Friday 20 January 2017

वो रात कुछ अजीब थी

वो रात कुछ अजीब थी ये रात भी अजीब है
वो कल भी पास पास था वो आज भी करीब है

मेरा नाम बुलाए वो या मैं उसे पुकार लूँ
नजर में उठा लूँ या नजर मैं उतार दूँ
मैं सोचती थी मुझसे निगाह चुरा रहा है वो
न जाने क्यों लगा मुझे दिल बहला रहा है वो

वो रात कुछ अजीब थी.......................

कई जवाब हैं मेरे न उसका इक सवाल था
मेरी आँखों में था पर बाँहों को मलाल था
मैं जानती हूँ अपनी निगाह जमा रहा है वो
धीरे धीरे खामोशी से दिल मिला रहा है वो

वो रात कुछ अजीब थी.......................

धधकती आग है कहीं मिली हुई सी साँस से
गीली भाप भी है मुंदी मुंदी सी आँख में
मैं मानती हूँ कि सुहागा सुलगा रहा है वो
यही ख्याल है मुझे कि माँग सजा रहा है वो

वो रात कुछ अजीब थी ये रात भी अजीब है
वो कल भी पास पास था वो आज भी करीब है.......

#वो_शाम_कुछ _अजीब_थी(फीमेल वर्जन)
#तुषारापात®™

Sunday 15 January 2017

चुनाव: धर्म और जाति मतदान का आधार

एक बार फिर से देश पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव देखने जा रहा है इसमें राष्ट्र के सबसे महत्वपूर्ण राज्यों में से एक उत्तर प्रदेश भी है जिसमें स्पष्ट बहुमत वाली सरकार अपने कार्यकाल को पूर्ण कर रही है।

जब भी चुनाव होता है तो इन दो बातों पर बहुत प्रमुखता से विचार किया जाने लगता है कि क्या चुनाव में जाति और धर्म मतदान का आधार हैं क्या समाज की अन्य समस्याएं नहीं हैं जो मतदान का आधार हों या क्या जाति और धर्म से अधिक महत्वपूर्ण मुद्दे जैसे कि विकास,गरीबी बेरोजगारी इत्यादि देश अथवा राज्यों में हैं ही नहीं।

बुद्धिजीवियों के बीच बड़ी बड़ी और बहुत लंबी चलने वाली परिचर्चाएं होती हैं जो कि प्रायः इस आधार की आलोचना करती हैं और सुधार के कई रास्ते भी सुझातीं हैं पर ये सुधार के मार्ग बहुत ही आदर्शवादी होते हैं व्यवहार से प्रायः इनका उतना नाता नहीं होता, इन्हीं परिचर्चाओं के आधार पर साधारण व्यक्ति भी कभी सरकार को तो कभी नेताओं को थोड़ा थोड़ा कोस लेते हैं और लोकतंत्र में अपना अपना पात्र निभाने की औपचारिकता पूरी कर देते हैं।

धर्म और जाति को मतदान के आधार के रूप में समझने के लिए हमें बहुत पीछे जाने की आवश्यकता पड़ेगी जहाँ से हम जान सकेंगे कि राजनीति में इन दोनों तत्वों का समावेश आखिर इतना प्रबल क्यों है राजनीति का उदय कहाँ से हुआ इसी में इसका उत्तर छिपा है। प्राचीन काल में मानव खानाबदोश था वो एक स्थान पे बस्ती बना के नहीं रहता था उस अवस्था में भी मानव अपने जैसे कई साथियों के साथ इधर उधर भ्रमण करता रहता था जिन्हें खानाबदोश कबीलों के नाम से आज हम जानते हैं अब उस कबीले की मूलभूत आवश्यकताओं जैसे भोजन,जीवन रक्षा आदि के लिए एक नेता की आवश्यकता महसूस की गई जिसे कबीले का सरदार कहा जाने लगा वह अपने कबीले के लिए कई सारे नियमों को बनाने वाला और उनका पालन कराने वाला होने लगा और यहीं से मानवीय सभ्यता में राजनीति का उद्भव हुआ,प्रत्येक कबीले का अपना विशिष्ट पहचान चिन्ह अथवा ध्वज भी कुछ समय के उपरांत अस्तित्व में आया और इसी प्रकार अन्य क़बीलों के मध्य संसाधनों इत्यादि के अधिकार के लिए आपसी संघर्ष भी होना आम बात थी, कहने का मतलब ये है कि प्रत्येक कबीला अपनी मान्यताओं,अपनी आवश्यकताओं और अपने हितों की रक्षा करता था और उनका विस्तार चाहता था न कि समूल मानव जाति का।

