Friday 15 July 2016

छोटू

"जिज्जी...मुकुंद को सुबह दस..साढ़े दस बजे के बीच तुम्हारे घर इसीलिए भेज देती हूँ... यहाँ तो एक टाइम (रात) का खाना ही बन जाए तो बहुत है...मोहल्ले की औरतों से सिलाई कढ़ाई का काम कभी कभी ही मिलता है" रजनी ने घर आई अपनी बड़ी ननद कुसुम के एक सवाल के जवाब में ये कहा और उससे अपनी आँखें चुराते हुए थोड़ी दूर बैठे अपने सबसे छोटे बेटे मुकुंद को देखने लगी

"भाभी...भईया ने तो शराब में अपने को बर्बाद कर डाला है.. समझती हूँ तभी तो तुमको अपनी गली के बगल वाली गली में मकान दिलवाया..... किराये वगैरह की चिंता मत करना...वो मैं देख लूँगी" कुसुम ने उसका हाथ दबाते हुए कहा

रजनी अपने एक कमरे के मकान में चारो ओर नजर दौड़ाती हुई,ग्लानि और कृतज्ञता से दबी भर्राई आवाज में बोली "जिज्जी तुम्हारा ही सहारा है ...बस मुकुंद जब सुबह आया करे...तो तुम खुद ही उससे खाने का पूछ लिया करो.....और अपने से उसे खाना दे दिया करो....वो माँगने में शरमाता है...कई बार भूखा ही लौट आता है...सात साल का ये लड़का अपना स्वाभिमान अच्छी तरह समझने लगा है"

"हाँ..मुझे ही ध्यान रखना था...पर नहीं पता था...भाभी...हालात इतने..." कुसुम के रुंधे गले से आगे आवाज न निकल पाई ,अपने को सँभालते हुए उसने आगे कहा "अच्छा भाभी चलती हूँ...हिम्मत रखना..भगवान दिन फेरेगा जरूर" रजनी उठी कुसुम के पैर छूकर उसने उसको विदा किया और घर के कामकाज में लग गई

कम पढ़ी लिखी रजनी के पति ने अपना सबकुछ शराब में भस्म कर डाला था,वो मोहल्ले में तुरपाई और फाल आदि लगाने का काम कर किसी तरह अपने तीनो बच्चों को पाल रही थी

इसी तरह दिन बीत रहे थे कि गर्मी की छुट्टियों में उसकी छोटी बहन किरण अपने पति के साथ उससे मिलने आई और उसकी स्थिति जानकर दुखी हुई किरण के पति जो पैसे से मजबूत माने जाते थे (उनकी दवा की दुकान थी) सबकुछ सुनकर एकदम से निर्णायक स्वर में बोले "दीदी..एक काम करो ये मुकुंद को हम अपने साथ लिए जाते हैं...यहाँ तो ये कुछ पढ़ लिख भी नहीं पायेगा...वहाँ आगरा में हम इसका एक स्कूल में एडमिशन करा देंगे आराम से पढ़ेगा और खा पीकर मस्त भी रहा करेगा" किरण को भी अपने पति का ये सुझाव बहुत पसंद आया उसने भी अपनी दीदी को इसके लिए राजी हो जाने को कहा

"पर ऐसे कैसे भेज दूँ...मेरे बगैर तो ये कभी एक दिन भी...कहीं नहीं रहा" रजनी ने सशंकित मन से कहा ,एक माँ चाहे जितनी मजबूर हो अपने बच्चे अपने कलेजे के टुकड़े को अपने से अलग करना उसके लिए आसान नहीं होता लेकिन मुकुंद के सुनहरे भविष्य के लिए वो किसी तरह हाँ कह देती है रजनी के पति को इसपे क्या ऐतराज होता उसकी तो एक बला ही छूटी थी

"नहीं माँ...माँ..माँ..मैं कहीं नहीं जाऊँगा... माँ मुझे खुद से दूर मत करो...मैं वादा करता हूँ...कभी खाने के लिए..तुम्हें..तंग नहीं करूँगा.."मुकुंद चिल्ला रहा था पर किरण और उसके पति ने उसे जबरदस्ती कार में बिठा लिया और रजनी से विदा ली,रजनी चौराहे पे खड़ी सुबक रही थी और जाती हुई कार को तब तक देखती रही जब तक वो आँख से ओझल न हो गई

आगरा में किरण का ससुराल एक संयुक्त परिवार था उसके पति और उनके भाइयों के भरे पूरे परिवार थे सास ससुर आदि सब एक साथ ही एक विशाल भवन में रहते थे मुकुंद का एक सस्ते मद्दे सरकारी स्कूल में पहली कक्षा में नाम लिखवा दिया गया और उसे नए कपड़े और भर पेट भोजन भी मिलने लगा पर वो अपनी माँ की याद में दुखी रहता था,धीरे धीरे वो नए माहौल में ढलने लगा

"छोटू... छोटू...ये ले जरा ये गर्म पानी की बाल्टी ऊपर छत पे नरेश चाचा को दे आ.." छोटी चाची की आवाज आई

"अरे..छोssटूss...कहाँ मर गया...स्कूल से आया और गायब हो गया...बहू ओ किरण...जरा छोटू को भेज बाजार...मेरी तंबाखू तो मँगवा दे..."किरण के ससुर चिल्ला रहे थे

स्कूल से वापस आकर वो अपना बस्ता भी नहीं रख पाता था कि उसके कानों में रोज ऐसी ही आवाजें...नहीं नहीं..चीखें सुनाई देने लगती थीं, वो उसे पढ़ा रहे थे,खिला पिला रहे थे,पर वे सब उसे उसके नाम से क्यों नहीं बुलाते हैं,साढ़े सात साल का लड़का अब ये अच्छी तरह समझ चुका था

माँ का लाडला 'मुकुंद' माँ-सी के यहाँ 'छोटू' हो चुका था।

-तुषारापात®™