Thursday 12 October 2017

"सिंदूर का रंग लाल यूँ ही नहीं माँग में कई कत्लेआम हुए होते हैं"

दिन में
चौबीस घंटे होते हैं
पता नहीं
उमर में चौबीस बढ़े
या उम्र से घटे होते हैं
जितनी बार लंबी वाली सुई
करती है परिक्रमा
बस ये मैं जानता हूँ
कितने पल इसमें घुटे होते हैं

अब वो
बहाना भी नहीं रहा
चाय की प्याली को
मुँह लगाना
तुमने छोड़ दिया
शाम को अब भी
तुम्हारे आने की आस में
पाँच चौंतिस की सुइयों के जैसे
देहरी पे घुटने टिके होते हैं

मैंने देखा है
दुपट्टा अब तुम्हारा
बंधा रहता है
चाल में भी
एक सलीका सा है
कोई अरमान
अब न सर उठाता होगा
सिंदूर का रंग लाल यूँ ही नहीं
माँग में कई कत्लेआम हुए होते हैं

कहीं
छिटक गई होंगीं
हमारी मन्नतें
कानों पे रेंगती हैं उसके
रोज लाखों दुआएं
खुदा सुबह से
कंघी करने लगता है
करे क्या वो भी उसके दर पे
मैले कुचैले सर सबके झुके होते हैं

नुक्कड़ के
हलवाई की कड़ाही सी
जिंदगी
चढ़ी है भट्टी पे
तुम्हारे वादों की बारीक जलेबियाँ
सुलझाना आसान है क्या
नजर कमज़ोर और
ऐनक लग नहीं सकता
इस कड़ाही के कान कटे होते हैं 

ये पग
फेरे की रस्म
बनाई
किसने है बताओ तो ज़रा
किसी तरह से हमने
इसको बहलाया था
अभी तो सब ताज़ा ताज़ा था
लाल जोड़े में फिर देखके
ज़ख्म दिल के हरे होते हैं

पढ़ी थी
गणित तुमने तो बताओ
ये सूत्र कितना है मंगल
सोने के दानों को
पिरोया है
काले मनको के साथ
नज़र फेर लेता हूँ जब
मेरी कनक से
काले मनके वो जनाब सटे होते हैं।

-तुषार सिंह 'तुषारापात'