Sunday 31 January 2016

मध्यान्ह

अभिमान का सूर्य,सर पे चढ़ के,विनम्रता की परछाई छोटी कर देता है ।

-तुषारापात®™

Friday 29 January 2016

adultery warning

Seeing of 'MASALA' is injurious to sex -adultery warning

-तुषारापात®™

Thursday 28 January 2016

साड़ी vs दाढ़ी

'तेल' : 'खाड़ी युद्ध' करवा चुका है और अब 'साड़ी vs दाढ़ी युद्ध' करवा रहा है ।

#शनि_ शिंगणापुर
-तुषारापात®™

Wednesday 27 January 2016

कुछ नहीं हो सकता इस देश का

"कुछ नहीं हो सकता इस देश का...एक सरकार कुछ कड़े कदम उठाती है ..तो दूसरी पार्टी उन्हीं नियमों का....मुद्दा बनाके ....अगले चुनाव में अपनी सरकार बना लेती है और .....वो सारे कायदे कानून ठन्डे बस्ते में डाल दिए जाते हैं...लोग खुद सुधार नहीं चाहते "तुषार सिंह ड्राइंग रूम में बैठे अपने घनिष्ठ मित्र संजय से बड़ी ज्ञान ध्यान की बातें कर रहे थे

"हाँ..बिल्कुल सही कह रहे हो...तुम तो खूब लिखते रहते हो इन सब बातों पे...दरअसल मैं इसलिए तुम्हारे पास आया था...ऐसे ही एक मुद्दे पे...तुम्हारा एक लेख मिल जाता मुझे तो काम... बन जाता..." संजय ने कहा

"पर तुम्हें क्या जरूरत पड़ गई..मेरे लेख की.." तुषार सिंह ने आश्चर्य से पूछा

"यार..26 जनवरी के एक फंक्शन में चीफ गेस्ट बनके जाना है.. अरे वो अपना मिश्रा है न..उसके ही स्कूल में..तो तेरी लिखी स्पीच मार दूँगा.. और तालियाँ बटोर लूँगा हा हा हा " संजय ने आँख मारते हुए कहा

"हा हा हा...ठीक है ..रुक...अभी लिख देता हूँ..." तुषार सिंह ने हँसते हुए अभी ये कहा ही था कि उनकी पत्नी ट्विंकल की किचेन से आवाज आई

"कुछ जरुरी सामान ला दो पहले..फिर लिखने बैठना..राहुल भी आज नहीं आया है..चार पाँच चीजें हैं..तुम ले आओ प्लीज़..और हाँ भूल न जाओ इसलिए पर्चा बना दिया है"

"क्या यार..तुम्हारा भी न..अच्छा लाओ ला देता हूँ..संजय तू बैठ..चाय पी..मैं अभी आता हूँ..कहकर उन्होंने परचा लेकर जेब में डाला और और टहलते हुए पास की किराने की दुकान पे पहुँच गए और पर्चे की लिखी दस बारह चीजें निकलवा लीं दुकानदार ने पैसे काटे और दूसरा ग्राहक देखने लगा

"अरे..भाई ले कैसे जाऊँगा..कुछ पन्नी वन्नी तो दो.." तुषार सिंह ने दुकानदार से कहा

"भाई साहब..सरकार ने पॉलिथीन पे बैन लगा दिया है...पलूशन बहुत होता है इससे..और कितने पशु इनको खाकर मर जाते हैं"दुकानदार ने कहा

"अरे यार..वो सब तो ठीक है..देखो एक आध पड़ी हो तो दो.." उन्होंने कहा

"न साहब..झोला लेकर चलने की आदत डालिये..वैसे भी पन्नी देने और लेने वाले पर अब सजा भी लागू है..आपकी एक पन्नी के लिए अपनी दुकानदारी चौपट कर लूँ क्या.." दुकानदार और ग्राहकों को डील न कर पाने के कारण झुँझला के बोला

"बात कैसे कर रहा है तू...मुझे क़ानून मत समझा..चुपचाप एक पन्नी में सारा सामान डाल के दे" तुषार सिंह तैश में आ गए और लगे दुकानदार को हड़काने लगे "तू मुझे जानता नहीं..मैं कौन हूँ..बड़ा आया कानून समझाने वाला.. कितने लोगों को मैं ज्ञान देता रहता हूँ..और तू मुझे समझा रहा है"

"ये लो..आप अपने पैसे वापस पकड़ो..पन्नी होती भी तो अब नहीं देता.. और अब सामान भी नहीं दूँगा.. दूसरों को सब ज्ञान देते हैं..पर खुद मानने पे आये तो धौंस दिखाते हैं..."दुकानदार ने गुस्से में पैसे उनको वापस कर दिए और सामान वापस अंदर रख लिया

तुषार सिंह अपना सा मुंह लेकर वापस घर में आ गए..उनकी पत्नी ने पूछा
"अरे सामान नहीं लाये..क्या हुआ ?"

