्ची...बच्ची...से" बूढ़ा अपनी पूरी ताकत इकट्ठी कर चिल्लाया

"हट बुढ्ढे..तेरी तो..ये ले साले.." तीसरे ने बिअर की बोतल बूढ़े के सर पे दे मारी बूढ़े के खून से कमरे की दीवार पर मौत की चित्रकारी हो चुकी थी बूढ़ा वहीँ ढेर हो गया

"न...हींSSSSSS" सदी ने चीखना चाहा पर उनमें से एक लड़के ने उसका मुँह दबा लिया चौथे ने उसकी शर्ट खोलने को हाथ आगे बढ़ाया तो तीसरा बोला " अरे नहीं यार...यहाँ नहीं..यहाँ साली बहुत गर्मी लगेगी..कार में ले चल इसे..न्यू इयर के इस गिफ्ट को ..ए सी में खोलेंगे" ड्रग्स और शराब की गर्मी के आगे सर्दी बेकार जो थी

चारों ने उसे उठा लिया और कार की पिछली सीट पे जाकर पटक दिया
.. कार स्टार्ट हुई..ए सी..चालू हुआ....और "चार बोतल वोडका काम मेरा रोजका.." गाने की तेज आवाज में चारों लड़को को लड़की की चीखें भी सुरीली लगने लगीं

रात के बारह बज चुके हैं..लोग जश्न में डूबे हैं ... पंद्रह के आसपास की उमर के चार लड़के कार में एक लड़की के साथ 'एन्जॉय' कर रहे हैं
बूढ़ा दिसम्बर मर चूका है...इक्कीसवीं 'सदी' को सोलहवाँ साल अभी अभी लगा है।

-तुषारापात®™

Tuesday 29 December 2015

आखिरी तमन्ना

तुमने कभी कहा था मुझसे -

"यूँ तो तुम
नहीं जानते मुझे
एक रिश्ता है तो हमारे बीच
एक बार कुछ लिख के
कलम छिड़की थी तुमने
स्याही की गिरी एक बूँद
जो आवारा रह गयी
वही हूँ मैं
तुम्हारे किसी ख़त का
कोई लफ्ज़ न हो सकी
किसी कलाम में छपती
तो मुकाम पा जाती
बस एक
आखिरी तमन्ना पूरी कर दो
तुम्हारे होठों पे एक नुक़्ता बनके ठहरना चाहती हूँ"

कुछ बोल नहीं पाया था तुमसे उस दिन
बस इतना कहना था-

"तुम्हारी
आखिरी तमन्ना वाले दिन के बाद से ही
मेरी ठोड़ी पे एक काला तिल इठलाने लगा है"

- तुषारापात®™
© tusharapaat.blogspot.com

Thursday 24 December 2015

बड़ा दिन

"छोटू...छोSSटू..जाग बेटा..देख तेरे लिए कितना अच्छा अच्छा खाना लाइ हूँ मैं" सुबह के चार बजे कुसुमिया अपनी झोपड़ी में वापस आकर अपने बेटे को जगा रही थी

"खा..ना...माँ..खाना बन गया.." पिछली रात से भूखा सोया छोटू खाने के नाम पे ओढ़े हुए चीथड़े हटाकर एकदम से उठकर बैठ गया

कुसुमिया पन्नी में भरी नान,पूड़ी,कचौड़ी आलू,पनीर की सब्जी,सलाद और भी जो था सब कुछ जल्दी से एक अखबार पे पलटकर उसे खिलाने लगती है "ये ले..खूब पेट भर के खा मेरे लाल"

"अरे वाह माँ..आज तो बहुत अच्छा खाना है..अरे इसमें तो पनीर भी है..माँ देखो इत्ते सारे पनीर" छोटू खुशी के मारे खाने पे टूट पड़ा कुसुमिया उसे प्यार भरी नजरों से खाना खाते देखती रही

"माँ..इत्ता अच्छा खाना कहाँ से मिला..." छोटू ने उँगलियाँ चाटते हुए पूछा

"आज बड़ा दिन है बेटा..वही की दावत से लाइ हूँ " कहकर याद करने लगी कि अभी थोड़ी देर पहले चढ्ढा साहब के बंगले के बाहर फेंकी गई पत्तलों से कितनी मुश्किल से वो अपने जैसे कितने लोगों से झगड़ते हुए ये सब उठा के लाइ है

