Friday 30 December 2016

क्या कहना

"हेल्ल्लो..लो..ओ. ओ.....वन.टू..थ्री..सांग चेंज...आज मेरे यार की सादी है....आज मेरे यार सादी है...ओSSSSS ऐसा लगता हैSSS जैसे सारे संसार....."ऑर्केस्ट्रा वाला चमकती चाँदी के रंग की लाल टिप्पों वाली शर्ट पैंट पहने,हिमेश रेशमिया के अंदाज में माइक पकड़ के अपना सर झटक झटक के ये गाना गाने लगा,दो तीन उसके साथी भी अपनी पूरी ताकत से ड्रम पीपीरी इत्यादि पे जुट गए और सुरों को असुर बनाने लगे।

ऑर्केस्ट्रा के उस रथनुमा पीपे के पीछे,दूल्हे सुशील के सारे दोस्त देशी माधुरी के ईंधन की ऊर्जा से ओतप्रोत जनरेटर बने थे और गाने पे ऐसे झूम रहे थे मानो होड़ चल रही हो कि किदवई नगर का सबसे टॉप का बाराती नचनिया कौन है,उनके पीछे,लड़कियाँ,महिलाएं सौंदर्य प्रसाधन की दुकान बनी,डांस करते लड़कों को देख मंद मंद मुस्कुरा रही थीं,कोई कटरीना की तरह का लाचा तो कोई बाजीराव मस्तानी की दीपिका वाले लहंगे की सस्ती नकल पहन के इतरा रही थी, महिलाएं छपरे वाले गहनों से लदीं थीं जो बस देखने में ही भारी लगते थे,थे बहुत ही हल्के असली होने की गारंटी भी नहीं थी वैसे भी बारात में कोई कसौटी लेकर तो चलता नहीं,इसलिए सब अपने अपने गहनों को दिखाने में मन धन और तन से दिखाने में लगीं थीं।

उनके आसपास कुछ ऐसे भी बाराती थे जिनका मन नाचने को हो रहा था मगर अपनी इमेज मेंटन करने के चक्कर में अपनी नाक ऊपर किये चल रहे थे और कुछ ऐसे थे जो डर रहे थे कि नाचते लोगों में से कोई उन्हें देख के नाचने को न बुला ले, ऐसे लोगों की चाल में सकुचाहट थी,बारात के दोनो बार्डर पे कई औरतें लाइट को अपने सरों पे ढोते हुए चल रहीं थीं उनपे भला किसी का ध्यान क्यों कर होता ,जो रोशनी अपने सरों पे ले के चलते हैं उनके चेहरे हमेशा अँधेरे में रहते हैं।

निम्न मध्यमवर्गीय ये बारात मूलगंज चौराहे से रामबाग की कन्हैयालाल धर्मशाला की ओर बढ़ रही थी और संकरी मेस्टन रोड पर जाम लगाने में पूरी तरह सहायक सिद्ध हो रही थी।

घोड़ी पे बैठे दूल्हे राजा सफ़ेद कलर का सूट पहने हल्के नशे में थे उनके गले में दस दस के नोटों से बनी माला पड़ी थी अब बारात में उन्हें ये माला पहनने की सलाह किस जीजा ने दी ये विषय यहाँ छोड़ देते हैं,आसपास की दुकानों के और आते जाते लोग बारात का पूरा स्वाद अपने चक्षुओं से ले रहे थे, बारात ताकने वाली भीड़ में एक उच्च मध्यम परिवार के कुछ लोग जिनकी कार सड़क के बीच वाली पार्किंग में फँसी थी दूल्हे को देख आपस में बोले "ये दूल्हा तो नशे में लगता है...ये लोग अपनी शादी को भी नहीं छोड़ते...चरसी कहीं के..." तभी उनमें से एक बोला "ओह माय गॉड लुक ऐट हर... ये तो प्रेग्नेंट लगती है...ऑ.. बेचारी फिर भी इतनी भारी लाइट सर पे उठाए जा रही है.." सबने उस ओर देखा और अपने अपने मोबाइल से उस गर्भवती महिला की धड़ाधड़ तस्वीरें लेने लगे।

