आउट होकर जाते जाते,बोले दद्दा दिसम्बर
20-20 में गेंद देखना,न देखना चियरलीडर
#तुषारापात®
तुषार सिंह 'तुषारापात' हिंदी के एक उभरते हुए लेखक हैं जो सोशल मीडिया के अनेक मंचों पे बहुत लोकप्रिय हैं इनके लिखे कई लेख, कहानियाँ, कवितायें और कटाक्ष सभी प्रमुख हिंदी अख़बारों में प्रकाशित होते रहते हैं तथा रेडियो fm पर भी कई कार्यक्रमो के लिए आपने लिखा है। कुछ हिंदी फिल्मों के लिए आप स्क्रिप्ट भी लिख रहे हैं। आप इन्हें यहाँ भी पढ़ सकते हैं: https://www.facebook.com/tusharapaat?ref=hl
आउट होकर जाते जाते,बोले दद्दा दिसम्बर
20-20 में गेंद देखना,न देखना चियरलीडर
#तुषारापात®
उँगलियों पर नाचने वालों
नाखूनों से होशियारी रखो
अभी होंगे यहाँ और तमाशे
'तुषार' जेब में रेज़गारी रखो
#तुषारापात®
शिवधनुष के दो टुकड़े पृथ्वी पर पड़े हैं और सीता द्वारा गले में पहनाई जयमाला अपने हृदय से लगाये राम, सीताराम हुये खड़े हैं।
रामचंद्र के मस्तक पर बने सूर्य की किरणों से माँ सीता के रूप का दर्पण दशो दिशाओं को प्रकाशित कर रहा है। ऐसी विद्युतीय आभा देखकर समस्त भुवनों के देवी देवता सियाराम के चरणों में अपना पुष्प प्रणाम अर्पित करने लगते हैं साधु, ऋषि और निर्मल हृदयी राजे महाराजे सीता में अपनी माँ को देखकर प्रणाम करने लगते हैं परन्तु कुछ अधर्मी, कुलनाशी कपूत,मद में चूर राजा, स्वर्णमुद्राओं से भरे कलशों की वैभवता को निस्तेज कर देने वाले माँ सीता के इस रूप को देख लोभवश हो युद्ध को प्रेरित हो गए।
ऐसे राजाओं के दुर्वचनों को सुनकर सखियां सीता को उनकी माँ के पास ले जाती हैं और लक्ष्मण क्रोधित होकर उन दुष्ट राजाओं को मानो अपने नेत्रों से ही भस्म कर देना चाहते हैं परन्तु राम को शांत देखकर लक्ष्मण मौन हैं।
उसी समय भृगुकुल कमलरूपी भगवान परशुराम अपने वज्र समान कठोर हस्त में फरसा लिए जनक दरबार में प्रवेश करते हैं उन्हें देखकर अपने पौरुष का बखान करने वाले कुपुरुषार्थी वे सभी राजा जो अभी सीता के हरण के लिए युद्ध को तत्पर थे थरथर काँपने लगते हैं और दुराचारी और अनाचारी राजाओं को मृत्यु देने वाले भृगुश्रेष्ठ परशुराम को देख भय से अपने पुरखों तक के नाम भूल जाते हैं। अन्य सभी राजा अपने पिता के नाम के साथ अपना नाम बता बता कर उन्हें प्रणाम करने लगते हैं।
एक कठोर न्यायिक प्रक्रिया के नायक के रूप में परशुराम के हाथ में दंड रूपी फरसा देख अब सम्पूर्ण सभा शांत है। परन्तु परशुराम द्वारा धनुष तोड़ने वाले को सम्मुख करने के आदेश से, पहले से आक्रोश से भरे लक्ष्मण से उनका घोर संवाद होने लगता है मानो कोई नागरिक भटकी हुई न्याय व्यवस्था को दिशा दिखा रहा हो, इस संवाद का कोई हल प्राप्त होता न देख सागर के समान विशाल हृदय वाले,शांत स्थिरचित्त उच्च सत्ता रूपी राम अब परशुराम से संवाद अपने हाथों में लेते हैं और उन्हें संतुष्ट करते हैं।
समस्त प्रकार से संतुष्ट होने के उपरांत परशुराम सिया-रामको आशीर्वाद देते हैं और राम को संबोधित करते हुए पूरी सभा को यह कठोर संदेश देते हैं "राम.. प्रकृति ने वरण का अधिकार स्त्री को दिया है.. इसी कारण विवाह की यह प्रक्रिया स्वयंवर कहलाती है...महादेव के जिस धनुष को बड़े से बड़ा महारथी अपने स्थान से विस्थापित करना तो दूर स्पर्श करने तक का साहस न दिखा पाया उसे तुमने विद्युत की गति से प्रत्यंचा चढ़ा खंडित कर दिया.. इसमें तुम्हारा पौरुष कुछ नहीं वरन जानकी की सहमति... उसकी इच्छाशक्ति का बल है.. यह धनुष उसके कुल की मर्यादा उसके शील का प्रतीक है.. यह उसका और मात्र उसका अधिकार है कि वह अपने पिता द्वारा प्रदत्त मर्यादा के आवरण को..अपने शील की रक्षा के लिए किसे इस आवरण का उल्लंघन करने देती है..