धीरे धीरे समय के साथ नदियों के किनारे मानव बसता गया और तात्कालिक समाज पहले से कुछ जटिल आकार लेता गया कई कबीले प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता के कारण आपसी संघर्षों को छोड़कर एक साथ एक विशाल भूभाग पर निवास करने लगे वो ऊपर से कई मोटी बातों,मान्यताओं और आर्थिक राजनैतिक रूप में तो एक रहे पर छोटे बड़े प्रत्येक कबीले ने अपने रीति रिवाज और सामाजिक मान्यताओं को भी बनाये रखा यहीं से जाति और धर्म का जन्म हुआ जो कि आज भी भारतीय समाज में महत्वपूर्ण रूप से प्रभावी है। कहने का तात्पर्य ये है कि जाति,धर्म आदि समाज के वर्गीकरण के तत्व थे न कि विभाजन के उस समय आज के जैसे निम्न,मध्यम,उच्च वर्गीय या ग्रामीण शहरी आदि आदि वर्गीकरण उतने स्पष्ट रूप में नहीं थे। आज सामाजिक सरंचना बहुत अधिक जटिल है विशाल जनसँख्या है और संसाधन सीमित हैं।

अब अगर आज कोई दल किसी धर्म विशेष या जाति विशेष पर चुनाव लड़ता है या इन दोनों सामाजिक प्रवृत्तियों को धयान में रखकर अपनी नीतियाँ बनाता है तो इसमें गलत क्या है आखिर ये आदि काल से समाज में व्याप्त प्रवृत्ति ही है जो उसे ऐसा करने का आग्रह करती है यदि आज भी समाज में धर्म और जाति प्रभावी कारक है तो इसका प्रभाव राजनीति में भी दिखेगा ही,जाति या धर्म की राजनीति के पीछे मुख्य उद्देश्य क्या है ये बात सबसे महत्वपूर्ण है यदि कोई दल किसी धर्म विशेष या समाज के ख़ास वर्ग के लिए संघर्ष कर रहा है तो इसे बुरी नजर से कैसे देखा जा सकता है प्रत्येक मानव खुद को फिर अपने लोगों को सत्ता के शिखर पर देखना चाहता है ये उसका मूल स्वभाव है और इसी प्रवृत्ति से समाज भी संचालित होता है। अब अगर आप इसे पश्चिमी देशों से तुलना करके देखेंगे तो ये सही नहीं होगा वहाँ का सामाजिक ढाँचा यहाँ से बहुत भिन्न है और वहाँ विकास कार्य आरम्भ हुए कई शताब्दियाँ बीत चुकी हैं जबकि भारतीय लोकतंत्र अभी 70 बरस का भी नहीं हुआ है अभी भारतीय समाज और भारतीय राजनीति संक्रमण के दौर में है धीरे धीरे ये अपने आदर्श स्वरुप को प्राप्त कर सकेगी अगर ये योजनाबद्ध तरीके से हुआ तो।

आप समाज को किसी न किसी रूप में वर्गीकृत तो करेंगे ही चलिए जाति हटा दीजिये धर्म हटा दीजिये इसके अलावा जितने वर्गीकरण आजके समय में संभव हैं उन्हें लागू कीजिये उसके बाद क्या आप कह सकते हैं कि चुनाव बाद बनने वाली सरकारें अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगी। सभासद अपने वार्ड तक,विधायक अपने विधानसभा क्षेत्र तक सांसद अपने लोकसभा क्षेत्र तक सीमित है क्या एक विधायक दुसरे विधानसभा के विकास कार्यों के लिए संघर्ष करता दिखता है ठीक इसी तरह ये जाति की राजनीति है वो भी इसी तरह एक सीमित दायरे में है यदि एक जाति विशेष या धर्म विशेष के लोगों का कुछ आर्थिक और सामाजिक विकास हो जाता है तो उनकी कट्टरता का लोप होने लगता है और तब ही ये प्रवृत्ति धुंधली होगी अब कई लोग कहेंगे कि इससे तो एक ही वर्ग विशेष का उद्धार होगा तो मेरा कहना है ऐसा नहीं होता समाज एक चक्रीय व्यवस्था है एक का भला अंततः दूसरे का भी भला करता ही है। और आजके चुनाव में 50 प्रतिशत के आसपास लोग मताधिकार का प्रयोग करते हैं और उसमें भी 10 या 11 प्रतिशत मत प्राप्त करने वाला चुनाव जीतता है तो ये भी कहा जा सकता है कि जीता हुआ व्यक्ति उस क्षेत्र की 90 फ़ीसदी जनता की पसंद ही नहीं होता पर फिर भी वो पूरी जनता के प्रति उत्तरदायी तो होता ही है।

