Thursday 9 July 2015

सबसे पुराना मोबाइल: हमारा चाँद

"कल नौ बजे तुम चाँद देखना,मैं भी देखूंगा,
और यूं दोनों की निगाहें,चाँद पर मिल जायेंगीं... ...." fm पे ये गाना सुनते ही व्याख्या बोली" अरे...ये तो.अपनी स्टोरी पे सॉन्ग बन गया..... सन्दर्भ.. सन्दर्भ.....तुमने ये सॉन्ग सुना.."

" हुँ...हाँ....सुना है" सन्दर्भ लैपटॉप स्क्रीन पे आँखें जमाये जमाये बोला

"कुछ याद आया...ये तो अपनी लव स्टोरी का किस्सा है...इन्हें कैसे पता चल गया.."व्याख्या ख़ुशी और आश्चर्य से भरी आवाज़ में बोली

"अरे..हाँ..यार सच में...ये तो कमाल हो गया...वैसे कई बार अलग अलग राइटरस के थॉट एक से हो जाते हैं....और लेक्चर साहिबा..इसका मतलब ये भी है कि...हमारी प्रेम कहानी सबसे अलग नहीं है" इस बार सन्दर्भ ने ध्यान देकर गाना सुना और अपना लैपटॉप बंद कर दिया

"कितना अच्छा...अपना वो टाइम...हुआ करता था...उस वक्त आज के जैसे मोबाइल फोन्स तो हुआ नहीं करते थे...और..हम लोगों के पास रोज रोज घर के लैंडलाइन से फोन करने का मौका भी नहीं हुआ करता था.... बस ये कहते थे कि रात में दस बजे तुम भी चाँद देखना...और मैं भी देखूंगी...ऐसा लगता था जैसे हम दोनों एक दूसरे को नजर भर के देख रहे हों...wow..सोच के फिर से दिल में..अजीब सी ख़ुशी भर गई.." व्याख्या ने अतीत का एक टुकड़ा फिर से चखा

"उस वक्त तो..न आज के जैसे एयर-कंडीशन मॉल थे..जहाँ हम मिल सकते थे और न ही इतना ओपन माइंडेड क्राउड था...याद करो..कैसे सब अजीब नजरों से हमें देखा करते थे....भला हो उन PCO वाले भैया का जो मुझे तुम्हारा कॉल रिसीव कर लेने दिया करते थे...जब तक कोई कॉल करने नहीं आता था...मैं तुमसे बात करता रहता था" सन्दर्भ ने अपने अंदर रोमैंस सा महसूस किया

" राइटर बाबू...अपने बीएड के दौरान...मैं ही तुम्हें फोन किया करती थी... ........आजतक उन सारी कॉल्स के बिल संभाल के रखे हैं...अब तो चुका दो..." व्याख्या ने पुराना हिसाब पेश किया

" व्याख्या...उस वक्त भी मेरे पास पैसे नहीं हुआ करते थे...और आज भी...मैं..तुम्हारा...कर्ज़दार बने रहना चाहता हूँ..... कुछ बिल पेंडिंग ही रखो.....उन बिलों में ...हमारा इश्क..फिक्स्ड डिपाजिट की तरह है ....और समय समय पे....हम...यूँ ही उसका ब्याज लेते रहेंगे" सन्दर्भ ने उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा

" चलो चाँद देखते हैं...तुम अपनी बात उससे कहना...और.मैं अपनी कहूँगी..फिर वो हमें...एक दूसरे की..सारीबातें..बता देगा...चलो फिर से चाँद को अपना मोबाइल बनाते हैं..और हाँ..फिर कभी ये मत कहना कि हमारी लव स्टोरी सबसे अलग नहीं है...हम सबसे अलग हैं..ये हमारा यूनिक तरीका है...तुम्हारे कॉपी राइट की तरह..." कहकर व्याख्या ने सन्दर्भ के होठों पे एक छोटी सी किश्त अदा कर दी।

'भविष्य की खाली प्याली भरने की भागदौड़ के बीच कभी कभी अतीत की छलकती प्याली से एक चुस्की लगा लिया करो, ठन्डे वर्तमान में नई गर्माहट आ जायेगी'