"माँ ये बड़ा दिन क्या होता है..कोई त्यौहार है क्या.." छोटू ने पूछा

"हाँ..लल्ला..आज के दिन संता भगवान आते हैं और सबको खाना देकर जाते हैं" अपने को सँभालते हुए उसने जवाब दिया

"पर..अपने यहाँ..कोई संता भगवान क्यों नहीं आते माँ..छोटू पनीर का टुकड़ा कुतरते हुए बोला

कुसुमिया एक पुरानी रात को याद करते हुए आह से भरी आवाज में बोली "आते हैं न बेटा..एक रात आये थे..मेरी झोली में तुझे डाल कर चले गए थे..25 दिसंबर की वो रात ऐसी ही थी" (मन ही मन सोचती है कि हम जैसे लोगों का बड़ा दिन 26 दिसंबर को होता है जब 25 दिसंबर को बड़े साहबों का फेंका हुआ खाना हमें मिलता है और कभी कभी उनकी जबरदस्ती से..बच्चे भी...)

"पच्चीस दिगम्बर को ही बड़ा दिन होता है क्या माँ...तुम क्यों नहीं मनाती ये वाला त्यौहार..माँ..और त्यौहार पे तो सब अच्छे अच्छे कपड़े पहनते हैं न माँ तुम कब अच्छे कपड़े पहनोगी" छोटू खाना खाते ही जा रहा था और साथ साथ बोलता भी जा रहा था "माँ..मैं जब बड़ा हो जाऊंगा तो तेरे लिए नए नए खूब सारे कपड़े लाऊँगा..बिलकुल चढ्ढा साहब वाली मेम साहब के जैसे"

"गरीबों के छोटू..बड़े तो होते हैं पर कभी...बड़े आदमी नहीं हो पाते.......... बेटा..दुनिया के इस कैलेंडर में तेरी माँ गरीब फरवरी की तरह है उसके यहाँ कभी कोई 25 दिसंबर पैदा नहीं होता" कड़वा सच बुदबुदाते हुए उसने मीठे छोटू को गले से लगा लिया ।

-तुषारापात®™

Wednesday 23 December 2015

विनम्रता और दक्षता

विनम्रता कहती है कि स्वयं को सबसे नीचा स्थान देना चाहिए और दक्षता कहती है हाँ मगर इस तरह के सबके आधार आप हों ।

-तुषारापात®™
© tusharapaat.blogspot.com 

प्यार का फार्मूला

प्यार को नापने वाला सूत्र लिखिए :-
चक्रवृद्धि ब्याज प्राप्ति का सूत्र आपको याद ही होगा

A = P ( 1 + r/n )nt (nt यहाँ इसकी पॉवर है गुणन नहीं)
तो P=A/(1+r/n)nt ........................................(i)

तो दिए गए उपरोक्त समीकरण के हिसाब से
प्यार यानी P = A/(1+r/n)nt
जहाँ A ऐशोआराम,r रकम प्राप्ति की दर, n नखरों की संख्या और t बर्दाश्त करने का समय है ।
अब आप सब अपने अपने प्यार को इस सूत्र पे रख के नाप लीजिये ;)

-तुषारापात®™

Monday 21 December 2015

कैलेंडर

एक कील पे तुमने
पूरा कैलेंडर टाँग रखा है
जिस्म के कैलेन्डर में
कुछ तारीखें चुभती हैं
यहाँ कीलों की तरह

-तुषारापात®™

नपुंसक बलात्कारी

अंग्रेजी में एक अलंकार होता है oxymoron दो विरोधी अर्थ रखने वाले शब्दों का एक साथ प्रयोग जब होता है तो उसे oxymoron अलंकार कहते हैं जैसे open secret, bitter sweet यानी इसे विरोधाभास अलंकार कह सकते हैं ।
कल मीडिया में एक शब्द सुनाई दिया तो यही अलंकार याद आया शब्द था 'नाबालिग बलात्कारी' काफी देर तक दिमाग इस शब्द में उलझ के रह गया 16 दिसंबर का वो दर्दनाक हादसा जहन में फिर जिन्दा हो गया फिर एक oxymoron मेरे मन में भी आया अब आप लोग बताइये कितना सही है :
नपुंसक समाज में बलात्कारी आते कहाँ से हैं ?