उत्तर प्रदेश में पिछले पाँच सालों से ऐसी पार्टी की सरकार रही जिसे एक धर्म विशेष और जाति विशेष के लोगों की हितों वाली पार्टी के तौर पे देखा जाता है पर क्या उसने सिर्फ सम्बंधित धर्म और जाति के लोगों के लिए ही काम किया और कोई विकास कार्य की ओर देखा ही नहीं तो ऐसा नहीं है प्रत्येक सरकार चाहे वो जिस भी दल की भी हो उसे हर हाल में विकास की ओर आना ही पड़ता है क्योंकि उसके बिना न समाज का भला होगा और न ही समाज के किसी वर्ग विशेष का,हाँ यहाँ उनकी नीयत क्या है इसका उल्लेख आगे किया गया है।

इस तरह की राजनीति में भी मुद्दे मुख्यतः वही रहते हैं जैसे गरीबी, बेरोजगारी,अशिक्षा और संसाधनों का अभाव इत्यादि इत्यादि बस इनका दायरा बहुत व्यापक न होकर सीमित हो जाता है और सम्पूर्ण जनता के लिए तो सरकार के पास न तो मानवीय संसाधन हैं और न ही आर्थिक संसाधन हैं,तो आवश्यकता यही है कि नियोजित विकास किया जाए उसके लिए अगर जाति या धर्म को आधार बनाया जाए तो भी इसमें कोई बुराई नहीं है और जिस देश में आरक्षण जैसी व्यवस्था चुनाव सहित अन्य क्षेत्रों में पहले से ही लागू हो वहाँ इन मुद्दों पे क्रंदन करना उचित नहीं लगता।

मुद्दे चाहे जाति आधारित हों या धर्म आधारित हों या चाहे विकास से जुड़े हों अगर नीयत नहीं होगी तो कोई भी लक्ष्य नहीं प्राप्त किया जा सकेगा बेईमानी भ्रष्टाचार के रहते प्रत्येक मुद्दा मात्र भावनात्मक शब्दों और लफ़्ज़ों का एक जाल होता है जिसमे आम आदमी फँसता है और छला जाता है सत्तारूढ़ दल के सत्ता बचाने के मुद्दे होते हैं और विपक्षी दलों के सत्ता पाने के मुद्दे होते हैं और सामाजिक आर्थिक विकास तो एक सतत प्रक्रिया के तौर पे चलते रहते हैं बस पार्टी विशेष की विचारधारा के अनुसार विकास की गति और दिशा बदलती रहती है।

तो श्मशान में उत्पन्न हुए क्षणिक वैराग्य की तरह के इस आदर्श कि धर्म या जाति आधारित मतदान गलत है,को छोड़कर हमें बस इतना विचार करना चाहिए कि प्रत्येक दल ने जो वादे किए थे उन्हें निभाया या नहीं या कितने प्रतिशत तक उन्हें निभाया यही एक सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है जिन वादों और बातों पे चुनाव लड़ा गया अगर सत्ता में आने के बाद उन वादों और कार्यों को पूर्ण किया गया तो विकास अवश्य ही होगा चाहे चुनाव में मुद्दे जाति आधारित रहें हो या धर्म आधारित हों या इनके आधार पर ही भले मतदान क्यों न हुआ हो तब भी इससे कोई विशेष अंतर नहीं पड़ेगा।

-तुषारापात®™

Wednesday 11 January 2017

विवेकानन्द

"क्या आपने ईश्वर को देखा है?"....पंचवटी में भीड़ से घिरे परमहंस को इस प्रश्न ने चौंका दिया, उस वाणी में कठोरता तो नहीं परन्तु दृढ़ता बहुत थी और जिसे परमहंस के आसपास बैठे लोगों ने उस नवयुवक की धृष्टता मान उनके बोलने से पहले ही उस नवयुवक से प्रश्न कर दिया "न कोई अभिवादन न नमस्कार..प्रथम प्रश्न वो भी इतना तीक्ष्ण...सीधे ठाकुर से दुस्साहस करने वाला तू है कौन?"