-तुषारापात®™

नैनीताल के नैन

"फिर से.....फ़ोटो देखने लगीं.....तुम को भी न...पहले तो बहुत सारी फ़ोटो क्लिक करवानी होतीं हैं.....फिर तुरंत...और बार बार देखनी भी होती हैं.... अरे...अभी तो यहीं हो........इस व्यू को...थोड़ा और एन्जॉय कर लो....देखो अपनी बालकनी से पूरा माल रोड...और..पूरी नैनी झील....कितनी बढ़िया दिख रही है...अब चलते चलते इतने महंगे रूम का... फुल पैसा तो वसूल लीजिये...लेक्चरर साहिबा" सन्दर्भ ने मोबाइल में झांकती व्याख्या को अपनी बाँहों में लेते हुए प्यार से कहा

"अरे...नहीं..फोटो नहीं देख रही..वो व्हाट्सएप पे..समीक्षा को अपनीे साथ वाली ..एक दो फोटोज शेयर की हैं...जानते हो..उसने क्या कहा.....उसने कहा जीजू को देख के ऐसा लग रहा है कि..जैसे...किसी सोलह साल की प्यारी लड़की के साथ.....कोई बत्तीस साल के अंकल घूम रहे हैं...ही ही ही ही" व्याख्या ने खिखिलाते हुए मीठी सी शरारत की

" इस सा....ली... समीक्षा की तो...वैसे...जरा...एक मिनट..उसे थैंक यू बोल देना ...मेरी उम्र चार पाँच साल कम करने के लिए" सन्दर्भ ने किसी नौजवान की तरह स्टाइल मारते हुए कहा

"और राईटर बाबू...रही बात पैसे वसूलने की तो....किसने कहा था इतना महंगा होटल करने को.....7500 एक दिन का...बाप.रे.. इतने पैसे में तो... हमारा एक महीने का राशन आ जाता" अचानक ख्वाबों की प्रेमिका से व्याख्या एक मध्यम वर्गीय गृहणी में बदल गई

"अरे यार...हम मिडिल क्लास लोग...पूरे साल पैसे बचा बचा के..अपनी कितनी इच्छाएँ मार मार कर...कुछ पैसे जोड़ कर...दो चार दिन हिल स्टेशन पे रहने आते हैं ...बिलकुल रईसों की तरह जीने को.....इतनी हाइट पे आकर...अपनी लो लाइफ से ...कुछ दिनों के लिए ही सही..मुक्त तो हो जाते हैं.....देखो बिलकुल इस चिप्स के पैकेट की हवा की तरह..ये भी मुक्त हो जाना चाहती है" सन्दर्भ ने हद से ज्यादा फूले हुए चिप्स के पैकेट को दिखाते हुए कहा

" हुँ...कैसे रईस...वो ऑन्टी को देखा था..इतना शो-ऑफ कर रहीं थीं... यहाँ नैनीताल में भी आकर...मैडम होटल में AC रूम मांग रहीं थीं..ही ही ही ही" व्याख्या ने चिप्स का पैकेट फाड़ते हुए कहा

"वैसे..राइटर बाबू..तुम्हे तो...बहुत से थॉट्स आये होंगे..यहाँ पहाड़ों पे आकर.." व्याख्या ने चिप्स का एक टुकड़ा सन्दर्भ को खिलाते हुए पूछा

" सच कहूँ...एक भी थॉट नहीं आया.....मैं बस पूरी तरह तुममे खोया रहा...तुम्हे देखता रहा..छोटी छोटी कितनी बातें ...तुम्हे बड़ी बड़ी खुशियाँ दे जाती हैं....और एक मैं था ...जो सोचता रहा कि बस जरा जिंदगी को सेट कर लूँ ...फिर एन्जॉय करेंगे...इसी चक्कर में अपने सुनहरे पाँच साल बेकार कर दिए...थैंक यू सो मच..जिद करके यहाँ लाने के लिए..वरना जिंदगी बनाते बनाते...मैं अपनी..इस..जिंदगी को ही भूल गया था" सन्दर्भ ने उसकी ठोड़ी को छूते हुए कहा

" सन्दर्भ...तुम्हारी बाँहों में बाहें डाल कर ...पिटे हुए चने खाते खाते...मुझे टहलना पसंद है ...वो चाहे माल रोड हो या फिर हजरतगंज की रोड...कोई फर्क नहीं पड़ता"

सन्दर्भ ने उसकी आँखों में खुद को खोने से बचाते हुए जल्दी से कहा" लेक्चरर साहिबा..चलो निकलना है अब..कार तैयार है..9 नंबर दबा के ..रूम सर्विस से...ग्रीन टी और टोस्ट मांगने के दिन खत्म हुए"

दोनों कार में अपना सामान रखवाने लगे...कार में एक गाना बज रहा है...आप लोगों ने सुना क्या?..नहीं ? अपने अपने मोबाइल कान के पास ले जाइये...और ध्यान से सुनिए :

"आने..वाला..पल...जाने वाला है....हो सके तो इसमें..जिंदगी..बिता लो..पल ये भी जाने वाला है..........................................................."

