उसने एक हाथ से मुझे कमर से साध रखा था और उसके दूसरे हाथ की खुरदरी उंगलियाँ मेरे चेहरे पे यहाँ वहाँ फिर रही थीं मानो कोई कुशल वीणावादक अपने अवसान काल में वीणा का भार भी संभाल रहा हो और काँपते हाथों से वीणा के तारों को झंकृत भी कर रहा हो,जानती हूँ..तुम उतने कुशल नहीं रहे और इस वीणा के तार भी जंग खा चुके हैं..फिर भी सावन की इस उमस भरी दोपहरी में ये जो संगीत तुम मुझमें जगा रहे हो...ये वासना नहीं..देह की कामना नहीं वरन..ये तो देह की साधना है..ये संगीत ही प्रेम है..मेरी झुर्रियों के तारों से खेलतीं तुम्हारी खुरदरी काँपती उँगलियाँ का संगीत!
-तुषारापात®