यहाँ तक की मर्यादा पुरुषोत्तम को भी यह अधिकार उससे प्राप्त करना होता है..
स्त्री द्वारा चयनित वर के अतिरिक्त अन्य किसी को यह अधिकार नहीं कि वह इस मर्यादा क्षेत्र में अतिक्रमण करने का दुस्साहस करे.. यदि किसी ने स्त्री के इस अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण करने का स्वप्न में भी स्मरण किया तो मैं उस अधर्मी को...उसके पूरे कुल समेत नष्ट कर उसके राज्य की सम्पूर्ण धरती अपने फरसे से उलट दूँगा।"
#विवाह_पंचमी
~तुषार सिंह #तुषारापात®
बना रहने दो जो है ये पम्बे सा रिश्ता
हवा हो जाएगा जो ज़ोर से बुलाओगे
कोई न कोई ख़्वाब सर उठायेगा
तकिये से अपना सर जब लगाओगे
उभर आएंगीं गालों पे भीगी आयतें कुछ
मेरे नाम के मनके गर उँगलियों पे फिराओगे
हमारी बेबसी बन जायेगी इक तमाशा
बैसाखियों को गर पायल तुम पहनाओगे
ज़माना जान जाएगा के शायर था कौन
'तुषार' की मजार पे गर शमा तुम जलाओगे
*पम्बा= रुई का छोटा टुकड़ा
~तुषार सिंह#तुषारापात®
"यदि जय-पराजय का कोई अर्थ ही नहीं है तो भगवन युद्ध क्यों?" अर्जुन ने पूछा
कृष्ण ने भी एक प्रश्न कर दिया "तुम जब किसी लक्ष्य का संधान करते हो तो तुम क्या देखते हो...लक्ष्य या बाण?
अर्जुन ने हाथ जोड़ उत्तर दिया "केशव.. संधान का अर्थ ही है बाण की नोक से लक्ष्य का मिलान करना...मैं बाण की नोक पे लक्ष्य देखता हूँ"
"क्या बाण की नोक से लक्ष्य का मिलान कर लेने मात्र से लक्ष्य साधित हो जाता है" कृष्ण ने एक और प्रश्न किया
अर्जुन और दुविधा में आ गया "नहीं उसके लिए तो बाण को धनुष से छोड़ना होगा"
"तो इससे यह स्पष्ट हुआ कि लक्ष्य भेदन से पहले धनुष का जितना महत्त्व है लक्ष्य भेदन के उपरांत उतना महत्त्व नहीं रह जाता.. तो क्या यह कहा जा सकता है कि लक्ष्य भेदने के लिए मात्र बाण ही महत्त्वपूर्ण है?"