घोड़ी पे बैठे सुशील का ध्यान उन फोटो खींचते लोगों पे गया और उसने उस महिला को भी देखा,वो उतरना चाहता था पर थोड़ी सकुचाहट और जाम लग जाने के डर से नहीं उतरा पर उसका मन बेचैन सा हो चुका था,धीरे धीरे बारात आगे बढ़ के कॉनपोर कोतवाली के सामने पहुँची वहाँ रास्ता चौड़ा होने के कारण रोड पे काफी जगह थी वो झट से घोड़ी से उतरा और भाग के उस लाइट उठाये औरत के पास पहुँचा उसने देखा कि करीबन 30 या 32 साल की वो महिला पेट से थी और बोझ उठाने के कारण इतनी सर्द रात में भी पसीने से तर थी सुशील का हाथ अपने गले में पड़ी नोटों की माला पे गया,माला तोड़ के उसने महिला के कंधे पे रखी और उसके सर से लाइट उठा के अपने हाथों में पकड़ ली।

बारात को अचानक ब्रेक लग गए ऑर्केस्ट्रा रुक गया सुशील के पिताजी दौड़ते हुए उसके पास आए और पूछा क्या हुआ तो उसने कहा "बाबू...सभी लाइट वाली औरतों का पूरा हिसाब कर दो.. और रिक्सा का पैसा भी दीजियेगा...बारात अब बगैर लाइट के आगे जायेगी..और इन सबसे कह दो खाना खा के ही जाएं" यह कहकर रौशनी के गुलदस्ते को जमीन पे रख वो घोड़ी की ओर जाने लगा उसके दोस्त नाचना छोड़ के उसके पास आए और पूछने लगे "क्या हुआ बे...उसके साथ फोटू खींचा रहे थे क्या.. नशा ज्यादा करे हो का"

सुशील उन्हें देख के बस मुस्कुराया और बुदबुदाते हुए घोड़ी पे चढ़ गया" बड़का लोग अच्छी बात करते हैं..फोटू भी अच्छी खींचते हैं बस करते कुछ नहीं...फेसबुकिया नशेड़ी कहीं के"

बारात बगैर लाइट के आगे बढ़ने लगी,ऑर्केस्ट्रा फिर शुरू होता है "ये देस है वीर जवानों का...अलबेलों का...मस्तानों का... इस देस का यारों... होSSSय...
क्या कहना.............................।"

#तुषारापात®™

Monday 26 December 2016

कुकड़ूँ कूँ

गुस्साया सा तेज तेज कुकड़ूँ कूँ कुकड़ूँ कूँ क्यों करता रहता है
सुबह का सूरज देसी मुर्गे को अपने अंडे की जर्दी सा लगता है

-तुषारापात®™

चकरघिन्नी

नया साल आ गया है आ गया है,कहना कितना सही है मुझे नहीं पता क्योंकि मैं तो इसे अभी पुराने साल में ही लिख रहा हूँ और आप इस लेख को नए साल में पढ़ रहे हैं, कुछ अजीब नहीं लगता? ऐसा नहीं लगता मैं पिछले साल में ही आपको नए साल में ले आया हूँ या यूँ कहें कि जो समय अभी भविष्य में है मतलब जिसका पता ठिकाना ही नहीं उसमें मैं अपने शब्द भेज के अपने लिए आने वाले उस समय को भूतकाल बना चुका हूँ।

नहीं नहीं साहब मैं पागल नहीं कमअक्ल लेखक ही हूँ चलिए इस अजीबोगरीब भूमिका के बाद अब कुछ आगे की बात आपसे करते हैं,मैं दिसम्बर में बैठा हूँ और आप जनवरी में बैठे हैं और अब जरा सा और दिमाग लगाइए मैं अभी ये लिख रहा हूँ तो ये मेरा वर्तमान हुआ और आप इसे अभी पढ़ रहे हैं तो ये आपका वर्तमान है,लेकिन मेरा वर्तमान (इस लेख को लिखना) आपके लिए भूत हुआ और आपका वर्तमान (इसे पढ़ना) मेरे लिए मेरा भविष्य हुआ,हा हा हा खा गए न चक्कर? मेरे दोस्त यही है समय का चक्र और इसी चक्कर को हमें समझना है।

