Friday 30 December 2016

क्या कहना

"हेल्ल्लो..लो..ओ. ओ.....वन.टू..थ्री..सांग चेंज...आज मेरे यार की सादी है....आज मेरे यार सादी है...ओSSSSS ऐसा लगता हैSSS जैसे सारे संसार....."ऑर्केस्ट्रा वाला चमकती चाँदी के रंग की लाल टिप्पों वाली शर्ट पैंट पहने,हिमेश रेशमिया के अंदाज में माइक पकड़ के अपना सर झटक झटक के ये गाना गाने लगा,दो तीन उसके साथी भी अपनी पूरी ताकत से ड्रम पीपीरी इत्यादि पे जुट गए और सुरों को असुर बनाने लगे।

ऑर्केस्ट्रा के उस रथनुमा पीपे के पीछे,दूल्हे सुशील के सारे दोस्त देशी माधुरी के ईंधन की ऊर्जा से ओतप्रोत जनरेटर बने थे और गाने पे ऐसे झूम रहे थे मानो होड़ चल रही हो कि किदवई नगर का सबसे टॉप का बाराती नचनिया कौन है,उनके पीछे,लड़कियाँ,महिलाएं सौंदर्य प्रसाधन की दुकान बनी,डांस करते लड़कों को देख मंद मंद मुस्कुरा रही थीं,कोई कटरीना की तरह का लाचा तो कोई बाजीराव मस्तानी की दीपिका वाले लहंगे की सस्ती नकल पहन के इतरा रही थी, महिलाएं छपरे वाले गहनों से लदीं थीं जो बस देखने में ही भारी लगते थे,थे बहुत ही हल्के असली होने की गारंटी भी नहीं थी वैसे भी बारात में कोई कसौटी लेकर तो चलता नहीं,इसलिए सब अपने अपने गहनों को दिखाने में मन धन और तन से दिखाने में लगीं थीं।

उनके आसपास कुछ ऐसे भी बाराती थे जिनका मन नाचने को हो रहा था मगर अपनी इमेज मेंटन करने के चक्कर में अपनी नाक ऊपर किये चल रहे थे और कुछ ऐसे थे जो डर रहे थे कि नाचते लोगों में से कोई उन्हें देख के नाचने को न बुला ले, ऐसे लोगों की चाल में सकुचाहट थी,बारात के दोनो बार्डर पे कई औरतें लाइट को अपने सरों पे ढोते हुए चल रहीं थीं उनपे भला किसी का ध्यान क्यों कर होता ,जो रोशनी अपने सरों पे ले के चलते हैं उनके चेहरे हमेशा अँधेरे में रहते हैं।

निम्न मध्यमवर्गीय ये बारात मूलगंज चौराहे से रामबाग की कन्हैयालाल धर्मशाला की ओर बढ़ रही थी और संकरी मेस्टन रोड पर जाम लगाने में पूरी तरह सहायक सिद्ध हो रही थी।

घोड़ी पे बैठे दूल्हे राजा सफ़ेद कलर का सूट पहने हल्के नशे में थे उनके गले में दस दस के नोटों से बनी माला पड़ी थी अब बारात में उन्हें ये माला पहनने की सलाह किस जीजा ने दी ये विषय यहाँ छोड़ देते हैं,आसपास की दुकानों के और आते जाते लोग बारात का पूरा स्वाद अपने चक्षुओं से ले रहे थे, बारात ताकने वाली भीड़ में एक उच्च मध्यम परिवार के कुछ लोग जिनकी कार सड़क के बीच वाली पार्किंग में फँसी थी दूल्हे को देख आपस में बोले "ये दूल्हा तो नशे में लगता है...ये लोग अपनी शादी को भी नहीं छोड़ते...चरसी कहीं के..." तभी उनमें से एक बोला "ओह माय गॉड लुक ऐट हर... ये तो प्रेग्नेंट लगती है...ऑ.. बेचारी फिर भी इतनी भारी लाइट सर पे उठाए जा रही है.." सबने उस ओर देखा और अपने अपने मोबाइल से उस गर्भवती महिला की धड़ाधड़ तस्वीरें लेने लगे।

घोड़ी पे बैठे सुशील का ध्यान उन फोटो खींचते लोगों पे गया और उसने उस महिला को भी देखा,वो उतरना चाहता था पर थोड़ी सकुचाहट और जाम लग जाने के डर से नहीं उतरा पर उसका मन बेचैन सा हो चुका था,धीरे धीरे बारात आगे बढ़ के कॉनपोर कोतवाली के सामने पहुँची वहाँ रास्ता चौड़ा होने के कारण रोड पे काफी जगह थी वो झट से घोड़ी से उतरा और भाग के उस लाइट उठाये औरत के पास पहुँचा उसने देखा कि करीबन 30 या 32 साल की वो महिला पेट से थी और बोझ उठाने के कारण इतनी सर्द रात में भी पसीने से तर थी सुशील का हाथ अपने गले में पड़ी नोटों की माला पे गया,माला तोड़ के उसने महिला के कंधे पे रखी और उसके सर से लाइट उठा के अपने हाथों में पकड़ ली।

