"उसके लिए..उसके लिए..ये गुम्बदौ-मीनारें बनाने से क्या फायदा.. उसको अगर यहाँ रहना ही होता..या कभी कभार आना भी होता..तो वो ये सब कुछ बनाने से पहले..अपना घर ऑफिस वगैरह..अपनी मर्जी का अपने हिसाब का..यहाँ न बनाता?...साफ मतलब है..वो यहाँ रहना ही नहीं चाहता था...सोचो जरा..पूरी दुनिया बनाने वाला अपना घर बनाने का ज़िम्मा हमें..मतलब..हम नौसिखियों को सौंपेगा? ..जनाब ख़ुदा खानाबदोश है..ठिया ठिकाना नहीं रखता..वो तो बस हमारे जैसे न जाने कितनों के ठिकाने बनाता जाता है..आगे बढ़ता जाता है...वो अब जब वापस आएगा तो अपनी ज़मीन वापस खींचने आएगा...तब तक हम सब ख़ाक होके अपनी खाल इस जमीं में मिला चुके होंगे.. न न भाई..मेरी तौबा..उसका घर बनाने में अगर कुछ ऊँच नीच हो गई..तो वो हमें फिर से ज़िन्दा करके..हमारी ज़िन्दा खालें खींचेगा..।"
नाटक 'ख़ुदा खानाबदोश है' से एक अंश।
~तुषारापात®