हर बार कैलेंडर बदलता है हर साल साल बदलता है किसी का जनवरी में तो किसी का अप्रैल में किसी पंडित का चैत्र में तो किसी विद्यार्थी का जुलाई में साल बदलता है जन्मदिन पर एक साल बदलता है शादी की सालगिरह पर साल बदलता है आदि आदि, कहने का मतलब है समय के चक्र में सबने अपनी अपनी रंगबिरंगी तीलियाँ लगा दी हैं एक चक्कर पूरा करके जब उनकी पसंदीदा रंगी तीली उनके सामने वापस आ जाती है उनके लिए उनका साल बदल जाता है

पर ये साल बदलने से कुछ होता भी है या हम फालतू में ही इसके आने का जश्न मनाते हैं आपका साल चाहे जिस भी तारीख को बदलता हो पर जब बदलता है तो आपकी सोच बदलती है विकसित होती है अब सोच दो तरह की होती है नकारात्मक और सकारात्मक,हम जश्न मनाते हैं क्योंकि हम सकारात्मक सोचते हैं अब कुछ लोग कहेंगें काहे का जश्न उलटे उम्र से एक साल कम हो गया तो उनसे कहना चाहूँगा कि तो तुम जाने वाले साल के लिए जश्न मनाओ इसलिए मनाओ क्योंकि गए हुए साल में तुम बचे रहे एक साल और जी लिया तुमने

मतलब साफ़ है सदा अपनी सोच को पॉजिटिव बनाए रखना है, ऊपर मैंने इसीलिए जिक्र किया कि मैं ये लेख पुराने साल में लिख रहा हूँ कि नए साल में आप इसे पढ़ेंगे आखिर कौन सी चीज है जो मुझे इतना विश्वास देती है कि ये छपेगा और आप तक पहुँचेगा ही वो एक चीज है उम्मीद एक लेखक की उम्मीद अपने पाठक तक पहुँचने की, बस यही उम्मीद जगाता है आने वाला नया साल, और जब तक उम्मीद है दोस्तों ये दुनिया कायम है।

समय एक पेड़ की तरह है जिसमें फल लगते हैं कुछ नए पत्ते निकलते हैं कुछ पुराने पत्ते गिरते हैं और ये प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है हमारा साल बदलना बस उस समय का एक छोटा सा पल है जिसमें हम हिसाब करते हैं कि कितने पत्ते टूटे कितने नए खिले, टूटे पत्तों पे गम न करो हताश मत हो ये मत सोचो कि हाय कितने फल हम खा न सके बेकार गए बल्कि ये सोचिए कि कितने नए फल उगेंगे जो हमारी झोली में आएंगे, साल हमारी बनाई इकाई है हमें इसे धनात्मक रखना है गया हुआ समय कहीं गया नहीं है वो आप मेंसे किसी बच्चे की लंबाई में बदल गया है तो किसी के बालों की थोड़ी सी सफेदी में कैद है अब ये आप पर है कि आप सफ़ेद बालों पे दुखी हों या फिर शान से कहें कि ये बाल मैंने धूप में सफ़ेद नहीं किये हैं।

अच्छा किसी बरहमन ने आपको बताया कि ये साल अच्छा है?
मैं कहता हूँ कि सबके लिए आने वाला साल अच्छा है जब कुछ अच्छा होता न दिखे तो समय के चक्र में से अपनी रंगीन तीली निकालकर उस जगह के थोड़ा पीछे लगा के उसे बीता साल बना दो और अपना साल बदल लो और फिर कहो ये साल तो अब अच्छा है बस उम्मीद और विश्वास की इस चकर घिन्नी को रुकने नहीं देना है हर साल अच्छा ही होगा।

