Sunday 26 August 2018

लता की कलमें

"बेटा..तुम्हारी छोटी बहन है लता..कोई पराई नहीं...लोग तो परेशानी में पड़े किसी गैर की भी मदद कर देते हैं और तुम दोनों भाई...हूँ..अच्छा है..जो तुम्हारे पिताजी नहीं रहे..रामजी मुझे भी उनके साथ उठा लेते तो अच्छा होता" कुसुम आँचल से आँसू पोछते हुए अपने बड़े बेटे विशाख से बोली।

विशाख ने तमतमाते हुए कहा "अम्मा..ये क्या बात हुई..जब पिताजी ट्रक भर भर के लता के दहेज का सामान भेज रहे थे..तब तो तुमने..कुछ न कहा था..कहतीं उनसे कि जरा अपने दोनों बेटों का भी ख्याल करो..सब कुछ बेटी दामाद को ही दे दोगे तो इनका क्या होगा..और कौन सा हम उसके यहाँ रहने पे कोई आपत्ति कर रहे हैं..पर अब तुम ये कहो कि इस मकान में भी उसका हिस्सा होगा तो अम्मा..कहे देता हूँ ये न होगा।"

"और क्या..पिताजी तो खण्डहर छोड़ के गए थे..ये तो भैया और मैंने अपना पेट काट काट के ये मकान रहने लायक बनवाया है...और वैसे भी ब्याह के बाद लता की जिम्मेदारी उसके ससुराल वालों की है हमारी नहीं.. कमबख्तों ने उसे तो अभागिन कह के घर से निकाल दिया..पर दहेज  पूरा डकार गए.." छोटे बेटे प्रसून ने भी अपने बड़े भाई के सुर में सुर मिला दिया।

"ससुराल की क्या बात कहूँ..जिसके दो बड़े भाई..सबकुछ होते हुए भी दो रोटी न खिला पाएं..वो अभागन नहीं तो क्या है..और सुन रे प्रसून.. मेरा मुँह न खुलवा कि तेरे पिताजी क्या क्या तुम दोनों के लिए छोड़ गए हैं.. वसीयत किसने जलाई...लता के ब्याह के गहने के पाँच लाख रुपये कहाँ गायब हुए..सब बताऊँ क्या.. अभागिन न होती तो क्यों मेरी कोख से जन्मती... अभागन न होती तो क्यों उसका पति न रहता...राम जी की लाठी भी अभागिनों पे पड़ती है...चोरों को उनका बाण भी नहीं छूता " प्रसून को आईना दिखा कुसुम आँगन से उठकर  अपने कमरे में चली गई।

उधर लता आँगन के दूसरी ओर बने कोठे में बैठी ये सारी बातें सुन रही थी, उसकी आँखों में उतना अंधेरा और पानी था जितना सावन की किसी बदली में होता है। वो अंदर ही अंदर तो ये समझती ही थी कि असल समस्या क्या है पर उसने ये कभी नहीं सोचा था कि उसके दोनों भाई इस तरह खुले रूप में ऐसा व्यवहार करेंगे।

करीब आधे घण्टे वो मंदिर के बाहर बैठी हुई भिक्षुणी सी बनी सोचती रही पर कुछ समय बाद देवालय की घंटियों सी उसके दृढ़ पगों की ताल उसकी माँ के कक्ष की ओर जाती सुनाई देती है।

"भाभियों की लाल हरी साड़ियों के बीच पैबंद लगी दो सफेद साड़ियाँ अच्छी नहीं लगती माँ.. तुम अपना जी क्यों दुखाती हो...आज्ञा दो माँ...कलकत्ता जाकर मौसी के यहाँ कुछ न कुछ कर लूँगी... नहीं चाहती कि यहाँ मेरी वजह से.... आँगन वही है माँ पर अब यहाँ तुम्हारी लगाई तुलसी नहीं भाभियों की मेंहदी महकती है...और आँगन में यहाँ वहाँ उग आए सफेद कुकरमुत्ते किसे अच्छे लगते हैं..सावन में बेटियां मायके आतीं हैं पर माँ ये बेटी तुमसे इस सावन..विदा माँग रही है" लता के ये कहते ही कुसुम की पलकें शिव की जटा की तरह हो गईं और उनसे गंगा प्रवाहित होने लगी। दोनों माँ बेटी एक दूसरे से चिपट के खूब रोईं और यदि कोई ऊपर आकाश से उन्हें देखता तो ऐसा लगता मानों गंगा-जमुना,सरस्वती के वियोग में एक दूसरे के गले लगीं दुख मना रहीं हैं।