अर्जुन ने शीघ्रता से उत्तर दिया "नहीं केशव यह मैं कैसे कह सकता हूँ...वास्तव में लक्ष्य भेदन हेतु धनुष-बाण और सिद्ध धनुर्धर तीनों ही महत्त्वपूर्ण हैं"
"तीन नहीं..चार..धनुष,बाण और सिद्ध धनुर्धर के साथ धनुर्धर के लक्ष्य भेदने का कर्म..कहने को मैं ये भी कह सकता था कि युद्ध का ही कोई अर्थ नहीं है...हे अर्जुन! जय पराजय का मेरी ओर से देखने पर कोई महत्त्व नहीं है परन्तु इस युद्ध की नोक पर जय है या पराजय इसकी चिंता छोड़ कर तुझे युद्ध करना है ऐसा मेरा तात्पर्य है.. तुझे बाण छोड़ना है अर्थात लक्ष्य की दिशा में कर्म करना है..मुझे लक्ष्य भेदना है..फल देना है" कृष्ण ने कहा और चुप हो गए।
#तुषारापात®
नसीब ढूँढने को आसमाँ में झाँक रहा हूँ मैं
बुझे चाँद की राख से सितारे मांज रहा हूँ मैं
#अगहनी_अमावस्या #तुषारापात®
तुम बुदबुदा के इसे मेरा मुकद्दर बना दो
कागज़ पे अपने माथे की खुरचन लाया हूँ मैं
#तुषारापात®
एक अंधेरे रूम में
छोटी छोटी पाँच बत्तियाँ धुँधला रहीं हैं
बोर्ड पर लगा फ्यूज इंडिकेटर
सेटटॉप बॉक्स और उसका अडॉप्टर
स्टैण्ड बाई टीवी और
मॉस्किटो किलर
और इनके साथ
सीलिंग फैन का शोर
जैसे उल्टा लटका हो कोई हैलीकॉप्टर
व्हाइट पर्दा विंडो पर
फड़फड़ा रहा है
बिस्तर पर एक मोबाइल
औंधे मुँह पड़ा है
जिसके एक कोने से
छोटी सी एक बत्ती
बीच बीच में जगमगा के
चार्जिंग माँगती है
मोबाइल थोड़ा सा काँपता है
शांत हो जाता है फिर काँपता है
लेकिन उसे चार्जिंग में लगाने
कोई नहीं आता,तड़पता मोबाइल
बिस्तर के दूसरी ओर
दो बेजान हाथों को एक सीने से
लिपटा देखता है और देखता है
साँस को तरसता,खुला हुआ
एक बेजान मुँह
कमरे में हवा तो थी पर साँस नहीं
ज़हरीली हवाओं से मोबाइल भी नहीं बचेंगें।
#तुषारापात®
एक अंधेरे रूम में
छोटी छोटी पाँच बत्तियाँ धुँधला रहीं हैं
बोर्ड पर लगा फ्यूज इंडिकेटर
सेटटॉप बॉक्स और उसका अडॉप्टर
स्टैण्ड बाई टीवी और
मॉस्किटो किलर
और इनके साथ
सीलिंग फैन का शोर
जैसे उल्टा लटका हो कोई हैलीकॉप्टर व्हाइट पर्दा विंडो पर
फड़फड़ा रहा है
बिस्तर पर एक मोबाइल
औंधे मुँह पड़ा है
जिसके एक कोने से
छोटी सी एक बत्ती
बीच बीच में जगमगा के
चार्जिंग माँगती है
मोबाइल थोड़ा सा काँपता है
फिर शांत हो जाता है
ऐसे ही होगा हमारा अंत
पाँचो इन्द्रियाँ धुँधलाने लगेंगीं
यमराज का गड़गड़ाता रथ
कफ़न लेकर आने लगेगा
और हम,बिस्तर पर औंधे पड़े
बस एक साँस माँग रहे होंगे
लेकिन हवा पहले ही मर चुकी होगी
और हम अपनी आखिरी साँस से
उसे थोड़ा और मार जायेंगें
सब यूँ ही जल्दी मर जायेंगें।
#तुषारापात®
पुरानी किताब के मुड़े पन्ने जब खुलते हैं
'तुषार' सूखे हुए फूल काँटों से चुभते हैं
#तुषारापात®
रोमन राज्य में एक बूढ़ा लोहार क्लाइडस अपने किशोर पोते जोविस के साथ रहता था, एक दिन क्लाइडस को एक ही तरह के कई बर्तन बनाते देख जोविस ने उससे पूछा "दादा जी...हम ये इतने सारे बर्तन क्यों बना रहें हैं"