तो आने वाले इस नए साल के लिए आप सभी को ढेरों शुभकामनाएं।

(कर्म दर्शन पत्रिका के मेरे कॉलम ऑफ दि रेकॉर्ड के लिए भेजा
है,एडिटर साहब ने मेल पर रिप्लाई किया छपेगा तो जरूर बस आप चरस अच्छी वाली पिया करें :) )

-तुषारापात®™

Friday 23 December 2016

नाम

ताबिश,अब्बास,मोईन,बिलाल,शहजाद,अकरम,फैजल,इत्यादि से क्या पता चलता है? अच्छा असित,अमित,अव्यक्त,विजय,तुषार,वरुणेन्द्र, सिद्धार्थ,प्रदीप इन नामों से क्या पता चलता है? पहली नजर में आप सब एक साथ कहेंगें कि पहली पंक्ति के नाम मुस्लिम मजहब के लोगों के हैं और दूसरी पंक्ति के सभी नाम हिन्दू धर्म का पता देते हैं

तो मोटे तौर पे हम ये कह सकते हैं कि नाम का पहला शब्द धर्म का स्पष्ट/अस्पष्ट पता देता है अच्छा अब आते हैं नाम के दूसरे शब्द पे जो कि सरनेम होता है जैसे अहमद,जाफरी,शेख या चतुर्वेदी,मिश्र, सिंह आदि आदि इनसे क्या पता चलता है मोटे तौर पे ये जातिसूचक शब्द होते हैं जो दादा से पिता को और पिता से पुत्र को प्राप्त होता है

पहले नक्षत्र आधारित नाम की व्यवस्था हुआ करती थी प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं जिसका एक अलग अलग अक्षर होता है (मात्रा सहित) बालक नक्षत्र के जिस चरण में जन्म लेता था उसी चरण वाले अक्षर से आरम्भ होने वाले नाम दैवज्ञ (ज्योतिषी,पंडित) सुझा देते थे जिससे उस व्यक्ति के जन्म के समय का भी मोटा मोटा पता चलता था,इतनी लंबी भूमिका से तात्पर्य ये है कि जाति, नाम आदि समाज के वर्गीकरण की प्रक्रिया थी लेकिन दुर्भाग्य से उसे हमने विभाजन मान लिया तब सामाजिक सरंचना उतनी जटिल नहीं थी और जनसंख्या विरल थी अतः यह प्रक्रिया चलती थी पर आज समाज अत्यंत जटिल स्वरूप में है बाकी सब छोड़ भी दिया जाए तो भी नाम अभी भी अपना एक अलग महत्व रखता है लेकिन ये सब कुछ नहीं है।

अपने जिगर के टुकड़े को आप घर में कुछ भी प्यार से अजीब अजीब संबोधन से बुलाते हैं कुछ घरों में अभी भी पिता अपने सबसे बड़े पुत्र को भइया कहके बुलाते हैं उसका नाम नहीं लेते पर नाम बाहर वालों के लिए रखा जाता है नाम व्यक्तिगत नहीं सार्वजनिक संबोधन है इसलिए नामकरण अत्यधिक सतर्कता से करना चाहिए विशेष तौर पे उन्हें जिनका प्रत्येक कार्य समाज के एक बड़े हिस्से पर प्रभाव छोड़ता हो उन्हें जन भावना को आहत करने वाले नामों से बचना चाहिए पर ये कोई अंतिम सिद्धान्त नहीं है कि उन्हें ऐसा करना ही चाहिए।