"प्रश्न कल्पित होता है..इसलिए प्रायः उसे दुस्साहस की संज्ञा दी जाती है...प्रश्न के उत्तर में प्रश्न ये बताता है कि उत्तर देने का साहस किसी में नहीं है" नरेंद्र ने सीधे परमहंस की आँखों में देखते हुए कहा।

उसके उत्तर से परमहंस का हृदय अपार आनन्द से भर उठा वो मीठे स्वर में बोले "हाँ मैं ईश्वर से ऐसे ही बात करता हूँ...जैसे कि तुमसे कर रहा हूँ...परन्तु काष्ठ को चुम्बकत्व का अनुभव नहीं होता... उसके लिए या तो भक्त को लौह होना पड़ेगा...या चुंबक..."

इस बार नरेंद्र ने पहले उन्हें प्रणाम किया और फिर बोला "परन्तु अब तक जितने भी गुरु मिले सब कहते हैं वो पारस हैं और मुझ भंगुर लौह को स्वर्ण बनाना चाहते हैं....स्वर्ण सबसे मूल्यवान धातु है और देवताओं को अति प्रिय है.."

"स्वर्ण की सुरक्षा लौह के विशाल संदूकों और तालों से ही की जाती है..देवताओं के स्वर्ण मुकुटों की रक्षा लौह के तीर करते हैं... गुरु में पारस तत्व नहीं चुम्बक्तव होना चाहिए...परन्तु ऐसा कि वो समीप में आए लौह को चुम्बक बना दे और अपने समान ध्रुव से उसके ध्रुव को छिटक दे..उसे शिष्य को खुद से चिपकाए नहीं रखना चाहिए" परमहंस उस विपरीत ध्रुवी नरेंद्र की ओर आकर्षित हो रहे थे।

नरेंद्र संतुष्ट हो चुका था उसने सादर निवेदन किया "क्या इस लौह को कुछ चुम्बकीय ऊर्जा प्राप्त हो सकेगी?"

"तू पहले से ही चुम्बक है नरेंद्र...बस तेरा ध्रुव मुझे अपने समान करना है...फिर तू मेरी पूरी विकर्षित ऊर्जा से गति पायेगा और इस संसार को उसका 'स्वामी' मिल जाएगा...जो अपने से विपरीत ध्रुव वाले चुंबकों को जोड़ जोड़ कर एक महा चुम्बक बनायेगा... इस पूर्व देश और इसकी मान्यताओं के ठीक विपरीत मान्यताओं वाले पश्चिमी देश तेरे आगे नतमस्तक होंगे" इतना कहकर परमहंस माँ काली के मंदिर की ओर देखकर मंद मंद मुस्कुराने लगे,माँ ने ठाकुर से कहा "गदाधर! तुझे अपना पुत्र दे रही हूँ..तू इसके विवेक जागृत कर और इस संसार को तर्क का आनन्द दे"

माँ के इस वाक्य को रामकृष्ण के अतिरिक्त कोई न सुन सका परन्तु उनके चरणों को पकड़े बैठे नरेंद्र को कुछ फुसफुसाहट सी अवश्य सुनाई दे गई।

#तुषारापात®™(स्वामी के चरणों में लिपटी धूल के रूप में)

Monday 9 January 2017

संडीला के लड्डू

"बालामऊ...हदोई...हदोई...बालामऊ" संडीला चौराहे पे बस जलपान इत्यादि के लिए रुकी थी और ड्राइवर का सहायक चिल्ला चिल्ला कर यात्रियों को बुला रहा था,हाथों में छोटी छोटी मटकियाँ पकड़े कई लड़के हर रुकी और रेंगती हुई बस के आगे पीछे लड्डू लड्डू की आवाजें लगा लगा के घूम रहे थे।