"यार दिमाग मत खराब करो..अभी थोड़ी देर में जाऊँगा..एक कप चाय पिलाओ पहले..और हाँ..एक झोला देना मुझे...कुछ नहीं हो सकता इस देश का" आखिरी पंक्ति बुदबुदाते वो ड्राइंग रूम में चले गए ।

-तुषारापात®™

Saturday 23 January 2016

नेताजी अमर रहें

नेताजी को सच्ची श्रद्धांजलि देनी है तो ये मत कहिये

"तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा"

ये तो उन्होंने हमसे कहा था अब हम उन्हें अपने जवाब में ये कहें जो वो हम सबसे सुनना चाहते थे

"मैं तुम्हें खून देता हूँ सुभाष! तुम मुझे आजादी दो"

जय हिन्द!

-तुषारापात®™

Friday 22 January 2016

सड़क का सीना

आज हमारे लखनऊ में माननीय प्रधानमंत्री जी आये जिससे हमारे यहाँ की सड़कें 56 इंच ज्यादा चौड़ी देखीं गईं

-तुषारापात®™

इत्र

"आयत..इश्क इत्र की तरह होता है..ये..जिससे होता है वो तो महकता है...पर जिसे होता है वो ...बस...खाली शीशी सा रह जाता है" अपने हाथ में पकडे खाली ग्लास को उसे दिखाते हुए मैंने कहा

"एक पैग लगाने के बाद...ये शायराना होने की आदत गयी नहीं तुम्हारी... वेद..जानते हो खुश्बू की भी एक उम्र होती है..लगती है..खूब महकती है और.. फिर हवा में गुम हो जाती है..उसे बाँध के नहीं रखा जा सकता.."उसने मेरे हाथ से ग्लास लेकर टेबल पे रखते हुए सूनी आँखों से कहा

"शायद..पर इतने सालों बाद..आज फिर ये खुश्बू मेरे सामने है..और इत्र की खाली शीशी उसे भर लेना चाहती है.." मैंने उसका हाथ पकड़ने की कोशिश की

"वेद..नो..कंट्रोल...योर सेल्फ..मुझे भी बड़ा अजीब लगा था ये जानकर कि तुम और हदीस दोनों एक ही कंपनी में हो...और देखो..एक ही शहर... यहाँ लखनऊ में पोस्टेड हो..आई मीन....मतलब यार..ये कोई फिल्म है क्या... आये दिन किसी न किसी पार्टी में तुमसे सामना हो जाता है.." हदीस पे अपनी नजर जमाये हुए उसने कहा

"जानती हो अब मन करता है...शादी कर लूँ.. तुमसे भी सुन्दर किसी लड़की से ..शायद उसकी कमर में मेरी बाहें देखकर तुम्हें अहसास होगा कि मुझे कैसा लगता है जब हदीस..."बात अधूरी छोड़ के मैंने एक सिगरेट सुलगा ली और उसकी उस लट को देखने लगा जो उसे हमेशा परेशान करती थी

"अच्छा लगेगा..मुझे बहुत खुशी होगी..जल्दी शादी कर लो..तब शायद तुम मेरा दर्द बेहतर समझ पाओगे...शायद...तब भी नहीं" उसने अपनी उस लट को कान पे चढाने की नाकाम कोशिश की..हमेशा की तरह...और मेरे हाथ से सिगरेट छीन के फेंक दी

"वैसे यूँ भी मिलना बुरा नहीं है..इतने सालों बाद फिर से वही कशमकश होती है...कौन सी साड़ी पहनूँ..कैसा मेकअप करूँ...दिल में हल्की ही सही पर एक गुदगुदी तो होती है..कि पार्टी में तुम्हारी आँखें मुझे देख रही होंगी" उसने दाँतो से अपने निचले होठ को हलके से चुभलाते हुए कहा...ये वो तब किया करती थी जब थोड़ा सा शरमाती थी और किसी बात पे थोड़ी अनमनी सी होती थी


"पर मुझे तो तुम विद आउट मेकअप ज्यादा अच्छी लगती हो जैसे सुबह सुबह उठती थीं बिलकुल रॉ ब्यूटी..." पुरानी यादों में चला गया था मैं

"मेरे लिए अभी भी तैयार होती हो..खाली शीशी से...उसकी बची हुई.. खुश्बू भी चुराई जा रही है" मैंने बनावटी शिकायत की

"वेद... एक कबाड़ी के लिए सेन्ट की खाली शीशी बड़ी कीमती होती है"
एक पुकार सी लगी मुझे उसकी इस बात में