सेकेंड की सुई किसी चुहिया की तरह धीरे धीरे ही सही,कई सदियों के पहाड़ कुतर देती है तो सात वर्ष का समय काटना कौन सा कठिन कार्य था। पिछले सात सालों में लता ने अपने जीवन यापन के लिए क्या क्या कार्य किए ये बस वो ही जानती है लेकिन उसने अपने ज्ञान को विकसित करने का कोई मौका नहीं छोड़ा। उसने अपनी पढ़ाई पूरी की और दो वर्ष पूर्व कलकत्ता के एक प्राइवेट स्कूल में उसे उसके मौसा के कारण अंग्रेजी पढ़ाने की नौकरी भी प्राप्त हो गई थी। कलकत्ते में उसे अपार साहित्य पढ़ने का मौका भी खूब मिला और एक दिन उसके साथ पढ़ाने वाली उसकी सह शिक्षिकाओं ने उसके लेखन को देखते हुए उसे एक उपन्यास लिखने की सलाह दी और लता ने अपने जीवन के समस्त दुखों और संघर्षों को एक उपन्यास 'लता में कलम लगी-ऊपर चढ़ी' में ढाल दिया उसका वो उपन्यास बहुत ही लोकप्रिय हुआ और उसे उस वर्ष का नवोदित साहित्य पुरस्कार भी मिला।

"बेटी..रामजी का बाण, कृष्ण का मोर पंख बन, तेरे जीवन की सारी स्याही को सुनहरे अक्षरों में बदल गया..जुग जुग जिये तू..ऐसी ही खूब तरक्की करो...तुझे पता है कि आज सावन की पूरनमासी पर मुझे तेरे पास आए पूरे दो साल हो गए हैं...तूने कितने दुख झेले जानती हूँ.." कुसुम उसकी बलाइयाँ लेते हुए बोली

लता उसके गले लगते हुए बोली "माँ शायद भगवान जिसे लेखक या लेखिका बनाना चाहते हैं उसे जानबूझकर खूब असफलता और कष्ट देते हैं.. जिससे कि उसमें वो मानवीय संवेदनायें जागृत हो जाएं जो आम व्यक्ति में सुप्त होतीं हैं"

"बस मन करता है कि तेरे दोनों भाइयों को सद्बुद्धि आ जाती.. काश.. याद है तेरे ब्याह से पहले आज के दिन तू कितने चाव से सिवइयां बनाया करती थी और अपने हाथ से राखी बना के विशाख और प्रसून की कलाइयों पे बाँधा करती थी...तेरे पिताजी तो....." कुसुम पुरानी यादों में खो गई

लता वर्तमान में ही रहना चाहती है " राखी तो आज भी बनाई है माँ और बाँधूँगी भी पर उसे जिसने मेरी वास्तव में रक्षा की है...मेरे ससुराल में तो ये अपना काम कर आया है..पर..आज अगर मैं चाहूँ तो बस इससे कह भर दूँ कि जा पिताजी की वसीयत में मेरा हिस्सा जलाने वालों से मेरा हक ले आ तो ये तुरंत ले आएगा..पर मेरा वो हिस्सा मैं अपने दोनों भाइयों को दान करतीं हूँ..और यही मेरी ओर से दोनों भाइयों को रक्षाबंधन की मिठाई है" कहकर लता ने अपने पर्स से निकाले अपने कलम को राखी बाँध दी।

~तुषारापात®