"क्योंकि अगले हफ्ते दलाइजेनियस उत्सव आने वाला है..नगर के लोग उस दिन इस विशेष बर्तन को खरीदते हैं और एक बार इसमें थोड़ा सा जल भरते हैं और फिर उस जल को फेंककर इस खाली बर्तन का पूजन करते हैं.. उनकी मान्यता है कि इस दिन इस बर्तन को पूजने वाले को एक वर्ष के भीतर ढेर सारा धन प्राप्त होता है" क्लाइडस ने हाथ में पकड़े बर्तन में थोड़ा सा पानी भरते हुए कहा
जोविस उसे बर्तन में पानी भर के निरीक्षण करते और पानी फेंकते देखता है, थोड़ी देर कुछ सोचता और फिर क्लाइडस से कहता है "तब तो.. आपके पास तो..अ..बहुत सारा धन होना चाहिए था..हमारे पास तो इतने सारे बर्तन हैं..हम फिर भी गरीब क्यों हैं"
क्लाइडस किशोर मन की उड़ान देख मुस्कुरा दिया और बोला "क्योंकि बर्तन से अधिक मूल्यवान पदार्थ बर्तन के भीतर हुआ करता था जिसे हमने हजारों साल पहले फेंक दिया था.. इसलिये हम गरीब हैं..पुत्र"
जोविस की उत्सुकता अब चरम पर पहुँच गई "अरे..बर्तन से अधिक मूल्य का पदार्थ अगर बर्तन में था तो उसे फेंक क्यों दिया.. तब तो इस उत्सव को मनाने का कोई मतलब ही नहीं रहा..दादा जी..मुझे इस उत्सव के पीछे की कहानी सुनाइये न..क्या था उस बर्तन में..उसे किसने फेंका और क्यों?"
"बचपन में अपने दादा से मैंने ये कथा सुनी थी..अब ठीक ठीक तो याद नहीं है फिर भी जितनी याद है सुनो" क्लाइडस अपने माथे पे हाथ लगाते हुए बोला और कहानी सुनाने लगा, जोविस झट से उसके और पास आकर बैठ गया और कहानी सुनने लगा।
बहुत पहले रोमन देवताओं और दैत्यों के मध्य पो नदी से निकले एक स्वर्णपात्र के स्वामित्व के लिए भीषण युद्ध छिड़ा हुआ था देवता और दैत्य युद्ध में इतने अधिक मगन थे कि नदी किनारे रखे हीरे-पन्ने और न जाने कितने रत्न जड़े उस स्वर्णपात्र पर उनमें से किसी की भी नज़र न थी..इसी का फायदा उठा के राजा ज़ेलेंडर जो कि हमारे राज्य रोमन का सम्राट और हमारे परदादा के परदादा का भी प्रथम परपरदादा भी था,ने उस स्वर्णपात्र को नदी के किनारे से चुरा लिया और वह तेजी से भागने लगा..वह शीघ्र अति शीघ्र देव-दैत्य युद्धभूमि से दूर अपनी राजधानी पहुँच जाना चाहता था पर वह स्वर्णपात्र बहुत अधिक भारी था इसलिए वह तेजी से भाग नहीं पा रहा था..तो.. जब वो.. भागते.. भागते... युद्धभूमि से थोड़ी दूर..पहुँच गया तो तो उसने यह किया..यह किया...क्या किया था उसने...." क्लाइडस कहानी कहते कहते अटक गया और माथा पकड़ के सोचने लगा
रोमांचक कहानी के इतने रोचक मोड़ पर कहानी रुकने पर भी जोविस ने अपना सब्र नहीं खोया वह अपनी जगह से उठा और क्लाइडस के बनाये उस विशेष बर्तन में पानी भर के ले आया और अपने दादाजी को पीने को दिया, पानी पीते ही क्लाइडस को याद आ गया और वह आगे की कहानी कहने लगा "तो जब स्वर्णपात्र के भार के कारण हमारा राजा ज़ेलेंडर थोड़ी दूर आकर रुका था तो उसने सोचा देखूँ तो इसमें क्या है जो देवता तक इसके लिए युद्ध कर रहे हैं.. वह पात्र को खोलकर देखता है और उसमें उसे कोई रत्न इत्यादि नहीं दिखता उसमें तो मटमैला पानी दिखता है.. वह सोचता है चूंकि पात्र सोने का है और इतने सारे बहुमूल्य रत्नों से जड़ा है तो संभवतः देवता इसी पात्र के लिए युद्ध कर रहे होंगे यह सोचकर वह पात्र में भरा मटमैला पानी फेंक देता है जिससे कि पात्र का भार कुछ कम हो जाये और वह तेज़ी से भाग सके.. फिर वह किसी तरह अपनी राजधानी पहुँचता है और बाद में उसके राजदरबार के कवि यह किस्सा उसकी शान में बढ़ाचढ़ा कर पेश करते हैं। चूँकि वह राजा था..