Friday 19 August 2016

एक करोड़ की साड़ी

"ये ले छुटकी तेरी राखी का तोहफा...देख कितनी सुन्दर साड़ी है..साड़ी वाड़ी पहना कर..निक्कर पहन के तेरा इधर उधर घूमना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं आता" अजय ने राखी बंधवाने के बाद अपने बैग से साड़ी निकालकर उसे देते हुए कहा

"मुक्केबाजी की प्रैक्टिस क्या..साड़ी पहन के होती है...आप भी न भइया...बस कमाल हो...वाह भइया साड़ी तो बहुत ही अच्छी है..." कहकर विजया ने साड़ी खोल के खुद पे लगाई और शीशे में अलट पलट के देखने लगी

अजय अभिमान से बोला "अच्छी क्यों नहीं होगी...पूरे चार हजार की है" फिर उसने पास ही खड़े अपने छोटे भाई अमर को देखते हुए कहा "इन लाट साहब को कितनी बार कहा...मेरे साथ सूरत चलें...अपनी तरह हीरे का काम सिखा दूँगा...पर नहीं इनको यहीं इस कस्बे में सर फोड़ना है...चल तू इसे राखी बाँध मैं जाकर जरा अम्मा के पास बैठता हूँ"

"सब अगर सूरत चले गए तो माधव पुर का क्या होगा...और मुझे छुटकी को स्टेट लेवल से आगे की एक बढ़िया मुक्केबाज भी बनाना है..इसे ओलम्पिक में भेजना है" अमर ने बुदबुदाते हुए कहा,अजय उसकी बात सुन दोनों को देख एक व्यंग्यतामक मुस्कान छोड़ता है और चला जाता है
विजया अमर को राखी बाँधती है और अपने हाथ से सिवइयाँ खिलाती है अमर अपने हाथ में लिया चमकीली पन्नी का एक पैकेट पीछे छुपाने लगता है विजया उसे सकुचाते हुए देख लेती है और उससे कहती है "भइया क्या छुपा रहे हो"

"कुछ नहीं..अ... वो...मैं...तेरे लिए..." वो आँखों में शर्मिन्दिगी लिए कुछ बोल नहीं पाता,विजया उसके हाथ से पैकेट छीन लेती है और खोलती है उसमें एक बहुत साधारण सी साड़ी होती है वो फिर भी साड़ी की खूब तारीफ करती है

"मैं बस...आज...यही ला सका....ढाई सौ की है...." अमर की आवाज रुंधी हुई थी "लेकिन बस जरा मेरा काम जम जाने दे...छुटकी...देखना एक दिन मैं तेरे लिए एक करोड़ की साड़ी लाऊँगा... पूरे माधवपुर क्या सूरत के किसी रईस ने भी वैसी साड़ी न देखी होगी कभी" दोनों भाई बहन की आँखे भीग गईं

दिन बीतते जाते हैं अमर का काम बस ठीक ठाक ही चल रहा है वो चाहे खुद आधा पेट रहे पर अपनी छुटकी को कोई कमी नहीं होने देता विजया की सेहत और खानपान की चीजें,बॉक्सिंग के सारे सामान,कोच के पैसे आना जाना आदि आदि उसकी जितनी भी जरूरतें होती सब पूरी करता उसका हौसला बढ़ाता और पैसे कमाने के लिए दिन रात खटता रहता उसकी तबियत खराब रहने लगी पर वो विजया के सामने कुछ जाहिर नहीं होने देता था

आखिरकार विजया ओलम्पिक के लिये चुन ली जाती है और विदेश में जहाँ ओलम्पिक का आयोजन होता है चली जाती है इधर अमर को डॉक्टर बताते हैं कि उसे कैंसर है वो भी अंतिम अवस्था में और वो उसे तुरंत सूरत के बड़े अस्पताल जाने को कहते हैं पर पैसे के अभाव में जा नहीं पाता और एक दिन इस संसार से विदा हो जाता है

विजया बॉक्सिंग मुकाबले के फाइनल में पहुँच जाती है अगले दिन उसे स्वर्ण पदक के लिए कोरिया की बॉक्सर से लड़ना है उसे अमर का आखिरी संदेश मिलता है "छुटकी तुझे फाइनल में जीतना ही होगा मेरे लिए नहीं...बड़ी बिंदी वाली उस महिला के लिए जिसने कहा था कि शक्ल सूरत तो इन जैसी लड़कियो की कुछ खास होती नहीं..ओलम्पिक में इसलिए जाती हैं कि चड्ढी पहनकर उछलती कूदती टीवी पे दिखाई दें और अपने गाँव में हीरोइन बन जाएं....छुटकी ये जन्म तो चला गया एक करोड़ की साड़ी अगले जनम दिलाऊँगा...तू बस सोना जीत के आना"

विजया अमर की मौत से टूट के रह जाती है पर किसी तरह खुद को समेट के वो फाइनल लड़ती है और जीतती है उसके गले में गोल्ड मैडल है उसकी आँखों के सामने तिरंगा ऊपर उठाया जा रहा है उसे लग रहा है जैसे उसके अमर भइया तिरंगे की डोर खींच रहे हैं और तिरंगा सबसे ऊपर फहरा रहा है उसकी आँख से आंसू बहते ही जा रहे हैं

पूरे देश में विजया का डंका बज जाता है कुछ दिनों बाद एक नामी सोशल वर्क संस्था कैंसर मरीजों के उपचार के लिए धन इकट्ठा करने के उद्देश्य से देश के तमाम बड़े फ़िल्मी और खेल सितारों की चीजों की नीलामी करवाती है

"देवियों और सज्जनों..अब पेश है ओलम्पिक गोल्ड मैडल विनर बॉक्सर विजया की समाज कल्याण के इस कार्य के लिए दी गई अपनी सबसे अनमोल साड़ी जो उनके स्वर्गीय भाई ने उन्हें रक्षाबंधन पे दी थी"

-तुषारापात®™