-तुषारापात®™

फादर्स डे

"तुम भी न..सन्दर्भ...बस...कमाल ही करते हो !...इतना महंगा स्कूल शूज...कोई बच्चे को दिलवाता है क्या ?.....इतनी महंगाई ...और 1350 का जूता..वो भी बच्चे का...जब बाटा में...399 में मिल रहा था तो... निष्कर्ष को वही दिलाया जा सकता था न..पर नहीं......तुम उसे बिगाड़ रहे हो" व्याख्या ने हलके गुस्से में और एक ही सांस में अपनी सारी बात कही

"कोई नहीं...यार..कल father's day था...मन किया...बच्चे को दिलवा दिया" सन्दर्भ ने कपड़े चेंज करते करते कहा

"अरे...father's day था...तो पापा जी के लिए कोई गिफ्ट लेते...और उन्हें भिजवाते...निष्कर्ष तो तुम्हारा बेटा है...तुम्हारा तो न...लिख लिख के...दिमाग ख़राब हो चुका है ...उल्टा सीधा सोचते हो ...और उल्टा पुल्टा काम करते हो "

" व्याख्या... तुम्हे पता है...मैं एक सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल में पढ़ता था...वहाँ 100 पेज की...कार्डबोर्ड के कवर वाली कॉपियाँ चलती थीं...पर पापा मुझे वो न दिला के...विद आउट कवर वाली कॉपीज दिलाते थे...और...उन कॉपीज को...पिछले साल की कॉपियों के दफ़्ती वाले कवर में सिल देते थे...और एक बार..जब मेरा जूता बिलकुल ही खराब हो गया था...तो बुआ जी की बेटी का...एक पुराना जूता ले आये थे..वो गर्ल्स का होता है न..स्कूल वाला...थोड़ा लंबा सा शूज जिसमे बीच में..एक स्ट्रैप होता है..उसका स्ट्रैप काट के..मुझे पहना के स्कूल भेज दिया था...मेरे सारे दोस्त मेरा बहुत मजाक उड़ाते थे...मुझे बहुत बुरा लगता था...पर डर के मारेे.. मैं पापा से कुछ कह नहीं पाता था...और माँ से झगड़ता था जिद करता था...माँ मुझे किसी तरह बहला देती थी..पर पापा के लिए मेरे मन में एक नफरत सी बैठ गई थी" सन्दर्भ जैसे अतीत में खो सा गया और बड़बड़ाता गया

"ओह्ह्ह...पर सन्दर्भ...तुम जानते ही हो उस वक्त...तुम्हारे घर के हालात बहुत खराब थे....और पापाजी....किसी तरह पूरे घर का..खर्च किसी तरह चला पाते थे....पूरी तरह से कर्ज में डूबे हुए थे"व्याख्या ने अपनी सास से सुनी सच्चाई बयान की

"हाँ..जानता हूँ...ये बात मुझे कुछ दिनों के बाद...बहुतअच्छी तरह समझ भी आ गई थी..मैं समझ गया था कि...पापा चाहते हुए भी..मुझे वो सब नहीं दिला पा रहे थे...कितनी पीड़ा होती होगी उन्हें उस वक्त...अपने बच्चे के लिए कुछ न कर पाने पर....कितने हताश...और खुद को कितना ...कितना...कमजोर समझते होंगे वो...न जाने कितने लोगों के सामने....... हाथ फैलाना पड़ा होगा उन्हें...... आज एक बच्चे का पापा होकर मैं उन्हें बेहतर समझ सकता हूँ...निष्कर्ष को स्कूल शूज दिलाते समय वही बात मुझे याद गई...और बस मैंने निष्कर्ष को...वो जूते दिला के..अपने पापा की उन अनगिनत इच्छाओँ में से एक को पूरा कर दिया....जो उन्होंने कभी मेरे लिए सोची तो होंगी...पर..अपनी..गरीबी के चलते कर नहीं पाये..उनकी उस समय की पीड़ा को मैंने महसूस किया...ये ही मेरा...अपने पापा को..इस फादर'स डे का गिफ्ट है।" सन्दर्भ अपनी भर आई आँखों को रोकते हुए बोला।

