Wednesday 15 June 2016

अर्धवृत्त

"कहाँ थीं तुम....2 घण्टे से बार बार कॉल कर रहा हूँ...मायके पहुँच के बौरा जाती हो" बड़ी देर के बाद जब परिधि ने कॉल रिसीव की तो व्यास बरस पड़ा

"अरे..वो..मोबाइल..इधर उधर रहता है...तो रिंग सुनाई ही नहीं पड़ी..और सुबह ही तो बात हुई थी तुमसे...अच्छा क्या हुआ किस लिए कॉल किया.. कोई खास बात?" परिधि ने उसकी झल्लाहट पे कोई विशेष ध्यान न देते हुए कहा

"मतलब अब तुमसे बात करने के लिए...कोई खास बात ही होनी चाहिए मेरे पास..क्यों ऐसे मैं बात नहीं कर सकता...तुम्हारा और बच्चों का हाल जानने का हक नहीं है क्या मुझे.... हाँ अब नाना मामा का ज्यादा हक हो गया होगा" व्यास उसके सपाट उत्तर से और चिढ़ गया उसे उम्मीद थी कि वो अपनी गलती मानते हुए विनम्रता से बात करेगी

उधर परिधि का भी सब्र तुरन्त टूट गया "तुमने लड़ने के लिए फोन किया है ..तो..मुझे फालतू की कोई बात करनी ही नहीं है..एक तो वैसे ही यहाँ कितनी भीड़भाड़ है और ऊपर से त्रिज्या की तबियत.." कहते कहते उसने अपनी जीभ काट ली

"क्या हुआ त्रिज्या को...बच्चे तुमसे संभलते नहीं तो ले क्यों जाती हो.. अपने भाई बहनो के साथ मगन हो गई होगी.. ऐसा है कल का ही तत्काल का टिकेट करा रहा हूँ तुम्हारा..वापस आओ तुम...मायके जाकर बहुत पर निकल आते हैं तुम्हारे..मेरी बेटी की तबियत खराब है और तुम वहाँ सैर सपाटा कर रही हो... नालायकी की हद है...लापरवाह हो तुम......." हालचाल लेने को किया गया फोन अब गृहयुद्ध में बदल रहा था व्यास अपना आपा खो बैठा था

"जरा सा बुखार हुआ है उसे..अब वो ठीक है..और सुनो..मुझे धमकी मत दो मैं दस दिन के लिए आईं हूँ..पूरा रहकर ही आऊँगी.. अच्छी तरह जानती हूँ मेरे मायके आने से साँप लोटने लगा है तुम्हारे सीने पे...अभी तुम्हारे गाँव जाती..जहाँ बारह बारह घंटे लाइट तक नहीं आती..बच्चे गर्मी से बीमार भी होते तो तुम्हें कुछ नहीं होता..पूरे साल तुम्हारी चाकरी करने के बाद जरा दस दिन को मायके क्या आ जाओ तुम्हारी यही नौटँकी हर बार शुरू हो जाती है" परिधि भी बिफर गई उसकी आवाज भर्रा गई पर वो अपने 'मोर्चे' पे डटी रही

"अच्छा मैं नौटंकी कर रहा हूँ...बहुत शह मिल रही है तुम्हें वहाँ से..अब तुम वहीं रहो..कोई जरूरत नहीं वापस आने की... दस दिन नहीं अब पूरा साल रहो..ख़बरदार जो वापस आईं..." गुस्से से चीखते हुए व्यास ने उसकी बात आगे सुने बिना ही फोन काट दिया

परिधि ने भी मोबाइल पटक दिया और सोफे पे बैठ के रोने लगी उसकी माँ पास ही बैठी सब सुन रही थी वो बोलीं "बेटी.. वो हालचाल पूछने के लिए फोन कर रहा था..देर से फोन उठाने पे अगर नाराज हो रहा था तो तुम्हे प्यार से उसे 'हैंडल' कर लेना था..खैर चलो अब रो नहीं..कल सुबह तक उसका भी गुस्सा उतर जायेगा"

परिधि अपना मुंह छुपाये रोते रोते बोली "मम्मी.. सिर्फ दस दिन के लिए आईं हूँ.. जरा सी मेरी खुशी देखी नहीं जाती इनसे..."

"बेटी...ये पुरुष होते ही ऐसे हैं...ये बीवी से प्यार तो करते हैं पर उससे भी ज्यादा अधिकार जमाते हैं..और बीवी के मायके जाने पे इनको लगता है इनका अधिकार कुछ कम हो रहा है तो अपने आप ही अंदर ही अंदर परेशान होते हैं..ऐसी झल्लाहट में जब बीवी जरा सा कुछ उल्टा बोल दे तो इनके अहम पे चोट लग जाती है..और बेबात का झगड़ा होने लगता है..परु(परिधि)..तेरे पापा का भी यही हाल रहता था..ये इन पुरुषों का स्वाभाविक रवैया होता है" माँ ने उसके सर पे हाथ फेरते हुए उसे चुप कराया

"पर मम्मी..औरत को दो भागों में आखिर बाँटते ही क्यों हैं ये पुरुष?...मैं पूरी ससुराल की भी हूँ और मायके की भी....मायके में आते ही ससुराल की उपेक्षा का आरोप क्यों लगता है हम पर?...ये दो जगह का होने का भार हमें ही क्यों ढोना पड़ता है..? उसने मानो ये प्रश्न माँ से नहीं बल्कि सबसे किये हों

माँ ने उसे चुप कराया और अपने सीने से लगाकर बोलीं "इनके अहम् और ससुराल में छत्तीस का आंकड़ा रहता ही है....जब...स्वयं..भोले शंकर इससे अछूते नहीं रहे तो..और किसकी बात करूँ....परु..मैंने पहले ही कहा... पुरुष होते ही ऐसे हैं ये इनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है...ये खुद नहीं जानते..
और बेटी...व्यास का काम ही है परिधि को दो बाँटो में बाँट देना..जिससे एक अर्धवृत्त मायके का और दूसरा ससुराल का अर्धवृत्त बनता है।"

#परिधि_बराबर_व्यास_गुणा_बाइस_बटे सात
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