-तुषारापात®™
© tusharapaat.blogspot.com

Friday 11 December 2015

ऐ मकड़ी जरा चलके दिखा

"ए मकड़ी ..चलके दिखा"-खचाखच भरे कोर्ट में वकील साहब ने अपनी मध्यम लेकिन सधी हुई आवाज में अपने हाथ में पकड़ी एक टेरेंटुला मकड़ी (आम मकड़ियों से काफी बड़ी होती है ) को जमीन पे छोड़ते हुए उससे कहा और उनका कहना मान कर मकड़ी चलने लगी अभी मकड़ी जरा सी ही चली थी कि वकील साहब ने दस्ताने पहने अपने दोनों हाथों से उसे फिर पकड़ लिया और जज साहब से बोले-"जज साहब...देखा आपने...मकड़ी पूरी तरह स्वस्थ है और मेरी बात सुनकर चल भी रही है" जज ने भी हामी भरी

अब वकील साहब ने मकड़ी की आठ टाँगों में से बायीं तरफ की सबसे आगे वाली एक टाँग तोड़ दी और उसे जमीन पे छोड़ने से एक सेकंड पहले बोले-" मकड़ी चल के दिखा" मकड़ी अपना एक पैर टूटने के कारण दर्द में थी और डर में भी तो तेजी से भागी पर वकील ने इस बार भी उसे पकड़ लिया और जज की तरफ देख के मुस्कुराया जज ने सहमति में सर हिलाया

अब वकील ने मकड़ी की दायीं तरफ वाली एक टाँग तोड़ दी और कहा -"मकड़ी रानी..चल के तो दिखा" मकड़ी इस बार भी चली मगर थोड़ा सहम के, जज साहब और आम लोग पूरी प्रक्रिया बड़े ध्यान से देख रहे थे

वक़ील ने ऐसा अगले पाँच बार और किया हर बार मकड़ी की एक टाँग तोड़ता गया और मकड़ी से कहता रहा कि मकड़ी चलो और मकड़ी किसी तरह चली भी आखिर में मकड़ी की एक टाँग बची तब वक़ील ने उससे कहा-"ए मकड़ी चलके दिखा" मकड़ी की एक ही टाँग बची थी फिर भी वो दर्द से छटपटाते हुए अपनी जगह से थोड़ी सी हिली

इसके बाद वकील ने मकड़ी को अपने हाथ में उठाया और जज से बोला- "जज साहब..अब वो पल आ गया है..जिसके लिए मैंने इतना खेल दिखाया है प्लीज अब जरा और ध्यान से देखियेगा" ऐसा कहकर उसने मकड़ी की आखिरी टाँग भी तोड़ दी उसे जमीन पे छोड़ा और कहा-"प्यारी मकड़ी..जरा चल के दिखा" मकड़ी अपनी जगह पे पड़ी रही उसने फिर थोड़ा जोर से उससे कहा-" ए मकड़ी जरा सा चल के तो दिखा" कोर्ट में पिन ड्राप साइलेन्स था सारे लोगों की नजरें जमीन पे थीं पर मकड़ी नहीं चली

वकील इस बार बहुत जोर से चिल्लाया और चिल्लाता ही गया "अरे ए मकड़ी..तू चलती क्यों नहीं..चल..जरा सा तो चल..चल्लल्लल्ल...." पर मकड़ी न चली और वो जज की तरफ देख के गर्व के साथ मुस्कुराया और दैट्स आल मीलॉर्ड बोल के अपनी कुर्सी पे बैठ गया सारे लोग सांस रोके जज की तरफ देख रहे थे

जज साहब ने अपना फैसला सुनाया-"सारी प्रक्रिया को बहुत गौर से अपने सामने देखने के बाद अदालत इस निर्णय पे पहुँची है कि मकड़ी की आठों टाँगे तोड़ देने पर वो बहरी हो जाती है।"

-तुषारापात®™
© tusharapaat.blogspot.com

Monday 7 December 2015

असहिष्णुता

"अरे आबिद..रुक मैं भी चलता हूँ तेरे साथ" ऑफिस में लंच टाइम होते ही जैसे ही मैं अपनी डेस्क से उठकर शर्मा भोजनालय जाने को हुआ तो अकरम की इस आवाज ने मुझे रोक लिया, मैं वापस घूम कर उसकी टेबल पे पहुँचा और हँसते हुए बोला-"पर..तू तो अपना लंच घर से ही लाता है..आज क्या हुआ..बीवी ने लात जमा दी क्या"