मेरी आँखे उसकी आँखों में थीं और मेरे मुंह से बड़ी धीमी आवाज निकली
"काश..ये आयत..मुझपे उतरती"

उसकी पलकों पे ओस उतर आई...उसके होठ मानो मेरे होठों से लगकर.. मुझमें ....इत्र ही इत्र भर देना चाहते थे..पर दूर खड़े हदीस को देखते हुए उसने बस मुझसे ये कहा और मेरे पास से उठकर उसके पास चली गई "आयतें...वेद की नहीं हुआ करती"

#वेद_की_आयत_:_01

-तुषारापात®™

Tuesday 19 January 2016

बीमार : ठाकुर या लोकतंत्र

"माफ कर दीजिये..मालिक..मालिकन जाते जाते हमसे कह गईं थीं..कि कि...मालिक का हाजमा दुरुस्त नहीं है...खाना हल्का बना के ही देना" रसोइये ने जमींदार साहब के बेंत से खुद को बचाते हुए कहा

"सूअर की औलाद...हमारा हाजमा सही नहीं है...या तू अपनी मर्जी से काम करने लगा है...कुत्ते के पिल्ले..हमें...जमींदार ..ठाकुर भवानी सिंह को... तू ये लौकी टमाटर की सब्जी परोसता है...रसोइये जो तू बाहमन न होता तो आज तेरी खाल खिंचवा लेता मैं" ठाकुर गुस्से से उसपे बेंत बरसाते हुए बोला

"गलती हुई गई...अरर..आगे से नहीं होगी..मालिक" रसोइया ठाकुर के पैर पकड़ के बोला,ठाकुर ने फिर भी उसे पीटना बंद नहीं किया मारते मारते उससे कहा "तू हमारा नौकर है...या मालिकन का...तुझे हमसे पूछना चाहिए था...तू भूल गया ठाकुरों के यहाँ चाहे औरतें हो या दलित दोनों की कीमत इन लौकी तुरई से ज्यादा कुछ नहीं है..और तू हमें यही सब्जियां खिलाने चला था..दूर हो जा हमारी नजरों से नहीं तो..."

रसोइया जल्दी से उठा और जैसे कोई हिरन शेर के जबड़े से निकल कर भागता है उससे भी तेजी से वो अपने लड़के को लेकर हवेली से बाहर दौड़ गया, जमींदार की क्रूरता और शौक का ये अद्भुत रूप घर के सभी नौकर चाकर और घर की औरतें भी देख रहीं थीं पर सब चुप थे सहमे थे पर मन ही मन आक्रोशित थे

और जैसे कि कहते हैं वक्त के पैर नहीं होते वो एक साँप की तरह रेंगते रेंगते अपनी केंचुल उतार के बदल जाता है वैसे ही अब ठाकुर भवानी सिंह बुढ़ा चुके हैं जमींदारी खत्म हो चुकी है देश आजाद हो चूका है धन सम्पदा की स्थिति बूढ़ी वैश्या के कोठे सी है ठाकुर अपनी बीमारी के कारण एक तीन टाँगों वाले अपने खानदानी पलंग पे पड़े हैं और एक दलित डॉक्टर के रहमोकरम पे हैं

"ठाकुर साहब..आपके इलाज में दवा से ज्यादा..परहेज की जरूरत है.. आप अपने खान पान में विशेष सावधानी बरतिये...सिर्फ उबली लौकी खाइये जरा सा भी मिर्च मसाला आपको भवानी माँ से मिलवा सकता है" चेहरे पे एक कुटिल मुस्कान लिए वो उनसे कहता है और ठाकुर असहाय से उसे जाते हुए देखता रह जाता है

डॉक्टर ठाकुर की पुरानी हवेली से बाहर निकल के कुछ दूर चलता है और एक विशाल मकान में आ जाता है एक व्यक्ति उससे पूछता है "क्या हाल है ठाकुर के..मरा नहीं अभी तक... खाने में लौकी ही बताई है न ...हमारे बाबूजी को इसी लौकी के कारण ...पीट पीट कर निकाल दिया था ससुरे ने.. "

"राम बाबू ..चिंता न करो..सब कुछ तुम्हारे बताये अनुसार ही कर रहा हूँ..ठाकुर को न मरने दूँगा..और न ही..जीने दूँगा.. मैं जानता हूँ कि उसके ठीक होने के लिए ये...लौकी तुरई के साथ साथ ...प्याज लहसुन और हल्के मसाले की सब्जी भी बहुत जरुरी है....पर मैं ये बात उसे कभी नहीं बताऊँगा..बस तुम हमारा ख्याल रखो आखिर हमारे जैसों दलितों के नाम पे ही तुम विधायकी जीते हो " डॉक्टर ने सच बात चापलूसी वाली जबान में हँसते हुए कही

"अपनी चिंता तुम हमपे छोड़ दो...बिल्कुल न डरो....बस इस ठाकुर को ऐसे ही तड़पाओ..और इसकी भनक भी इसे बिलकुल न लगने देना...कि इसकी सेहत के लिए सारी सब्जियाँ बहुत जरुरी हैं... इसके यहाँ लौकी तुरई..दलित के जैसे अछूत थे न...अब तुम प्याज लहसुन जैसे सवर्ण को उसके यहाँ ऐसे ही दलित बनाये रहो...बस तुम ठाकुर को बीमार बनाये रखो ..और मैं इस लोकतंत्र को.."

