Sunday 1 November 2015

लफ्ज़

बेपर्दा होकर
बहुत मुश्किल से निकले थे
बड़ी हिफाजत से
चिट्ठियों का लिबास पहनाया था इन्हें
तुम्हारे होठों को छूकर पाकीज़ा होना था इन्हें
इसीलिए
डाक के उस काफ़िर लाल डिब्बे में नहीं भेज पाया
आज पुरानी बकस से खनक के बाहर आ गए
कुछ सील से गएँ हैं
मुलायम ठंडी धूल में लिपटे हुए
झाड़ पोछ के सोचा थोड़ी गर्माहट कर दूं इनपे
आँगन की डोरी पे टांग दिए हैं सारे
पर तेज़ आंच में सख्त न होने पायें
इसलिए
पिछली मार्च के उन 'लफ़्ज़ों' को
जाते हुए अक्टूबर की नर्म धूप लगा रहा हूँ

-तुषारापात®™