Saturday 30 November 2019

विवाह पंचमी

शिवधनुष के दो टुकड़े पृथ्वी पर पड़े हैं और  सीता द्वारा गले में पहनाई जयमाला अपने हृदय से लगाये राम, सीताराम हुये खड़े हैं।
रामचंद्र के मस्तक पर बने सूर्य की किरणों से माँ सीता के रूप का दर्पण दशो दिशाओं को प्रकाशित कर रहा है। ऐसी विद्युतीय आभा देखकर समस्त भुवनों के देवी देवता सियाराम के चरणों में अपना पुष्प प्रणाम अर्पित करने लगते हैं साधु, ऋषि और निर्मल हृदयी राजे महाराजे सीता में अपनी माँ को देखकर प्रणाम करने लगते हैं परन्तु कुछ अधर्मी, कुलनाशी कपूत,मद में चूर राजा,  स्वर्णमुद्राओं से भरे कलशों की वैभवता को निस्तेज कर देने वाले माँ सीता के इस रूप को देख लोभवश हो युद्ध को प्रेरित हो गए।

ऐसे राजाओं के दुर्वचनों को सुनकर सखियां सीता को उनकी माँ के पास ले जाती हैं और लक्ष्मण क्रोधित होकर उन दुष्ट राजाओं को मानो अपने नेत्रों से ही भस्म कर देना चाहते हैं परन्तु राम को शांत देखकर लक्ष्मण मौन हैं।

उसी समय भृगुकुल कमलरूपी भगवान परशुराम अपने वज्र समान कठोर हस्त में फरसा लिए जनक दरबार में प्रवेश करते हैं उन्हें देखकर अपने पौरुष का बखान करने वाले कुपुरुषार्थी वे सभी राजा जो अभी सीता के हरण के लिए युद्ध को तत्पर थे थरथर काँपने लगते हैं और दुराचारी और अनाचारी राजाओं को मृत्यु देने वाले भृगुश्रेष्ठ परशुराम को देख भय से अपने पुरखों तक के नाम भूल जाते हैं। अन्य सभी राजा अपने पिता के नाम के साथ अपना नाम बता बता कर उन्हें प्रणाम करने लगते हैं।

एक कठोर न्यायिक प्रक्रिया के नायक के रूप में परशुराम के हाथ में दंड रूपी फरसा देख अब सम्पूर्ण सभा शांत है। परन्तु परशुराम द्वारा धनुष तोड़ने वाले को सम्मुख करने के आदेश से, पहले से आक्रोश से भरे लक्ष्मण से उनका घोर संवाद होने लगता है मानो कोई नागरिक भटकी हुई न्याय व्यवस्था को दिशा दिखा रहा हो, इस संवाद का कोई हल प्राप्त होता न देख सागर के समान विशाल हृदय वाले,शांत स्थिरचित्त उच्च सत्ता रूपी राम अब परशुराम से संवाद अपने हाथों में लेते हैं और उन्हें संतुष्ट करते हैं।

समस्त प्रकार से संतुष्ट होने के उपरांत परशुराम सिया-रामको आशीर्वाद देते हैं और राम को संबोधित करते हुए पूरी सभा को यह कठोर संदेश देते हैं "राम.. प्रकृति ने वरण का अधिकार स्त्री को दिया है.. इसी कारण विवाह की यह प्रक्रिया स्वयंवर कहलाती है...महादेव के जिस धनुष को बड़े से बड़ा महारथी अपने स्थान से विस्थापित करना तो दूर स्पर्श करने तक का साहस न दिखा पाया उसे तुमने विद्युत की गति से प्रत्यंचा चढ़ा खंडित कर दिया.. इसमें तुम्हारा पौरुष कुछ नहीं वरन जानकी की सहमति... उसकी इच्छाशक्ति का बल है.. यह धनुष उसके कुल की मर्यादा उसके शील का प्रतीक है.. यह उसका और मात्र उसका अधिकार है कि वह अपने पिता द्वारा प्रदत्त मर्यादा के आवरण को..अपने शील की रक्षा के लिए किसे इस आवरण का उल्लंघन करने देती है..
यहाँ तक की मर्यादा पुरुषोत्तम को भी यह अधिकार उससे प्राप्त करना होता है..
स्त्री द्वारा चयनित वर के अतिरिक्त अन्य किसी को यह अधिकार नहीं कि वह इस मर्यादा क्षेत्र में अतिक्रमण करने का दुस्साहस करे.. यदि किसी ने स्त्री के इस अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण करने का स्वप्न में भी स्मरण किया तो मैं उस अधर्मी को...उसके पूरे कुल समेत नष्ट कर उसके राज्य की सम्पूर्ण धरती अपने फरसे से उलट दूँगा।"

#विवाह_पंचमी
~तुषार सिंह #तुषारापात®