-तुषारापात®™
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Monday 18 January 2016

नमाज या अंदाज

तू खुदा बदल/मस्जिद बदल/नमाज़ बदल
होगी दुआ पूरी/बस जरा अपने/अंदाज बदल

-तुषारापात®™

Sunday 17 January 2016

सोया आलू

मुझे अपनी माँ के हाथ की बनी सोया आलू की सब्जी (सोया मेथी वाला सोया) लेकिन बगैर मेथी के बहुत पसंद है जब तक उसका सीजन रहता है मैं बहुत चाव से उनसे बनवा के खाता रहता हूँ।

बस मेरी उनसे हर बार एक ही शिकायत रहती है कि वो उसमे आलू कम और सोया ज्यादा से ज्यादा रखें पर वो चाहें जितना भी कम आलू रखें ज्यादा ही हो जाता है,उनसे जब भी पूछता तो वो हँस के कहतीं पता नहीं कम तो करती हूँ पर बनने के बाद सब्जी में आलू ही आलू दिखता है सोया न जाने कहाँ गायब हो जाता है । मुझे एक समय ये तक लगने लगा की वो जानबूझ कर आलू तो नहीं डाल देतीं कि शायद कहीं उन्हें ऐसी ही सब्जी पसंद हो।

आख़िरकार इसके पीछे का कारण तलाशने का मैंने सोचा और उनसे पूछा की ऐसा क्यों हो जाता है ? बातों बातों में मुझे ये रहस्य समझ में आ गया जब उन्होंने ये बताया "बेटा तुम्हारे पापा को भी ये सब्जी बहुत पसंद थी पर वो इसमें आलू ज्यादा पसंद करते थे और अगर सोया ज्यादा हो जाये तो वो काफी गुस्सा हो जाते थे यहाँ तक कि खाना छोड़ के उठ जाया करते थे तो उनके हिसाब की सब्जी 40 साल से बनाते बनाते अब आदत ऐसी पड़ गयी है कि मैं चाहे जितना भी आलू कम करना चाहती हूँ कम कर नहीं पाती।"

फिर मैंने पूछा की नाना जी के यहाँ भी तो बनती होगी ये सब्जी वहाँ कैसी बनती थी आखिर आप मायके में इतने साल रही हैं वहाँ की भी कुछ आदतें रही होंगी ? उन्होंने कहा " नहीं वहाँ ये सब्जी बनती ही नहीं थी क्यूंकि तुम्हारे नाना जी को सोया आलू बिलकुल भी पसंद नहीं था, मैं और माँ कभी कभार मेरी मौसी मतलब तुम्हारी नानी की बहन के यहाँ जब जाते थे तो वहाँ सोया मेथी आलू की सब्जी खाने को मिलती थी जो हम दोनों को बहुत पसंद थी।"

इतना कहकर वो अपने किचेन के काम में लग गयी और मैं बस सोचता रह गया की माँ को सोया मेथी आलू पसंद है एक तो ये बात ही मुझे पता नहीं थी ऊपर से मैं उनसे इस उम्र में उनकी 40 साल से पड़ी आदत के विरुद्ध जाने की एक तरह से ज़िद करता रहा और तो और खुद माँ ने पिछले 40 सालों से अपनी पसंद की सोया मेथी आलू की सब्जी चखी भी नहीं।

शायद ये बात आपको बहुत छोटी लगे पर मेरे लिए ये बहुत ही सोचने वाली बात हो गयी पूरी रात मैं भावुक होकर सोया आलू की सब्जी और दीपिका पादुकोण की माय चॉइस में उलझा रहा।

सच में एक नारी स्वयं को अपने पिता के अनुसार फिर पति के अनुरूप और उसके बाद अपने बच्चों के हिसाब से अपने को कितनी सहजता से ढाल लेती है और उसके बाद भी अपने बच्चों के बच्चों के लिए भी वो एक नया रूप ले लेती है पर हम पुरुष ये बहुत ही महत्वपूर्ण बात कभी समझ ही नहीं पाते हम बस पिता,पति और पुत्र के रूप में उसपे अधिकार जमाते रहते हैं।