कुछ यात्री पंडित जी के ढाबे पे चाय समोसे में व्यस्त थे और ज्यादातर यात्री बस अड्डे पे बनी तमाम दुकानों में से संडीला के प्रसिद्ध लड्डुओं को पैक कराने की जल्दी में थे लेकिन विशाल, प्राइवेट बस के इन चालकों और कंडक्टरों को बहुत अच्छे से जानता था,जब तक ये ड्राइवर की गर्दन तक सवारियाँ नहीं ठूँस लेंगे तब तक बस हिलेगी भी नहीं,उसकी नई नवेली पत्नी ने उसकी जगह रोक रखी थी इसलिए वो निश्चिन्त था लेकिन लड्डू किस दुकान से पैक कराए इस उधेड़बुन में था।

"असली प्रसिद्ध ननकहु वर्मा के पौत्र की दुकान...प्राचीन व एक मात्र विश्वसनीय ननकहु वर्मा के पौत्र के लड्डू......सबसे पहले वाले ननकहु दद्दू....और यहाँ हैं उनके स्वादिष्ट लड्डू..." वो एक एक दुकान के बोर्ड को पढ़ पढ़ के बुदबुदाए जा रहा था और आगे बढ़ता जा रहा था,चौथी या शायद पाँचवी दुकान पे पहुँच के वो रुक गया देखा वहाँ भीड़ उतनी नहीं थी और बोर्ड पे नाम के नाम पे बस इतना लिखा था 'लड्डू संडीला वाले" वो दुकान पे गया और वहाँ बैठे एक लगभग साठ साल के आदमी से एक लड्डू खरीद के चखा लड्डू अपनी प्रसिद्धि के अनुसार ही स्वादिष्ट था उसने रेट पूछ कर एक किलो लड्डू पैक करने को कहा और उससे पूछा "तुम्हारी दुकान का लड्डू तो बहुत ही स्वादिष्ट है...एक दो बार पहले ये ननकहु वर्मा वाली दुकानों का भी चखा है पर ऐसा स्वाद कहीं नहीं है... इनमें से असली ननकहु प्रसाद की दुकान कौन सी है?"

"ननकहु प्रसाद नहीं...ननकहु वर्मा...और जहाँ स्वाद मिला तुम्हें..शायद वही असली दुकान हो.." दुकानदार ने मुस्कुराते हुए कहा

"मतलब...असली ननकहु वर्मा के पौत्र आप..लेकिन..मगर... सबने अपनी दुकान पे..असली...पुराना...सबसे पुराना...लिखवा रखा है...फिर आपने क्यों नहीं?" विशाल ने आश्चर्य से पूछा

दुकानदार मटकी पर सुतली बाँधते हुए बोला "जो सबसे पहले दुकान खोलता है वो असली..पुरानी..प्रसिद्ध दुकान कैसे लिखा सकता है...क्योंकि उस समय तो वो अकेला होता है न..वो किसे साबित करेगा और क्यों...."

"मगर बाद में जब और दुकाने हो जाएं तब बोर्ड तो नया लिखवाया जा सकता है न.." विशाल उसके उत्तर से लाजवाब हो चुका था पर फिर भी बोला

"दादा जी अपना नहीं अपनी भूमि का नाम चाहते थे...इसलिए बस लड्डू संडीला वाले लिखाया गया...ये सब मेरे ही भाई बंधू हैं..इन्होंने उनका नाम लिया मगर हुनर नहीं..मिलावटी सामान बनाते हैं..ये उनकी इच्छा के विरुद्ध काम कर रहे हैं ये भी मिटेंगे...और मैं भी मिटूंगा...दस के मुकाबले एक आखिर कब तक टिकेगा" कहकर उसने रुपैये काटकर बचे हुए पैसे उसे वापस किये।

उस घटना के बाद विशाल आज अपने सत्रह वर्षीय पुत्र के साथ एक बार फिर लखनऊ से हरदोई जा रहा है संडीला चौराहे से गुजरती उसकी कार की खिड़कियों से लड्डू की एक भी दुकान उसे नहीं दिखाई दी,मटकियों मटकियों बिकने वाले लड्डूओं का घड़ा भर चुका था।

-तुषारापात®™