" नहीं यार..मैडम दो दिन के लिए मायके गई हैं...टिफिन कौन बनाता..तो सोचा तेरे साथ ही लंच किया जाय..वो भी तेरे फेवरिट..शर्मा भोजनालय में" उसने भी हँसते हुए जवाब दिया और यूँ ही इधर उधर की बात करते हुए हम दोनों ऑफिस के बिलकुल नजदीक शर्मा जी के रेस्टॉरेंट कम ढाबे में पहुँच गए

"अच्छा बता क्या लेगा तू...मैं तो जनता थाली ही खाता हूँ कम बजट में पूरा जायका " रेस्टॉरेंट की टेबल के दोनों ओर पड़ी चार कुर्सियों में से एक कुर्सी पे बैठते हुए मैंने उससे पूछा

"तो यार ..हम कौनसे महाराजा हैं ...मेरे लिए भी थाली ही मँगा ले" मेरे ठीक सामने वाली कुर्सी पे बैठा अकरम टेबल पे तबला बजाते हुए बोला

मैंने शर्मा जी को आवाज लगाई-" शर्मा जी..भई आज दो थाली लगा दीजिये..अकरम साहब भी आज शौक फरमाने आये हैं"

"अभी लीजिये आबिद साहब" शर्मा जी अपनी चिर परिचित व्यवसायिक मुस्कान के साथ बोले

रेस्टॉरेंट के एक कोने में पुराना सा टीवी चल रहा था और ज़ी न्यूज़ पे आमिर खान के बयान का पोस्टमार्टम हो रहा था हम दोनों थोड़ी देर तक टीवी देखते रहे फिर मैंने उससे कहा-"बिलकुल सही कहा है आमिर ने..इनटॉलेरेन्स तो है ही हर जगह."

"हाँ यार..सही कह रहा है तू ...हम मुस्लिमों के साथ ज्यादती हर जगह हो रही है" अकरम ने भी आमिर का बयान सही बताया

हम बात कर ही रहे थे और इतनी देर में माथे पे तिलक लगाये एक लंबा चौड़ा आदमी हमारी टेबल पे खाली पड़ी एक कुर्सी पे अकरम के बाजू में आकर बैठ गया छोटा सा रेस्टॉरेंट और कुर्सियाँ भी कम होने के कारण ये एक आम बात थी उसपे हमने कोई विशेष ध्यान नहीं दिया हम अपनी बात करते रहे

"और क्या..सरकार भी उनका ही साथ दे रही है..दादरी में देखो सरेआम क्या हुआ..खुलेआम ज्यादती हमपर की जा रही है और अगर उसकी मुखालफत में कोई कुछ कहे तो...ये साला 'सहिस्नुता' 'असहिनुस्ता' चिल्ला चिल्लाकर हमारी आवाज दबा देना चाहते हैं" मैं हलके गुस्से में आ गया था अकरम के पड़ोस में बैठा शख्श टीवी देख रहा था उसके पहनावे वैगेरह से मैंने समझ लिया था कि हिन्दू है ,हम थोड़ी तेज आवाज में अपना नाम ले ले कर बात कर रहे थे,पता नहीं क्यों,पर मैं चाहता था कि वो हमारी ये बातें सुने,उसने सुना या नहीं मुझे पता नहीं चला वो चुपचाप बैठा टीवी देखता रहा और इसी बीच रामू हमारी दोनों थालियाँ टेबल पे लगा गया और उस बन्दे ने भी थाली ही आर्डर की, मैं और अकरम खाना खाने लगे

"अरे भाई...ओ...लड़के..रोटी ले आओ..अकरम के बाजू में बैठा वही बंदा रामू को आवाज लगा रहा था भीड़ होने के कारण रामू उसकी थाली में दो रोटी दे गया था और भी कई लोग खाना खा रहे थे इसलिए रोटी आने में टाइम लग रहा था हाँ हम दोनों की थाली में शर्मा जी ने चार चार रोटियाँ ही भेजी थीं क्योंकि मैं रोज खाने वालों में से था और वो जानते थे कि मुझे जल्दी रहती है ऑफिस वापस पहुँचने की

"यार आबिद..ये दो रोटियाँ तुम खा लो..मेरा तो दो में ही पेट भर गया" अकरम अपनी थाली से मेरी थाली में रोटियाँ रखते हुए बोला