नामकरण को लेकर बुद्धिजीवियों द्वारा पक्ष विपक्ष में कई तर्क कुतर्क दिए जा रहे हैं हालाँकि मैं तब लिख रहा हूँ जब ये मामला ठंडे बस्ते में जा रहा है लेकिन मैं इस मुद्दे पे नहीं इस प्रवृत्ति पे लिख रहा हूँ तो बुद्धिजीवियों नाम एक अति महत्वपूर्ण स्थान रखता है नाम हमें पशुओं से अलग करता है घोड़े घोड़े होते हैं शेर शेर होते हैं इसी प्रकार भेड़ों के झुण्ड होते हैं लेकिन मनुष्यों में सत्यपाल,अबोध, सुबोध,मुश्ताक आदि आदि होते हैं क्यों तुम भेड़ के झुण्ड बने जा रहे हो कुछ और रचनात्मक लिखने को शेष नहीं है तुम्हारे पास,तनिक विचार करना,किसी भी विषय पर अत्यधिक समाधन प्रस्तुत करना कभी कभी उस समस्या को और बढ़ा देता है।

और अंत में नाम को लेकर बवाल मचाने वालों से बस एक पंक्ति कहना चाहूँगा "तुम्हारी भावनाएं कभी आहत नहीं होती तुम बस भावनाएं आहत होने का ढोंग करते हो, और तुम्हारे इसी आडम्बर के ढोल की कर्कश ध्वनि में तुम्हारी तूती के गौरवपूर्ण सुर विलुप्त हो रहे हैं।

-तुषारापात®™

Wednesday 21 December 2016

भाभी

"वाह...मजा आ गया...खाना तो जबरदस्त है ..ये दोनों सब्जियाँ मेरी पसन्दीदा हैं..भाभी..इस बार अगली कहानी आप पर" मैंने खुशी से चटकारे लगाते हुए कहा

किचेन के अंदर से भाभी की आवाज आई "वाकई में...या यूँ ही अपनी बीवी के सामने मेरी तारीफ की जा रही है...इसे जलाने के लिए" मैं कुछ कहता इससे पहले किचेन में उनका हाथ बँटा रहीं मेरी पत्नी जी बोल उठीं "और मैं जो रोज खाना बनाती हूँ...मुझपे तो आजतक एक भी कहानी नहीं लिखी गई"

"तुम पे तो अपनी आत्मकथा में लिखूँगा... कि कितनी बार बेकार खाने पे मुझे जबरदस्ती तारीफ करनी पड़ी...सच्ची आत्मकथा होगी तो ज्यादा पसंद की जायेगी" इस बात पे सभी के ठहाके गूँजे

"आप दोनों की शादी के 22 साल पूरे हो गए न...जानतीं हैं ये मुझे इसलिए याद रहता है...क्योंकि उस साल..हम आपके हैं कौन की धूम थी...और देखो रेणुका शहाणे से भी अच्छी और सुंदर भाभी हमारे घर को मिलीं...वैसे ये मैं तभी बोलना चाहता था पर छोटा होने के कारण कह नहीं सका..आपने इस घर को अपने प्यार से बाँध के रखा..आप तो एक आदर्श भाभी हैं बिल्कुल सूरज बड़जात्या की फिल्मों की तरह" मैंने डोंगे से पनीर की सब्जी लेकर अपनी कटोरी लबालब भरते हुए कहा

भाभी और पत्नी जी दोनों अब रोटियाँ सेंककर अपनी अपनी थाली लगा के मुझे और भैया को ज्वाइन कर चुकीं थीं भाभी ने डायनिंग टेबल पे बैठते हुए कहा "चलो चलो..तब तो महाशय डॉली के आगे पीछे देखे जाते थे...वो गाना याद है...काफी दिनों तक हम लोग तुम्हें 'डॉली सजा के रखना' गा गा कर चिढ़ाते रहते थे"

"भाभी...श..श...बीवी के सामने सीक्रेट्स नहीं खोलते...वैसे भी तब मैं एफिल टॉवर के जैसे सींकिया हुआ करता था...और वो आपके मामा की लड़की डॉली गोलकुंडा का किला लगती थी..अपनी तो ये 'संगम की नाँव' अच्छी है" मैंने पत्नी जी की तरफ थोड़ा सा घी बढ़ाते हुए कहा