अब अगर आप कभी भी महिला अधिकार/बराबरी/आरक्षण की बात को समर्थन दें तो उसे संसद में उठाने/लागू कराने की बात से बहुत पहले अपने घर से शुरू करियेगा यकीन मानिये संसद में खुद ब खुद लागू हो जायेगा।

(आज फिर से सोया आलू की सब्जी घर में बनी है तो ये पुरानी पोस्ट आप सबके साथ शेयर कर रहा हूँ आप भी इसे निसंकोच शेयर कर सकते हैं इस सोये आलू से शायद हम जाग सकें ।)

-तुषारपात®™

Saturday 16 January 2016

जुखाम-ए-इश्क

नए साल की
ये सीली सीली जनवरी
रगों में मई-जून की आंच भर रही है
सांसों की चिलम से
छूट रहा है धुआँ ही धुआँ
संभल के रहना ए दिल
जुखाम-ए-इश्क का मौसम है
मर्ज़ से ज्यादा
इलाज़ जानलेवा है इसका ।

-तुषारापात®™

Monday 11 January 2016

वजीर

"वजीर वजीर.."
"जी हुज़ूर..."
"इन दोनों में चोर का पता लगाओ"

ये चार पुर्चियों वाला खेल हम सबने अपने बचपन में जरूर खेला होगा,ऐसा ही एक खेल है विधु विनोद चोपड़ा की नई फ़िल्म 'वजीर' में बस अंतर इतना है कि इसमें आपको वजीर का पता लगाना है फ़िल्म में सस्पेंस बहुत साधारण रखा गया है शायद इसलिए कि सभी इसे आराम से समझ सकें

मूल कहानी विधु विनोद चोपड़ा की लिखी है और बढ़िया लिखी गई है
पूरी फिल्म शतरंज की बाजी तरह बिछाई गई है अमिताभ बच्चन साहब की अदाकारी बेहतरीन है और वो ही इस पूरी फ़िल्म की रीढ़ हैं बाकी फरहान अख्तर भी अपनी बढ़िया छाप छोड़ने में सफल रहे हैं कसा हुआ निर्देशन और सस्पेंस आपको फिल्म से जोड़े रहता है हाँ आखिर के बीस पच्चीस मिनट जो सबसे अहम होते हैं किसी भी फिल्म खासतौर पे सस्पेंसिव मूवी के लिए वहाँ फिल्म ढीली पड़ जाती है जो थोड़ा सा जायका फीका करती है

देश के दुश्मनो का पीछा करते हुए एक एंटी टेररिस्ट स्क्वाड ऑफिसर अपनी मासूम बच्ची को खो देता है उसका दुःख उसकी पीड़ा आपके मन को हिला के रख देगी आगे वो कैसे अमिताभ बच्चन अभिनीत चरित्र पंडित जी के संपर्क में आता है कैसे वो समाज में छुपे सफ़ेदपोश
आतंकवादियों की तह तक पहुँचता है और कैसे पंडित जी के व्यक्तिगत बदले को पूर्ण करता है पूरी फिल्म इसी पर दौड़ती जाती है

निर्माता/कहानीकार ने कोई भी धार्मिक टकराव न हो इसके लिए पड़ी चालाकी से एक मुस्लिम नकारात्मक चरित्र यजाद कुरैशी के सामने एक मुस्लिम नायक दानिश अली को ही रखा है वरना ये फिल्म पंडित जी और कुरैशी के टकराव के कारण हिन्दू मुस्लिम टकराव की कहानी बन सकती थी

यजाद कुरैशी जैसे चरित्र वास्तविक और यहाँ इस आभासी संसार (फेसबुक) में भरे पड़े हैं जो मुँह पे और अपनी पोस्ट में तो बड़ी भाईचारे वाली बातें कहते हैं पर असल में हद से ज्यादा कट्टर और नफरत फ़ैलाने वाले होते हैं जब आप ये फिल्म देखेंगे तो ऐसे कई फेसबुकिया चरित्र आपके सामने खुद ब खुद आ जायेंगे इस चरित्र के लिए ये फिल्म आप जरूर देखें

अमिताभ साहब के निभाए चरित्र पंडित जी का ये डॉयलाग मुझे बहुत पसंद आया :
"चाल का कोई नहीं चालचलन है
दोगलापन ही यहाँ एक नियम है"

ऐसे ही दोहरे व्यक्तितव वाले लोगों से आप स्वयं को बचाएं रखें उनकी चिकनी चुपड़ी बातों में न फंसे अपने विवेक का प्रयोग करें इसी कामना के साथ 'वजीर' को ये शब्दों का एक अदना प्यादा अपनी शह देकर सफेदपोशों को मात देता है।