नहीं राजा से भी बड़ा..वह तो सम्राट था तो उसके पास धन दौलत की कोई कमी पहले से ही नहीं थी पर न जाने कैसे उसका यह किस्सा फैलते ही लोगों ने राजा की धन संपदा का कारण उस स्वर्ण पात्र से जोड़ दिया और जिस दिन वह राजा अपनी राजधानी पहुँचा था उस दिन से यह उत्सव मनाने की परंपरा आरम्भ हो गयी" क्लाइडस कहानी कहकर चुप हो गया।
जोविस ने कहा "लेकिन हो सकता है उस स्वर्णपात्र के कारण ही राजा की धन संपदा में वृद्धि हुई हो और उसने अक्लमंदी का काम किया जो पात्र में भरा नदी का मटमैला जल फेंक दिया..क्योंकि भार कम होनेके कारण ही वह तेजी से भाग सका था"
क्लाइडस मुस्कुराया और ठंडी साँस छोड़ते हुए बोला "वह मटमैला पानी अमृत था.. देवता स्वर्ण और रत्नों के लिए कब युद्ध करते हैं..वह अगर अमृत पी लेता तो उसे भागने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती फिर तो देवता भी उसे मार नहीं पाते"
"हे ईश्वर... तब तो हमारे पहले दादा राजा ज़ेलेंडर बिल्कुल बुद्धू थे...उन्हें यह सोचना चाहिए था कि देवता तक जिस चीज के लिए युद्ध कर रहे थे वह कोई बहुत अनमोल चीज ही होगी.. लेकिन देवताओं और दैत्यों ने पात्र की चोरी के बाद राजा को पकड़ा नहीं..पात्र वापस देने के लिए?" जोविस की वाणी में गुस्सा..और आश्चर्य दोनो था
क्लाइडस जोविस के पानी लाये बर्तन को उठाते हुए धीरे से बोला "देवताओं को कहाँ फुरसत जो मनुष्यों की ओर देखें...वे तो आज तक दैत्यों से युद्ध कर रहे हैं..."
"तो दादा जी आप यह कहानी रोमन के सभी नागरिकों को क्यों नहीं बताते.. उन्हें सच की जानकारी होनी चाहिए"
श..श.. यह बात कभी भी..किसी से भी.. मत कहना.. वरना हमारे बनाये यह बर्तन कौन खरीदेगा" कहकर उसने पानी से भरे उस विशेष बर्तन को जोविस की ओर बढ़ा दिया और दादा पोते दोनो हँसने लगे।
~तुषार सिंह #तुषारापात®
दो महिलाएं किसी तीसरी महिला की भरपूर निंदा करने के बाद अपनी भेंटवार्ता के अंत में उसी तीसरी महिला की प्रशंसा करतीं ठीक वैसे ही सुनाई देतीं हैं जैसे पुजारी लोग पूजा करने के बाद पूजा में हुई किसी भूल-चूक के लिए क्षमा याचना करतें हैं।
~तुषारापात®
न चरखा कातती बुढ़िया दिखेगी
न दिखेंगें गड्ढे किसी पहेली की तरह
चौथ का चाँद दिखाई देगा आज
बस,हिना लगी तेरी हथेली की तरह
#तुषारापात®
इसरो'ज हम न सफल हुए
पर हँसने वाले यह ध्यान रहे
हमने मंगल को एक बार में जीता
सूरज को निगलने वाले हनुमान रहे
#तुषारापात®
"मुझे चाँद ताकना बहुत पसंद है...बड़ी ठंडक मिलती है..लोग चाँद के धब्बों पर कुछ भी कहें पर मुझे तो ये किसी की गई खूबसूरत कारीगिरी लगती है.. देखो कितना सुंदर लग रहा है पूर्णिमा का चाँद!"