'हर सन्दर्भ चाहता है कि उसका निष्कर्ष बेहतर से बेहतर हो, अगर कभी आपके माता पिता आपके अनुरूप कोई काम न कर पाये हों तो उनके प्रति घृणा नहीं उनकी उस मज़बूरी का सम्मान करियेगा और हाँ mother's day, father's day मनाने का यही मतलब होता है न ?

-तुषारापात®™

आलोचना या निंदा

"क्या हुआ व्याख्या बेटा ?......अरे....तुम रो रही हो क्या......क्या हुआ बहु ? ...सन्दर्भ से कुछ झगड़ा हुआ.....?" आने तो दो उसे ऑफिस से......ठीक करता हूँ उसे" संवाद ने व्याख्या से कहा

"नहीं पापा जी ....कुछ नहीं हुआ सब ठीक है " व्याख्या ने जल्दी से अपने दुपट्टे से अपने आंसू पोछे और जबरन मुस्कुराते हुए ससुर जी से बोली

"तो क्या...आलोचना जी ने तुमसे कुछ कहा.?" संवाद ने फिर पूछा

"नहीं पापा जी ....मम्मी जी तो बहुत अच्छी हैं...वो तो मुझे बहुत प्यार करती हैं...आप..न..परेशान मत होइए...मैं बिलकुल ठीक हूँ" व्याख्या ने खुद को समेटने की कोशिश की

"ठीक है बेटा....कोई भी परेशानी हो...तो...तुम मुझसे बेहिचक शेयर कर सकती हो..चलो अब मैं अपने रूम में जाता हूँ" कहकर संवाद आलोचना के पास अपने कमरे में आ जाता है और आलोचना से कहा

"आलोचना जी!...अभी जब मैं आया तो....लॉबी में..व्याख्या बहुत उदास बैठी थी..आपसे कुछ बात हुई क्या?"

आलोचना पलंग पे उठ के बैठ गई और बोली " देखिये जी.....अरे अब क्या बताऊँ..हम लोगों को यहाँ...सन्दर्भ के यहाँ आये ...हफ्ता भर हो चूका है...और एक भी दिन ऐसा नहीं गया..जब साथ आई आपकी ...निंदा बुआ जी ने ...व्याख्या के किसी न किसी काम में ..उसकी गलती निकाल के मीन मेंख न निकाला हो...आज भी उससे बोलीं कि तुम्हारी जगह...अगर सन्दर्भ ने उनकी बताई लड़की से ..शादी की होती तो आज इस घर में....संवाद के पुरखों के संस्कार तो होते.....और भी अनाप शनाप जो मन में आया बोलती गईं ......मैं तो कहती हूँ कि...आप बेकार में इन्हें साथ ले आये..खैर मैं अभी जा के व्याख्या से बात करती हूँ......बेचारी को तो परेशान कर दिया है इन्होंने"

"हाँ ...ये निंदा बुआ की बहुत बुरी आदत है...जिसके पीछे पड़ जाएँगी बस जीना हराम कर देती हैं..खैर मैं उनसे तो बाद में बात करूँगा..पर तुम्हें तो व्याख्या से बात करनी चाहिए थी...आखिर तुम उसकी सास हो...तुम्हारी बातों से उसे भी हिम्मत रहती न " संवाद ने अपनी सलाह दी

"अरे मैं तो बात करने जाने वाली ही थी ....सोचा था ..कि......जरा..निंदा बुआ..अपनी दोपहर की नींद में चलीं तो जायें...चलो मैं उससे बात करके आती हूँ...आप आराम करिये ....." आलोचना ने सफाई पेश की

"व्याख्या बेटी! आ जाऊँ मैं?" आलोचना ने व्याख्या के कमरे के दरवाजे से ही पूछा

"ओह्ह मम्मी जी....आइये न...आपको कोई पूछने की जरूरत है क्या" व्याख्या ने जल्दी से उठकर पलंग पे उनके लिए जगह बनाई