-तुषारापात®™

Saturday 9 January 2016

मसीहा मुर्गा

"कुक्डुँ.कूँ..कुक्डूँ...कूँSSSS" मुर्गे की एक बाँग के साथ ही गाँव में चहल पहल शुरू हो गई, लोगों ने बाँग लगाने वाले मुर्गे के विशाल दड़बे के सामने मत्था टेका उसे दाने खिलाये और उसके बाद चौक की तरफ तेज क़दमों से आने लगे

"मारो..मारो..इसे पत्थरों पत्थरों पीट डालो...इसने हमारे मसीहा का अपमान किया है...फाँसी..दो..फाँसी...दो"चौक पे बढ़ती जाती भीड़ रस्सियों से पूरी तरह बंधे एक आदमी को पत्थर मार मार कर नारे लगा रही थी

"तुम सब..सब पागल हो..अंधे हो चुके हो..तुम्हारी आँखों के सामने सच है..फिर भी तुमने आँखें मूँद रखी हैं..बहुत पछताओगे सबके सब..बहुत पछताओगे.."पत्थरों की चोट से लहुलुहान हुआ आदमी अपने जख्मों की परवाह किये बगैर उन सबसे चिल्ला चिल्लाकर कह रहा था

"अंधे हम नहीं तू है...तूने हमारे मसीहा..हमारे पैगम्बर...को सूरज से छोटा कहा..जानता नहीं सूरज उसका गुलाम है..तुझे तो सजाये मौत मिलेगी" भीड़ में से एक रौबदार आदमी बोला,जो चाल ढाल से गाँव का मुखिया सा लग रहा था उसकी आवाज आते ही भीड़ नारे लगाना छोड़ के चुप हो गई और उन दोनों की बातें सुनने लगी

"हा हा हा..सूरज और उसका गुलाम...उस अदने का..सूरज जिससे पूरी दुनिया में रौशनी होती है..जिससे हम सबको खाना मिलता है..जिससे दिन शुरू होता है..मूर्ख हो तुम सबके सब..मूर्ख...जाहिलों थूSSSS" न जाने उस आदमी में इतनी हिम्मत कहाँ से थी जो इतनी चोट खाने के बाद भी वो दहाड़ रहा था

मुखिया जैसा शख्श गुस्से से तिलमिला गया "तेरी इतनी हिम्मत...तू कहता है दिन सूरज से शुरू होता है..मरेगा तू..अभी और यहीं मरेगा तू.. तेरी लाश के टुकड़े टुकड़े किये जाएंगे" कहकर उसने तलवार निकाल ली और देखते ही देखते उस आदमी का सर काट डाला

"मसीहा ! मसीहा!" भीड़ ख़ुशी से हाथ उठा उठा कर आवाज लगाने लगी, मुखिया जैसे शख्श ने भीड़ की बात समझ ली,उसने मरे हुए आदमी का सर बालों से पकड़ के उठा लिया और चलने लगा भीड़ उसके पीछे पीछे चलने लगी सारे लोग मुर्गे के विशाल दड़बे के सामने जा कर रुके

"हे हमारे रहनुमा..पाक पैगम्बर..हम सबके दयालु मसीहा...एक पापी कहता था कि आपका गुलाम ये अदना सूरज आपकी नहीं बल्कि अपनी मर्जी से चलता है..उसपे आपका कोई बस नहीं है..जबकि हम सब जानते हैं कि वो आपकी एक आवाज पे निकल आता है और एक गुलाम की तरह हमारे लिए दिन भर की खुशियाँ लाता है..आपकी शान में गुस्ताखी करने वाले उस आदमी का सर हम तुझे तोहफे में देते हैं..हम सब पर तेरी रहमत यूँ ही बनी रहे..मेरे मालिक..मेरे ताकतवर मसीहा" मुखिया जैसे उस शख्श ने कटा हुआ सर दड़बे में डाल दिया

"कुकड़ूँ ..कूँ" मुर्गे ने आवाज लगाई और पूरी भीड़ ने मत्था टेक दिया।

-तुषारापात®™

Wednesday 6 January 2016

प्रधानमंत्री और चूड़ियाँ

"प्रधानमंत्री जी...ये चूड़ियाँ...ये चूड़ियाँ..मैं नहीं तोड़ूँगी...नहीं तोड़ूँगी...
ये मेरे वीर पति ने..कुछ दिन पहले ही पहनाई थीं..ये चूड़ियाँ मैं आपको देती हूँ..मैं विधवा बनके नहीं जीना चाहती...आपको मेरे पति से भी बड़ा कोई वीर मिले तो..उससे कहियेगा मुझे पहना दे आकर.."शहीद की बेवा ने रोते रोते लेकिन घुटे हुए गुस्से में जोर से चीखते हुए मुझसे कहा और अपनी कलाइयों से चूड़ियाँ उतार कर मेरी तरफ उछाल दीं

आतंकी हमले में शहीद हुए जवानों के दुःखी परिवारों से मिलने गया था वहीँ ये घटना हुई...सारा मीडिया भी वहाँ मौजूद था...सारे चैनल पूरे दिन भर ये रिकॉर्डिंग बार बार चलाते रहे...वो भी इस पंक्ति के साथ.."शहीद की बेवा ने प्रधानमन्त्री को चूड़ियाँ पहनने को दीं"..मैं अपने कार्यालय में वापस आकर टीवी देख रहा था सारा स्टाफ सकपकाया सा बाहर था..टीवी बंद करके मैं सोचता रहा..सोचता रहा... उस चौबीस साल की शहीद विधवा की आवाज मेरे कानो में गूँजती रही.....