"सुन्दर तो दोपहर का सूरज होता है जो अपने पूरे शबाब पर होता है.. पर कोई उससे जलके छुरा मार जाता है और वह दर्द से ढुलकने लगता है.. शाम को देखो कैसे लहूलुहान सूरज की लाली पूरी धरती पर फैल जाती है.. पर किसे फर्क पड़ता है..लोग शाम होने का जश्न मनाते हैं.. मैं चाँद नहीं देखता कभी... मुझे वह उसी खंज़र की मूठ लगता है जिसे सूरज की पीठ में घोंपा गया था.. और मैंने देखा है कि जानलेवा खंजरों की मूठ पे बहुत खूबसूरत नक्काशी हुई होती है।"
~तुषार सिंह #तुषारापात®
( मेरी लंबी कहानी 'बेवफ़ाई से)
याद है..उस दिन जब बारिश में..मैं आधी से ज्यादा भीग गई थी और तुमने मुझे हल्के से छुआ था..तुम्हारी उस जरा सी छुअन से..काँपने लगी थी मैं... अगर थोड़ी सी और ताकत से तुम अपना हाथ..मेरी ओर बढ़ा देते तो मैं सारे बंधन तोड़ के खुल जाती लेकिन..तुम.. तुम मुझपर बनी बारिश की लकीरों को देख अपनी डायरी को स्याही से भिगोने में मशगूल हो गए।
ऐसे ही एक रोज तुम सो रहे थे और सुबह की हल्की धूप तुम्हारी गहरी नींद में ख़लल डाल रही थी..तो मैंने बहती हवा से कहा था कि..जरा मेरे साइड में काँधे पे पड़े आँचल को तुम्हारी ओर फहरा दे और ऐसे मैंने तुम्हें साये में रखा.. कुछ देर बाद जब तुम जागे तो तुमने बस एक हल्की सी नज़र मेरी ओर डाली...उफ्फ..तुम्हारी वो उड़ती सी नज़र मेरे आरपार हो गयी थी पर चढ़ते सूरज को देख तुम हड़बड़ाते हुये घड़ी पर नज़र जमाये गुसलखाने की ओर दौड़ गये और मैं अपने दोनों खुले हाथ लिए जड़ी रह गई।
तुम्हारे कमरे में उमस ज़्यादा होने लगी थी..लाइट जाने पे जब पसीने की बूंदें तुम्हारे माथे पर चमकने लगतीं थीं तो मैं..छटपटा के अपने हाथ मारने लगती थी कि थोड़ी सी हवा पैदा हो और तुम्हारे माथे का पसीना सूख जाए पर एक दिन तो तुम एहसानमंद होने की बजाय उल्टे गुस्से में ही आ गए.. "शोर से लिखा नहीं जाता" यह कहकर तुमने मेरे हाथ बाँध दिए थे.. एहसान फरामोश कहीं के।
रात रात भर तुम अपनी कुर्सी पे बैठे लिखते रहते थे..मेज से ऊपर पासपोर्ट फोटो जितना हिस्सा तुम्हारा मुझे दिखता था..मैं तुम्हें निहारा करती थी और जब दिन को..तुम देर तक सोते थे..तो भी..बस मैं तुम्हें देखती रहती थी और कोशिश करती थी कि बाहर का जरा सा भी शोर तुम तक न पहुँचे..धूल का एक जर्रा भी तुम्हारे फूले बदन को न छुए..पर बुरा हो तुम्हारे पियक्कड़ दोस्तों का जिनके आने पर तुम मुझपर मोटी सी साड़ी डाल दिया करते थे और मैं मर्यादा में बँधी बहू की तरह घूँघट के भीतर से सब देखती जानती पर कुछ कह नहीं पाती थी।