"वैसे देवर के राइटर होने का इतना फायदा तो मिलना ही चाहिए... अच्छा ये तो बताओ तुम्हारी कहानी में मेरा किस तरह गुणगान होगा.." भाभी ने भैया की तरफ देखते हुए कहा भैया शान्त गाय की तरह खाना खाने में लगे रहे

"उसमें कोई सेंटिमेंटल..या बढ़ा चढ़ा के बात नहीं होगी..जब भी देवर भाभी के रिश्ते की बात आती है...तो या तो उसे हँसी मजाक के रिश्ते का नाम दिया जाता है या पता नहीं क्यों..एक जबरदस्ती की सफाई सी देती हुई आदर्श बात जरूर जोड़ी जाती है...कि भाभी माँ जैसी होती है...या माँ के समान होती है... न साली आधी घरवाली होती है और न ही भाभी आधी माँ होती है...हम अतिश्योक्ति में क्यों जीते हैं... जैसे माँ का एक अलग रिश्ता है बहन का अलग रिश्ता होता है वैसे ही भाभी सिर्फ भाभी होती है..और इस शब्द का अपना अलग महत्व है अलग पद है..इसे बयां नहीं किया जा सकता...रिश्ते परिभाषित करने से बनावटी हो जाते हैं..." शायद मेरे अंदर का साहित्यकार जाग गया था

"वाह क्या बात कही...सही है प्रेम के अनेकों रूप हैं...माँ पापा भाई बहन सबसे हम प्रेम करते हैं पर इनकी व्याख्या नहीं करते..जहाँ व्याख्या करनी पड़े वहाँ प्रेम अपना स्वरूप खो देता है...अच्छा खाना क्यों रोक दिया...रुको ये रोटी वापस रखो ये लो ये गर्म है.." उन्होंने मेरी थाली से ठंडी रोटी हटा के कैसरोल से गर्म रोटी रखते हुए कहा

काफी देर से चुप भैया बोले "हाँ और इस प्रेम में समय समय पर भैया की जेब से निकालकर देवर को शाहरुख़ खान स्टाइल के कपड़े खरीदने के लिए पैसा देना भी शामिल है" एक बार फिर से सबके ठहाके गूँजे

"वैसे भाभी मैंने कभी आपसे कहा नहीं...आज कहता हूँ ..आप बिल्कुल ख़ामोशी वाली वहीदा रहमान की तरह लगतीं हैं...वही ग्रेस वही सौंदर्य... सदाबहार हैं आप इन बाइस सालों में जरा नहीं बदलीं..कसम से आपको तो संतूर का ऐड करना चाहिए" उनकी तारीफ कर मैंने भैया को चिढ़ाया

"हाय...वहीदा रहमान...मतलब...ख़ामोशी फिल्म में जैसे वो हो गईं थीं...मैं भी पागल हो जाऊँगी" उन्होंने हँसते हँसते कहा

मैंने बड़ा संजीदा सा चेहरा बनाते हुए कहा "वो तो आप पहले से थीं वरना भैया से शादी क्यों करतीं"

"वो तो मुझे तुम्हारी भाभी बनना था न इसलिए...वरना कौन इनसे शादी करता" और उनकी हाजिरजवाबी से एक बार फिर मैं लाजवाब हो चुका था।

#रिश्तों_में_शब्दों_की_अतिश्योक्ति_नहीं_भावों_की_अभिव्यक्ति_होनी_चाहिए
(पसंद आये तो शेयर करिये अपनी अपनी भाभी के लिए उन्हें अच्छा लगेगा)
#तुषारापात®™ उनके लिए जिनके लिए हमेशा तुषार रहूँगा छोटा वाला।

Thursday 15 December 2016

इकाईयों को हासिल नहीं मिलते

"आज दोपहर वो खुद ही आकर दे गया...सबको इनवाइट किया है...मिसेज खान विथ फॅमिली" ऑफिस से लौट के वो डाइनिंग टेबल पर रखे कार्ड को उठा के देख ही रही थी कि पीछे से उसकी माँ बोल उठीं