"नायर साहब को भेजिए..मैंने इंटरकॉम उठाया और एक नंबर दबा कर कहा..कुछ ही देर में दरवाजा हलके से थपथपाया गया.."आ जाइये" नायर साहब सामने थे उनको आगे की कार्यवाई मैंने बताई

"लेकिन..पी.एम.सर..आप समझ रहे हैं..न..इससे बहुत जन आक्रोश उछल सकता है.. खासतौर पे मुस्लिम समाज का.."उन्होंने मधुरता से मुझे चेताने का प्रयास किया

"नायर साहब..जो जवान शहीद हुए क्या वो किसी धर्म के लिए शहीद हुए थे..वो शहीद हुए थे....भारत के लिए...अपनी मातृभूमि के लिए...किसी मजहब के लिए नहीं...जिसे जो आक्रोश उठाना है उठाने दीजिये..आप मेरे इस आदेश को त्वरित रूप से लागू करने की व्यवस्था कीजिये..गृह मंत्रालय को इसकी प्रति तत्काल भेजी जाए" कहकर मैंने उन्हें जाने को कह दिया

"हाय हाय..प्रधानमन्त्री हाय हाय.." मेरा आदेश पारित हो चूका था और जैसे लोग तैयार ही बैठे थे,दिल्ली से लेकर बंगाल केरल तक पूरे देश में मेरे विरुद्ध जुलूस निकाले जा रहे हैं..विपक्षी दल भी इस स्थिति को भुनाने में लगे हैं..संसद नहीं चलने दी जा रही हैं..मेरा बयान माँगा जा रहा है.. मीडिया मुझे तानाशाह का ख़िताब दे रही है और देश का बुद्धिजीवी साहित्यकार वर्ग इसे अमानवीय व्यवहार बता बता के अपना विरोध जता रहा है पर मैंने अपना आदेश वापस नहीं लिया,मैं संसद में भी कोई बयान नहीं दूँगा..आज मन की बात कहूँगा...

"देशवासियों..इधर कुछ दिनों से..पूरे देश में मेरे एक आदेश के विरुद्ध बहुत कुछ चल रहा है...पर मैं पूछता हूँ..आप सब लोगों से...आप बताइये कि मारे गए आतंकवादियों के शवों को दफ़नाने की बजाय जलाने का आदेश देकर मैंने कौन सा अपराध कर दिया... अगर आतंकवाद का कोई मजहब नहीं है.. तो हम आतंकवादियों के शवों का अंतिम संस्कार जैसे चाहे करें.. मैं पूछता हूँ आज समुदाय विशेष से वो आतंक का मजहब बताएं.. एक आतंकवादी जब अपने जननांगों पे पत्थर बाँध कर बम के साथ खुद को उड़ा देता और सैकड़ों मासूमों की जान ले लेता है फिर भी सोचता है कि वो जन्नत में बहत्तर हूरों के साथ इश्क करेगा.. हमने उसकी इस सोच पे हमला किया है.. जब उसका अंतिम संस्कार ही..उसके मजहब के हिसाब से ...नहीं होगा तो जन्नत कैसे पहुँचेगा?..अब अगर कोई उनकी इस सोच को सहयोग दे रहा है तो क्या माना जाय... क्या ये माना जाय कि आतंक का मजहब है...उनकी सोच को साथ देने वाले लोगों को देशद्रोही माना जाय... अगर आतंकवादियों की इस सोच को समुदाय विशेष का सहयोग न मिले तो क्या इनकी इतनी हिम्मत होगी ... नहीं होगी...बिलकुल भी नहीं...
आखिर हम सब आतंक के खिलाफ एक जुट क्यों नहीं खड़े हैं....