तुम्हारी सारी ज़्यादतियाँ मुझे मंज़ूर थीं और ये सारी बातें मैं तुमसे कभी कहती भी नहीं...तुमने मेरे दोनों हाथ तोड़ डाले मैंने उफ़ भी नहीं की पर कलमकार!..तुमने मेरा दिल तोड़ दिया..जिस छोटे से कमरे में तुम मेरे सामने अपनी मेज पर बैठे लिखते रहते थे..उसी कमरे में तुमने मेरे सामने अपनी सुहागरात मनाई...आह!..और ज़ुल्म की इंतेहा ये कि अपने मायके से लाया एयर कंडीशनर मेरे सीने में धँसा के तुम्हारी नई नवेली दुल्हन मेरी चुगली लगाने को तुमसे कहती है "ये खिड़की आवाज़ बहुत करती है।"
~तुषार सिंह #तुषारापात®
एड़ी के खूँटे से बँधी परछाइयाँ
सूरज डूबते ही आवारा हो गईं
#तुषारापात®
"आहा! नरेंद्र..कितने दिनों बाद आया तू..ले ये खीर खा.." रामकृष्ण,नरेंद्र को आया देख प्रसन्नता से भर उठे और उसे अपने हाथों से खीर खिलाने को मानो दौड़ ही पड़े
नरेंद्र अस्तव्यस्त कुर्ते में अपने झुके कंधे छुपाए उनके पास खड़ा था, खीर खिलाते उनके हाथ को रोक कर, माँ काली के मंदिर की ओर अपना हाथ करते हुए नरेंद्र बोला "क्या आप माँ को भोग लगाए बिना भोजन कर लेते हैं.... जिसके घर में रसोई और अग्नि परस्पर विलोम हो चुके हों..अपने दूध से जिसे सींचने वाली माँ..भात के कुछ सूखे दानों के लिए रीते पात्रों को बार बार देखती हो..वह पुत्र यहाँ बैठ कर खीर खायेगा तो क्या माँ को अपना मुख दिखा पायेगा..." नरेंद्र जीवन संघर्ष की व्यथा में आगे कहता गया "आप कहते हैं काली के चरणों में सम्पूर्ण संसार का वैभव है..फिर आप दरिद्र क्यों हैं..आपके शिष्य दरिद्र क्यों हैं..आप कहते हैं माँ आपकी हर बात सुनती है.. आप उससे यह दरिद्रता मिटाने को क्यों नहीं कहते.."
रामकृष्ण परमहँस ने मंदिर की ओर देखकर कहा "माँ.. माँ.. सुन..नरेंद्र तेरे पास आ रहा है यह जो भी वर माँगे..उसे पूरा कर देना.." खीर से भरा कटोरा पकड़े रामकृष्ण ने मुस्कुराते हुए नरेंद्र से कहा " जा.. मांग ले माँ से जो भी तू माँगना चाहता है..धन..शक्ति...वैभव..जो भी कुछ तू माँगेगा.. माँ तुझे प्रदान करेगी.."
रामकृष्ण के यह वचन सुनते ही नरेंद्र की आँखों में उसकी माँ का रसोई में भोजन बनाता चित्र सजीव हो उठा वह माँ काली के मंदिर की ओर दौड़ा और अपने चरणों को नग्न कर काली की प्रतिमा के समक्ष पहुँचा पर ये क्या प्रतिमा के सामने जाकर उसके मुख से कोई बोल नहीं निकल पा रहा है, वह विचारशून्य हो गया है, मानसिक चेतना के अनेक असफल प्रयासों के उपरान्त वह भागकर रामकृष्ण के पास वापस आता है
"मांग आया माँ से..आ अब खीर खा..." परमहँस ने परम स्नेह से कहा तो नरेंद्र ने फिर खीर के कटोरे को परे करते हुए निराश स्वर में कहा "परन्तु मैं तो कुछ माँग ही नहीं सका..कुछ बोल ही न पाया तो माँगता क्या..."