मुझे किसी की थाली से कुछ भी बचा कु्चा खाना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता है तो मैंने बात घुमाते हुए कहा-"अरे न भाई न...मैं तो चार रोटी में फुल हो गया..और अभी तो चावल भी खाना है तुम्हें नहीं खाना है तो छोड़ दो"

जैसे ही मैं रोटियाँ वापस उसकी थाली में रखने जा रहा था अकरम के बाजू में बैठे शख्स ने मुझसे कहा-"भाई साहब..अगर आप लोग न खा रहे हों तो ये रोटियाँ मुझे दे दें"

मैं और अकरम दोनों ये सुनकर भौंचक्के रह गए एक अनजान हिन्दू मुझ मुसलमान की थाली से रोटी माँग रहा था,थोड़ा सम्भलते हुए मैं उससे बोला-" हाँ हाँ क्यों नहीं..पर अगर आप थाली में दो रोटी कम भी लोगे तब भी आपको पैसे तो पूरी थाली के ही चुकाने होंगे..फिर आप मेरी थाली की रोटियाँ...

वो मेरी बात बीच में ही काटते हुए बोला-"हाँ जानता हूँ पैसे पूरे देने होंगे पर ऐसे दो रोटी फिंकने से बच जाएंगी...और..मेरी थाली की बची रोटियाँ किसी और की भूख मिटा सकेंगी हाँ अब ये मत कहियेगा कि जहाँ फेंकी जायेगी वहाँ कोई भिखारी या भूखा इन्हें बीन के खा लेगा..आखिर किसी इंसान को कूड़े से बीनकर खाना खाते देखना कहाँ की सहिष्णुता है?"

हम दोनों को सांप सूंघ गया मैंने उसे रोटियाँ दी और चुपचाप खाना खाकर जाने ही वाले ही थे कि वो आदमी मुझसे बोला -"बरसों कोई आबिद.. किसी शर्मा के होटल में खाना खाता रहता है..पर एक दिन अचानक..... किसी के कहने से उसे क्यों लगने लगता है कि पूरे देश में भेदभाव है .... आबिद साहब... कभी आराम से सोचियेगा कि..मुल्क में चालीस रुपैये की थाली खाने वाले को असहिष्णुता कहीं नहीं दिखाई देती..पर उसी मुल्क में चार सौ करोड़ कमाने वाला इनटॉलरेन्स की बात करता है क्यों ?"

(सौ फीसदी सच्ची घटना पे आधारित)
-तुषारापात®™
© tusharapaat.blogspot.com

Sunday 6 December 2015

वक्त का प्लास्टर

पुराने जख्मों पे हम/न जाने कितनी/मुस्कुराहटें ओढ़ते हैं
वक्त के प्लास्टर को/फिर भी /कुछ लम्हे तो खरोंचते हैं