पश्चिमी देशों में जब कोई ऐसा हमला होता है तो सारे राजनीतिक दल .. पूरी मीडिया...पूरी जनता एक सुर में उसका विरोध करती है और अपनी सरकार को पूरा समर्थन देते हैं जिससे वो अपने देश पे हुए हमले का उत्तर शीघ्र दे पाते हैं.. पर अपने यहाँ.. सरकार को उलटे घेरने का काम किया जाता है... जिन आतंकवादियों को जिन्दा जला देना चाहिए उनके शवों के जलाने पे इतना हो हल्ला..
बहनो और भाइयों..आपके प्रधानमन्त्री ने चूड़ियाँ नहीं पहनी हैं..पर उसके हाथों में...और पैरों में अपने ही लोगों की पहनाई बेड़ियां हैं.. उसे बाहर युद्ध करने से पहले अपने देश के आधे लोगों से लड़ना पड़ता है .. पर अब चाहे कुछ हो जाए इस समस्या को अब जड़ से मिटाना ही होगा.... मेरे इस आदेश से देश और सम्पूर्ण विश्व को अब पता चल गया है कि कौन कौन आतंक के विरुद्ध हैं और कौन आतंकवाद और आतंकियों के पक्ष में है... मजहब के नाम पे आतंक का किसी भी प्रकार का यहाँ तक कि मौखिक समर्थन करने वाले भी..सभी लोग गिरफ्तार होंगें .......
अब हमारी लड़ाई आसान है और इसे हम ही जीतेंगे... जय हिन्द!"

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Tuesday 5 January 2016

विक्रम और बेताल: लोकतंत्र

"विक्रम..फिर आ गया तू छप्पन इंच की छाती लेकर....अपनी हठ छोड़ दे..तू मुझे नहीं ले जा पायेगा..."पेड़ पे उलटे लटके लटके ही बेताल बोला

विक्रमादित्य ने जरा सी देर में ही ही उसे पकड़ लिया और सीधा करके अपने कंधे पे बिठा लिया और अपने राज्य की तरफ चल दिए,आदतानुसार बेताल एक नई कथा सुनाने लगा:

"एक विशाल राज्य जिसके अधीन बहुत सारे छोटे छोटे राज्य हुआ करते थे वहाँ बहुत सारे लोग रहते थे...वे दो वर्गों में विभाजित थे एक वर्ग था बहुसंख्यक और दूसरा था अल्पसंख्यक..और सुन विक्रम उस विशाल राज्य के राजा का चुनाव जनता के बहुमत द्वारा किया जाता था जिसे वो लोकतंत्र कहते थे" बेताल ने ऐसे कहा जैसे कोई बहुत अनोखी बात कही हो

"एक बार उन्हीं छोटे राज्यों में से एक 'उत्तर' राज्य में कुछ बहुसंख्यकों ने अपने पवित्र पशु की हत्या के आरोप में एक अल्पसंख्यक की हत्या कर दी.... राज्य में हाहाकार मच गया..नगर नगर ढिंढोरा पीटा गया...लोग राजा के शाषन पे उँगलियाँ उठाने लगे.. राज्य के विद्वानों ने विरोध स्वरुप राज्य से प्राप्त पुरुस्कार राजा को वापस कर दिए..छोटे राज्य के अधिपति ने मारे गए व्यक्ति के परिवार को एक बड़ी धनराशि प्रदान की..कई दिनों तक सम्पूर्ण राज्य में उथल पुथल रही..कुछ लोग ये भी कहते पाये गए कि आगामी चुनाव के कारण ये सब किया गया"कहते कहते बेताल ने विक्रमादित्य की तरफ देखा पर वो शांत भाव से उसे लादे लिए जा रहे थे

"फिर एक दिन उसी राज्य के अधीन 'वाम' राज्य में बहुत सारे अल्पसंख्यकों ने अपने धर्म के अपमान के विरोध लूटपाट, हत्या आदि कीं..पर इस बार कहीं कोई कोलाहल सुनाई नहीं दिया..किसी ने ढिंढोरा तो क्या मंजीरा तक न बजाया ....इस बार भी कुछ समय उपरान्त चुनाव थे..पर इस बार उस राज्य के किसी विद्वान ने कुछ भी वापस नहीं किया"

"बता..विक्रम ऐसा क्यों हुआ..राज्य में एक ही कानून था पर इस बार वहाँ कोई कोलाहल नहीं हुआ..कोई पुरुस्कार वापस क्यों नहीं हुआ....?
बता विक्रम..बता..जानते हुए भी अगर तूने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया तेरे सर के सौ टुकड़े हो जायेंगे"

"बेताल...क्योंकि..लोकतंत्र में लाखों अल्पसंख्यक जब मुठ्ठी भर बहुसंख्यकों को जान से मारते हैं..तब भी वो अल्पसंख्यक ही कहलाते हैं और राज्य अल्पसंख्यकों के हित के लिए बाध्य है"

"हा हा हा हा..विक्रम तू बहुत असहिष्णु है..तुझसे चुप न रहा गया..ले मैं फिर चला...उल्टा लटकने को उसी विशाल राज्य के लोकतंत्र की तरह" अट्टहास करता बेताल उड़ चला।

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