रामकृष्ण ने निराश नरेंद्र की ओर देखा भी नहीं, खीर के कटोरे को देखते हुए ही बोले "जा एक बार पुनः जा..माँग ले..माँ.. नरेंद्र आ रहा है.. पुत्र जो वरे.. वार दे"
नरेंद्र पुनः प्रतिमा के सम्मुख गया और इस बार भी चेतनाशून्य सा हो गया, उसकी जिह्वा मानो थी ही नहीं,मस्तिष्क में उसे बस 'ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम्.......... यही मंत्र सुनाई दे रहा था, कुछ समय पश्चात वह स्वयं को मंदिर से बाहर रामकृष्ण के सम्मुख पाता है तो रोष से भरे स्वर में उनसे कहता है "ये आप ही हो न..जो मुझे भेजते तो हो पर कुछ माँगने नहीं देते.. एक शिष्य की लालसा में उसके जीवन से यूँ क्रीड़ा करना आपको शोभा नहीं देता"
मैं.. माँगने नहीं देता..पगले मैं तो स्वयं देने को उत्सुक हूँ.. परन्तु तू..माँगता ही नहीं..माँ से ही माँगना चाहता है तो उन्हीं से माँग परन्तु माँग तो..जा पुनः प्रयास कर..जा नरेंद्र..जा..माँग ले..मैं नहीं रोकता..जा" रामकृष्ण रहस्यमयी स्वर में इतना बोल के चुप हो गए, नरेंद्र इस बार मंदिर प्रांगण के बाहर से जो माँगना था वह बुदबुदाते हुए प्रतिमा के सामने जाने का प्रयत्न करता है, परन्तु काली के सम्मुख जाते ही वह सम्मोहित हो जाता है, उसे काली की प्रतिमा के स्थान पर रामकृष्ण परमहँस दिखाई देते हैं, वह इस बार स्वयं को समस्त बंधनो से मुक्त पाता है उसकी विचार और चेतना शक्ति और अधिक प्रबल हो गयी है,वह माँगता है "माँ.. मुझे बुध्दि दे" इतना माँगते ही उसके चक्षुओं में नीर भर आता है , वह काली को दण्डवत प्रणाम करता है और प्रणाम कर उठता है तो स्वयं को पंचवटी में खीर का कटोरा पकड़े रामकृष्ण के सम्मुख पाता है,
नरेंद्र शान्त है और रामकृष्ण उससे कह रहे हैं "हमें दुखों को आत्मसात करना नहीं आता, हम दुख से दूर भागना चाहते हैं हम चाहते हैं कि कोई हमारा दुख दूर कर दे और अगर दूर न कर सके तो कम से कम सुन अवश्य ले, संभवतः इसी से ईश्वर के प्रतीकों की उत्पत्ति हुई होगी, हम उसपर ईश्वर की कृपा मानते हैं जो अपने सुखों का यदा कदा प्रदर्शन करता रहता है जो अपने दुख का प्रदर्शन करता है हम उसे अभागा कहते हैं परन्तु...हम उसे क्या कहते हैं जो अपने दुखों को आत्मसात करता जाता है ... वो योगी होता है जो दुखों को स्वयं के भीतर भस्म करता जाता है और स्वयं भी जलता जाता है लेकिन इस अग्नि में उसका शरीर जलता है और जैसे स्वर्ण कुंदन हो जाता है वैसे ही उसकी आत्मा उच्चावस्था को प्राप्त हो जाती है... परन्तु..यह एक कठिन और बहुत लंबी प्रक्रिया है जैसे कि किसी ज्वालामुखी का बनना, उसे सहस्त्रों वर्ष लगते हैं लेकिन सुख के बादल हर वर्ष बरसते हैं लोग सुख की वर्षा देखते हैं और सुख की कामना करते हैं कोई भी स्वयं में सहस्त्र दुखों को सहस्त्र वर्ष तक क्यों जलाना चाहेगा, देवताओं का एक अहोरात्र (दिन+रात) हमारे एक वर्ष के बराबर होता है और ब्रह्मा के मात्र एक दिवस (रात्रि नहीं) का मान एक कल्प है,
जिसे दैवीय सुख चाहिये वो सुख के बादलों की कामना करता है और देवताओं तक सीमित रह जाता है परंतु जो सहस्त्र वर्ष तक दुख आत्मसात करता है वह ब्रह्म के एक दिन में क्षणिक ही सही परन्तु स्वयं की उपस्थिति बना लेता है"
नरेंद्र ने सुना उन्हें प्रणाम किया और उनसे खीर खिलाने का आग्रह किया, रामकृष्ण उसे बहुत स्नेह से एक माँ के समान वात्सल्य से भरे हाथों से खीर खिलाने लगते हैं, प्रत्येक कौर के साथ रामकृष्ण परमहँस,गदाधर होते जा रहे थे और नरेंद्र,स्वामी विवेकानंद।
(परमपूज्य गुरु भगवान श्री श्री रामकृष्ण परमहँस की महासमाधि दिवस पर )
~तुषार सिंह #तुषारापात®