-तुषारापात®™
© tusharapaat.blogspot.com


Saturday 5 December 2015

धुलाई वाला

वाशिंग मशीन में कपड़े धोते धोते ये तुषारापात उत्पन्न हुआ (हाँ अपने कपड़े मैं खुद ही धोता हूँ क्योंकि मेरा मानना है की अपना जितना काम हो सके स्वयं करना चाहिए कई सारे ग्रह इससे मजबूत रहते हैं ;) खासतौर पे पत्नी जी वाला ग्रह सबसे ज्यादा)
तो वाशिंग मशीन (सेमी ऑटोमैटिक) में धोने के लिए हरा कुर्ता, अपनी भगवा धोती, नीली शर्ट,काली पैंट आदि कई कपड़े डाल के टाइमर सेट कर दिया और रिलैक्स हो के कुछ लिखने लगा। थोड़ी देर के बाद टाइमर जी ने अपनी चीखों से मुझे बताया की आपके डाले कपड़े बाहर निकलने के लिए बेक़रार हैं (हाँ ड्रेन करके पानी भी निकाला था) उसके बाद जब स्पिनर में डालने के लिए वाशर से कपड़े निकालने के लिए हाथ बढ़ाया तो देखा की सारे कपड़े आपस में उलझे हुए हैं, हरा कुर्ता भगवा धोती से दो दो हाथ कर रहा है और भगवा धोती ने हरे कुर्ते के साथ साथ नीली शर्ट का भी गला जकड़ रखा है काली पैंट भी पीछे नहीं थी उसने भी जहाँ जगह पाई वहां अपनी टांगे फंसा रखी थीं कुल मिला के हर महंगा सस्ता कपड़ा अपनी अपनी औकातानुसार जम के एक दूसरे से उलझा हुआ था।
अब जरा अपने अपने धर्मग्रन्थ केे पन्ने उलटिये और सोचिये की इस दुनिया की वाशिंग मशीन में हम सब अपनी शुद्धि और उन्नति के लिए भेजे नहीं गए थे क्या? और हम करते क्या हैं एक दूसरे से उलझते रहते हैं अपना रंग/धर्म एक दूसरे पे थोपते रहते हैं।
अच्छा एक बात और है कपड़े धोते समय हम सफ़ेद कपड़ों को अलग से धोते हैं कि कहीं दूसरे कपडे का रंग उनपर न लग जाये। हाँ सफ़ेद कपड़े हर रंग के साथ पहने खूब जाते हैं और अच्छे भी लगते हैं जैसे सफ़ेद शर्ट काली पैंट या सफ़ेद कुर्ता नीली जीन्स और भी न जाने कितने रंग के जोड़ीदार हैं सफ़ेद कपड़ों के।
आपको पता ही होगा सफ़ेद रंग सात रंगों से मिलकर बनता है यानी सफ़ेद रंग अपने में कई रंग समाहित करे रहता है और ऊपर से बिलकुल सादा बगैर कोई तड़क भड़क के बना रहता है,अब यही मैं कहना चाहता हूँ की सच्ची आध्यात्मिकता/सच्चा धर्म भी इसी सफ़ेद रंग की तरह है अगर आपको आपको अपनी आध्यतामिक उन्नति करनी है सच्चे धार्मिक बनना है तो इसी तरह अपने अंदर सभी रंगों को सोखना पड़ेगा मतलब सभी धर्मो को सम्मान देना होगा और उनकी सारी अच्छाइयाँ अपने अंदर समाहित करनी होगी सिर्फ लाल हरा या कोई और रंग पकड़ के आप कभी भी सफ़ेद रंग नहीं बना सकते और न ही सच्चे धार्मिक।
एक मित्र ने बहुत पहले कहा था की धार्मिकता और आध्यात्मिकता पे कुछ लिखिए उनसे इस लेख के माध्यम से यही बहुत साधारण सी बात कहना चाहता हूँ कि कट्टर धार्मिकता मात्र एक धर्म विशेष (वो चाहे जो कोई भी धर्म/मज़हब हो ) की रूढ़िवादिता को बढ़ावा देती है सिर्फ एक रंग को पकड़ने का मौका देती है और आध्यात्मिकता के अंतर्गत सभी पंथों की उत्कृष्ट मान्यताएं जो प्रयोगों द्वारा आप स्वयं सत्य सिद्ध करते हैं, समाहित होती हैं।
तो अब देखते हैं कौन कौन सभी रंगों को मिलाकर अपनी सफेदी पूरी करते हैं और कौन कौन अपना एक रंग विशेष का झंडा फहराते फिरते हैं।
-तुषारापात®™

विधाता

वो कहतें हैं :-
"लेखक हो, नकारा हो
बंद कमरे में बेकार से बैठे
न जाने अला बला क्या लिखते हो
घंटो की तुम्हारी कागज़ रंगाई से
एक रंगीन नोट भी नहीं छपा आज तक तुमसे
घड़ी और कैलेंडर देखो कभी तो पता लगे
स्याह बालों में कितनी सफ़ेद धारियां पड़ गयी"
मैं कहता हूँ ज़रा महसूस तो करो इसे
"जब कुंवारे सफ़ेद कागज़ से
मदहोश कलम का आलिंगन कराता हूँ
तो कितनी चिंगारियाँ सुलगती हैं
सुनो ये किलकारी सुनो
अभी अभी जन्मीं इस रचना की
ये बांटेगी किसी को ख़ुशी तो बाँट लेगी किसी का ग़म
डायरी मेरी है मेरा कैलेंडर/मेरी घड़ी
इसका हर एक अक्षर है एक सेकंड,
एक एक मिनट है हर एक शब्द
हर वाक्य एक घंटा है मेरा
पन्ना बदलता हूँ तो दिन बदल लेता हूँ
बंद कमरा है मेरा ब्रह्माण्ड,रचयिता हूँ मैं यहाँ
और कभी देखा है तुमने विधाता को कमाते हुए?"

-तुषारापात®™