Tuesday 29 November 2016

आलपिनों की मूठें

आओ बैठें साथ जरा देर
किस्सों के आँगन में
अल्फ़ाज़ों से बुनी चटाई पे
धूप का हुक्का पीते हैं
फिर शाम उतर आएगी
रात की बाहें थामे हुए
ओस की नन्हीं बूँदों से
इन दोनों आँखों में
इक इक माला बन जायेगी
चाँद के हवन कुंड में
सूरज जब आएगा
उनचास फेरों के बाद
फिर पग फेरे को
तुम अपने घर चली जाना
हर दफे टूटता ये ख्वाब
हर बार एक सितारा बढ़ता है
ऊपरवाले के ब्लैकबोर्ड पे
फिर नई अर्जी टँकती है
जो दिखती सितारों की पट्टी
वो आसमान के सीने पे
चमकती आलपिनों की मूठें हैं।

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