Saturday 5 December 2015

विधाता

वो कहतें हैं :-
"लेखक हो, नकारा हो
बंद कमरे में बेकार से बैठे
न जाने अला बला क्या लिखते हो
घंटो की तुम्हारी कागज़ रंगाई से
एक रंगीन नोट भी नहीं छपा आज तक तुमसे
घड़ी और कैलेंडर देखो कभी तो पता लगे
स्याह बालों में कितनी सफ़ेद धारियां पड़ गयी"
मैं कहता हूँ ज़रा महसूस तो करो इसे
"जब कुंवारे सफ़ेद कागज़ से
मदहोश कलम का आलिंगन कराता हूँ
तो कितनी चिंगारियाँ सुलगती हैं
सुनो ये किलकारी सुनो
अभी अभी जन्मीं इस रचना की
ये बांटेगी किसी को ख़ुशी तो बाँट लेगी किसी का ग़म
डायरी मेरी है मेरा कैलेंडर/मेरी घड़ी
इसका हर एक अक्षर है एक सेकंड,
एक एक मिनट है हर एक शब्द
हर वाक्य एक घंटा है मेरा
पन्ना बदलता हूँ तो दिन बदल लेता हूँ
बंद कमरा है मेरा ब्रह्माण्ड,रचयिता हूँ मैं यहाँ
और कभी देखा है तुमने विधाता को कमाते हुए?"

-तुषारापात®™

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