" देख बहु....मुझे पता है..कि...तुम निंदा बुआ की बात से बहुत अपसेट हो पर....मैं बस इतना ही कहना चाहती हूँ...बिलकुल भी परेशान मत हो...कोई कुछ भी बोले ...मुझे तो पता है न....कि तुमने कितनी अच्छी तरह से ..इस घर को संभाला है.....और बेटा ...मैंने तुम्हे आज तक ...जब भी किसी बात में टोका ..या ...कुछ कहा होगा तो बस... इसलिए कि उससे तुम्हारा काम और अच्छा हो सके..कोई बाहर वाला...कोई कमी न निकाल सके" आलोचना ने व्याख्या का हाथ पकड़ के कहा

"मैं जानती हूँ मम्मी जी....आपसे बहुत कुछ सीखने को मिला है मुझे ....बहुत सुधार आया है मुझमे...आप जैसी सासू माँ किस्मत से मिलती हैं"
व्याख्या की आँखों में भावुकता की नमी आने लगी

"अरे किस्मत वाली तो मैं हूँ....जो मुझे तुझ जैसी इतनी समझदार बहु मिली है ...छोड़ अब ...निंदा बुआ की बातों को दिल से मत लगा..वो तो कुछ भी बोलती रहती हैं...वो तो मुझे भी नहीं छोड़ती..तूने तो देखा ही है...
बस बेटा यूँ ही हँसते मुस्कुराते रहा कर...मैं हूँ न साथ में तेरे...तेरे हर डिसीजन में...और वैसे भी जब व्याख्या और आलोचना एक साथ हैं तो निंदा क्या कर सकती है" आलोचना की ये बात सुनते ही व्याख्या की आँखों के बाँध टूट गए और वो अपनी सास के गले लग गई दोनों सास बहु नम आँखों के साथ न जाने कितनी देर एक दूसरे को गले लगाये रहीं।

' आलोचना सुधार की दिशा दिखाती है जबकि निंदा उपहास की। व्याख्या और आलोचना के बीच स्वस्थ संवाद होना चाहिए या ये कहना चाहूँगा किसी भी रिश्ते में चाहे वो सास बहु का हो या कोई भी रिश्ता हो समस्या तब ही आती है जब संवाद टूट जाता है और तभी निंदा हावी होने लगती है'

-तुषारपात®™

प्रस्तावना का प्रवेश : सन्दर्भ संग व्याख्या

"मैं अब तुम्हें अच्छी नहीं लगती न..?" व्याख्या ने सन्दर्भ की तरफ करवट लेते हुए पूछा

सन्दर्भ समझ गया कि फिर से वही पुराना हमला होने वाला है "अरे...जान ऐसा क्यों कह रही हो.. क्या हुआ.?"

"कुछ नहीं बस यूँ ही पुछा....तुमने जवाब नहीं दिया..?"

"अरे यार....तुम बहुत अच्छी लगती हो...बहुत बहुत प्यार करता हूँ तुम्हें ...और ये भी कोई बार बार कहने की बात है..." सन्दर्भ ने बहुत सावधानी से जवाब दिया की कहीं ये महीने दो महीने में एक बार फूटने वाला बम आज आग न पकड़ ले

"और क्या....पहले तुम बात बात में...मुझ जताते रहते थे..छोटे छोटे से सरप्राइज दिया करते थे...पर अब सब....." व्याख्या ने एक गहरी सी सांस छोड़ी

"अभी भी उतना है...(फिर तुरंत सोचता है नहीं सिर्फ इससे काम नहीं चलेगा तो जल्दी से आगे बोलता है) इंफैक्ट अब तो पहले से भी बहुत ज्यादा करता हूँ....पर क्या करूँ ऑफिस का काम .....और लिखने में ही इतना थक जाता हूँ कि..."

व्याख्या उसकी बात काटते हुए बोली "नहीं मैं जानती हूँ अब मैं पहले जैसी नहीं रही...मोटी हो गयी हूँ...सारा चार्म भी खो गया है कहीं ..बस एक घरेलू भद्दी आंटी सी हो गई हूँ..."

"अरे तो भाई व्याख्या तो लंबी चौड़ी ही अच्छी होती है" संदर्भ ने बात को थोड़ा हल्का करने के लिए मजाक किया

हूँ...तो तुम भी यही कह रहे हो...कि मैं मोटी हूँ?.....अच्छा ये बताओ....वो सामने वाले घर में जो नई किरायेदार आई है उसे देखा है?"