कहीं बहुत गहराई से उसकी आवाज निकली "हूँ..." उसने एक गहरी साँस ली पर छोड़ी बहुत आहिस्ता से,धीरे से पर्स टेबल पे रखा,बाल खोले और कुर्सी ऐसे खींची कि बिल्कुल भी आवाज न हो और खींच के उसपे हौले से बैठ गई,कार्ड अभी भी उसके हाथों में था "हासिल वेड्स...." आगे के नाम को उसने पढ़ा नहीं... तख़्त दान में देने वाले ये नहीं देखा करते कि उनके बाद उसपर कौन बैठा

"इक्कु...आज तेरा जन्मदिन है बेटा...और आज ही वो अपनी शादी का कार्ड दे गया....और शादी अपने जन्मदिन पर कर रहा है...ये सब क्या है...?" अम्मी ने चाय की प्याली उसके आगे रखते हुए कहा

"कुछ नहीं..." उसने कहा और आधी बात धीमे से बुदबुदाई "ये तोहफा है एक दूसरे को हमारे जन्मदिन का..." कहकर उसने चाय का एक घूँट भरा और निगलते ही कुछ ही दिन पुरानी हुई यादें उसके सीने में जलने लगीं

"इकाई...तुम होश में तो हो...यहाँ मैं तुम्हारे जन्मदिन 9 दिसम्बर पर सोच रहा था कि सबको ऑफिसियली बता दूँगा कि हम दोनों बहुत जल्द शादी....और तुम कह रही हो ये सब भूल जाऊँ...तुम मुझसे शादी नहीं..." हासिल ने उसके दोनों कंधे पकड़ के उसे झंझोड़ते हुए कहा

वो पत्थर की बनी बैठी रही बस उसके लब हिले " 9 नम्बर का रूलिंग प्लानेट मंगल होता है जो सेनापति है और सेनापति को ताज नहीं मिला करता....उसे अपनी सेना के लिए लड़ना होता है बस"

"तुम और तुम्हारी ये ब्लडी न्यूमरोलॉजी....देखो इकाई मैं जानता हूँ हमारी शादी आसान नहीं है...तुम्हारे पापा के जाने के बाद से...बट यू डोन्ट वरी... तुम्हारे घर का खर्च भी मैं उठा लूँगा और तुम्हारी दोनों बहनों की शादी भी अच्छे से...हम करवाएंगे न...याSSSर.." सब्र से काम लेते लेते आखिर में वो फिर से चीख उठा

"मैं फैसला कर चुकी हूँ...मैं किसी से भी शादी नहीं करूंगी" इकाई ने पथराई आँखों से कहा

"मैं तो ये भी नहीं कर सकता मेरी अम्मी का कोई ठिकाना नहीं कब वो चल बसें...ठीक है...अब तुम्हारे जन्मदिन पर ही..इकाई...मैं अपनी शादी का कार्ड भेजूँगा...और हाँ शादी भी अपने जन्मदिन 13 दिसम्बर को ही करूँगा...इस तरह हम दोनों के लिए एक दूसरे को याद करके रोने के दो ही दिन रहेंगे..दो नए दिन नहीं जुड़ेंगे" हासिल ने सरेंडर कर दिया हासिल की मर्जी नहीं चलती उसे तो अगले नम्बर पर जाना ही पड़ता है

अचानक चाय से इकाई के होंठ जले तो वो वापस आई उसकी अम्मी कुछ कहे जा रहीं थीं पर उसके कानों में कुछ नहीं जा रहा था उसने धीरे से कहा "9 अंक की इकाई सबसे बड़ी होती है अम्मी..उसमे अगर एक भी जुड़ जाए तो वो जीरो हो जाती है..और अगर कुछ और वो जोड़ ले तो वो छोटी हो जाती है फिर उससे छोटी इकाइयों का क्या होगा...और वैसे भी अम्मी..इकाइयों को हासिल नहीं मिला करते" और अपने कमरे में जाकर दरवाजा बंद कर लिया,लेकिन इस बार दरवाजा बंद करने की आवाज बहुत जोर से आई।

-तुषारापात®™