"कौन वो प्रस्तावना की बात कर रही हो क्या?"....हाँ ...देखा है ..पर उससे इस बात का क्या मतलब ?"

"ओह्ह्ह ..मतलब नाम भी जानते हो उसका....क्या बात है वाह...बहुत बढ़िया .....हाँ हाँ खूब देखा करो उसे...."

"अरे यार...ये क्या बात हुई चलो अब सो जाओ...सुबह जल्दी उठना है" सन्दर्भ अब झल्ला गया और टेबल लैंप बंद करके दूसरी तरफ करवट ले के सोने लगा

उधर व्याख्या सोचती रही....प्रस्तावना कितनी फिट है,छरहरी ,मॉडर्न नवयौवना है फिगर तो ऐसा है की कोई मर्द ताकता रह जाये और ऊपर से फिटिंग के चुस्त मोडर्न ड्रेस उफ़....कभी वो भी तो ऐसी ही थी...तभी तो सन्दर्भ उसपे मर मिटा था...पर अब दो बच्चों के बाद कैसी बेकार सी हो गई है...सन्दर्भ अब उसपे ध्यान तक नहीं देता..और ....आज तो उसने उसे प्रस्तावना को गौर से देखते भी देख लिया था ...हाँ देखेगा ही...इतने छोटे और टाइट कपड़े जो पहनती है ..सारे मर्द एक जैसे होते हैं ......... इसी वजह से उसका मन आज कहीं नहीं लग रहा ....सन्दर्भ उससे जरा सी बात कर लेता तो मन हल्का हो जाता है...पर वो भी मुंह फेर के सो गया

"सन्दर्भ...काश तुम समझ पाते कि ...मैं भी कभी प्रस्तावना थी पर तुम्हारे लिए ...अपने घर अपने बच्चों के लिए धीरे धीरे मैं व्याख्या बन गई....और अपने को पूरा बदलने के बाद आज भी...व्याख्या जानी जाती है सन्दर्भ के नाम से....किसकी व्याख्या है...सन्दर्भ देखो...और तुम भाग रहे हो नई नवेली प्रस्तावना के लिए..... और ऐसे ही सोचती हुई.. तकिये को नम करते करते कब वो...सो गई उसे खुद पता नहीं चला।

'प्रस्तावना' चाहे जितनी अच्छी हो पर 'व्याख्या' ही 'सन्दर्भ' को पूर्ण करती है और उससे ही निष्कर्ष प्राप्त होता है ।

-तुषारापात®™

शेयरिंग: संदर्भ संग व्याख्या

"क्या यार..अभी अभी तो ऑफिस से आया हूँ ...और तुम कह रही हो मंदिर चलो ....घर में ही हनुमान जी के हाथ जोड़ लो न" सन्दर्भ ने झल्लाते हुए कहा

"अरे ...बस10 मिनट ही तो लगेंगे..मंगल है आज दर्शन भी कर लेंगे..और....और बच्चों की छोटी सी आउटिंग भी हो जायेगी....चलो फटाफट नहा लो..मैं चाय बनाती हूँ" व्याख्या उसे बहलाके बच्चों को तैयार करने लगी

" निष्कर्ष बेटा...टीवी बंद कीजिये...बहुत हो गया डोरेमॉन..अब हम मंदिर चलेंगे"

"मम्मा ...क्या वहाँ मुझे लड्डू मिलेगा" निष्कर्ष ने मासूमियत से पुछा

व्याख्या ने हँसते हुए "हाँ वहाँ खूब सारे लड्डू मिलेंगे"

"पर मम्मा...मैं टिपनी को अपने लड्डू नहीं दूंगा" निष्कर्ष ने घोषणा की

"नो बेटा...टिपण्णी आपको छोटी सिस्टर है न ..और आपको तो पता है सबके साथ शेयर करके खाने से ..इतना सारा प्यार बढ़ता है" व्याख्या ने अपने दोनों हाथ फैला के उसे दिखाया

"ओके मम्मा...पर मैं सिर्फ एक लड्डू शेयर करूँगा...बाकी सब मेरे" निष्कर्ष ने बहुत बड़ा सा दिल दिखाते हुए कहा

(उसके बाद चाय शाय पीकर ...संदर्भ और व्याख्या, अपने दोनों बच्चों निष्कर्ष और टिपण्णी को लेकर मंदिर पहुंचे और प्रसाद चढ़ा के लौट रहे थे कि मंदिर के बाहर बैठे छोटे छोटे बच्चों ने उन्हें घेर लिया और उनसे प्रसाद और पैसे मांगने लगे)

"ओ अंकल जी.....आंटी जी...कुछ खिला दो बहुत भूख लगी है"

(निष्कर्ष ने अपने हाथ में पकड़े प्रसाद के डिब्बे से सारे लड्डू उन सभी बच्चों को दे दिए फिर जब कार में सब बैठ गए तो व्याख्या ने उससे पुछा)
"निष्कर्ष...बेटा..आप तो कह रहे थे आप किसी को लड्डू नहीं देंगे फिर सारे के सारे क्यों दे दिए"

"मम्मा ...वो...हनुमैन तो...एक भी लड्डू नहीं खा रहे थे...तो फिर ...फिर...yellow कपड़े वाले अंकल ने ...हमारे आधे लड्डू क्यों ले लिए
...फिर आधे बचे लड्डू ..मैंने उन डर्टी किड्स को दे दिए ....वो बहुत हंगरी थे ...और मम्मा.....आपने ही सिखाया था..न...शेयर करने से प्यार बढ़ता है ।

निष्कर्ष के लिए माँ से बड़ा कोई संस्कार नहीं कोई मंदिर नहीं :)

तुषारापात®™

मंडे मॉर्निंग : सन्दर्भ संग व्याख्या

"उठो भी अब....सोती ही रहोगी क्या...चलो..अब जाग जाओ" चादर खींचते हुए सन्दर्भ ने फुसफुसाते हुए कहा

"हूँ....हूँ... सोने दो न ...कभी कभी तो कोई मंडे...छुट्टी का होता है" व्याख्या चादर से मुंह ढकते हुए आलस में डूबी आवाज में बोली

सन्दर्भ ने बड़े प्यार से चादर से निकली उसकी लटों में उंगलियाँ पिरोते हुए कहा "9 बज गए हैं...बदली छाई है...मौसम ने आज सूरज को भी छुट्टी दे दी है और मेरा चाँद मुंह छुपा के सो रहा है"

"हाँ...क्योंकि ....चाँद रात में निकलता है सुबह नहीं...और वैसे भी घर में पहले आदमी लोग ही उठते हैं औरते बाद में" व्याख्या ने उसे चिढ़ाया

"अरे...मैडम..ये कहाँ देख लिया..ये तो कहीं कह मत जाना..ऐसा कहीं नहीं होता"

"होता है..मेरे घर में ही ..पापा सबसे पहले उठते हैं..पूजा करते हैं...फिर मम्मी उठती हैं" व्याख्या करवट बदल के कहती है

"अच्छा अच्छा ..होता होगा..इतनी रोमैन्टिक सुबह...मैं तुम्हारे पापा को याद नहीं करना चाहता" इस बार सन्दर्भ ने निशाना लगाया

"राइटर बाबू ...तुम कभी मेरे पापा जैसे बन भी नहीं सकते......अच्छा पहले मुझे तुम्हारे हाथ की चाय पीनी है...बना लाओ न प्लीज" व्याख्या ने दुलार दिखाते हुए चादर को ढके ढके ही कहा

"अच्छा जिससे तुम्हे और टाइम मिल जाओ पसरे रहने का...ठीक है बना के लाता हूँ...पर उठ के बैठो..मैं यूँ गया और यूँ आया"

"हूँ...हूँ...जाओ तो पहले"

कुछ देर बाद सन्दर्भ चाय बेड के साइड टेबल पे रखते हुए उसे फिर जगाता है "लेक्चरर साहिबा....प्याली में गर्मागर्म इश्किया चाय ....तुम्हारे शक्करी होंठ छूने को बेताब है"

व्याख्या भावुक सी हो जाती है "सन्दर्भ जानते हो...तुम्हारी तीखी तीखी कोहनी की चुभन से....जब तुम मुझे उठाते हो तो..तो...सुबह और मीठी हो जाती है....." फिर आवाज़ कुछ यूँ बदलती है उसकी जिसे सन्दर्भ बहुत अच्छी तरह से जानता है "आ जाओ......फिर से सो जाते हैं...मंडे की छुट्टी रोज रोज नहीं मिला करती " कहकर उसने उसे भी अपनी चादर में खींच लिया

और फिर सन्दर्भ व्याख्या में विस्तारित हो गया।
-तुषारापात®™