बारात को अचानक ब्रेक लग गए ऑर्केस्ट्रा रुक गया सुशील के पिताजी दौड़ते हुए उसके पास आए और पूछा क्या हुआ तो उसने कहा "बाबू...सभी लाइट वाली औरतों का पूरा हिसाब कर दो.. और रिक्सा का पैसा भी दीजियेगा...बारात अब बगैर लाइट के आगे जायेगी..और इन सबसे कह दो खाना खा के ही जाएं" यह कहकर रौशनी के गुलदस्ते को जमीन पे रख वो घोड़ी की ओर जाने लगा उसके दोस्त नाचना छोड़ के उसके पास आए और पूछने लगे "क्या हुआ बे...उसके साथ फोटू खींचा रहे थे क्या.. नशा ज्यादा करे हो का"

सुशील उन्हें देख के बस मुस्कुराया और बुदबुदाते हुए घोड़ी पे चढ़ गया" बड़का लोग अच्छी बात करते हैं..फोटू भी अच्छी खींचते हैं बस करते कुछ नहीं...फेसबुकिया नशेड़ी कहीं के"

बारात बगैर लाइट के आगे बढ़ने लगी,ऑर्केस्ट्रा फिर शुरू होता है "ये देस है वीर जवानों का...अलबेलों का...मस्तानों का... इस देस का यारों... होSSSय...
क्या कहना.............................।"

#तुषारापात®™

Monday 26 December 2016

कुकड़ूँ कूँ

गुस्साया सा तेज तेज कुकड़ूँ कूँ कुकड़ूँ कूँ क्यों करता रहता है
सुबह का सूरज देसी मुर्गे को अपने अंडे की जर्दी सा लगता है

-तुषारापात®™

चकरघिन्नी

नया साल आ गया है आ गया है,कहना कितना सही है मुझे नहीं पता क्योंकि मैं तो इसे अभी पुराने साल में ही लिख रहा हूँ और आप इस लेख को नए साल में पढ़ रहे हैं, कुछ अजीब नहीं लगता? ऐसा नहीं लगता मैं पिछले साल में ही आपको नए साल में ले आया हूँ या यूँ कहें कि जो समय अभी भविष्य में है मतलब जिसका पता ठिकाना ही नहीं उसमें मैं अपने शब्द भेज के अपने लिए आने वाले उस समय को भूतकाल बना चुका हूँ।

नहीं नहीं साहब मैं पागल नहीं कमअक्ल लेखक ही हूँ चलिए इस अजीबोगरीब भूमिका के बाद अब कुछ आगे की बात आपसे करते हैं,मैं दिसम्बर में बैठा हूँ और आप जनवरी में बैठे हैं और अब जरा सा और दिमाग लगाइए मैं अभी ये लिख रहा हूँ तो ये मेरा वर्तमान हुआ और आप इसे अभी पढ़ रहे हैं तो ये आपका वर्तमान है,लेकिन मेरा वर्तमान (इस लेख को लिखना) आपके लिए भूत हुआ और आपका वर्तमान (इसे पढ़ना) मेरे लिए मेरा भविष्य हुआ,हा हा हा खा गए न चक्कर? मेरे दोस्त यही है समय का चक्र और इसी चक्कर को हमें समझना है।

हर बार कैलेंडर बदलता है हर साल साल बदलता है किसी का जनवरी में तो किसी का अप्रैल में किसी पंडित का चैत्र में तो किसी विद्यार्थी का जुलाई में साल बदलता है जन्मदिन पर एक साल बदलता है शादी की सालगिरह पर साल बदलता है आदि आदि, कहने का मतलब है समय के चक्र में सबने अपनी अपनी रंगबिरंगी तीलियाँ लगा दी हैं एक चक्कर पूरा करके जब उनकी पसंदीदा रंगी तीली उनके सामने वापस आ जाती है उनके लिए उनका साल बदल जाता है

पर ये साल बदलने से कुछ होता भी है या हम फालतू में ही इसके आने का जश्न मनाते हैं आपका साल चाहे जिस भी तारीख को बदलता हो पर जब बदलता है तो आपकी सोच बदलती है विकसित होती है अब सोच दो तरह की होती है नकारात्मक और सकारात्मक,हम जश्न मनाते हैं क्योंकि हम सकारात्मक सोचते हैं अब कुछ लोग कहेंगें काहे का जश्न उलटे उम्र से एक साल कम हो गया तो उनसे कहना चाहूँगा कि तो तुम जाने वाले साल के लिए जश्न मनाओ इसलिए मनाओ क्योंकि गए हुए साल में तुम बचे रहे एक साल और जी लिया तुमने

मतलब साफ़ है सदा अपनी सोच को पॉजिटिव बनाए रखना है, ऊपर मैंने इसीलिए जिक्र किया कि मैं ये लेख पुराने साल में लिख रहा हूँ कि नए साल में आप इसे पढ़ेंगे आखिर कौन सी चीज है जो मुझे इतना विश्वास देती है कि ये छपेगा और आप तक पहुँचेगा ही वो एक चीज है उम्मीद एक लेखक की उम्मीद अपने पाठक तक पहुँचने की, बस यही उम्मीद जगाता है आने वाला नया साल, और जब तक उम्मीद है दोस्तों ये दुनिया कायम है।

समय एक पेड़ की तरह है जिसमें फल लगते हैं कुछ नए पत्ते निकलते हैं कुछ पुराने पत्ते गिरते हैं और ये प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है हमारा साल बदलना बस उस समय का एक छोटा सा पल है जिसमें हम हिसाब करते हैं कि कितने पत्ते टूटे कितने नए खिले, टूटे पत्तों पे गम न करो हताश मत हो ये मत सोचो कि हाय कितने फल हम खा न सके बेकार गए बल्कि ये सोचिए कि कितने नए फल उगेंगे जो हमारी झोली में आएंगे, साल हमारी बनाई इकाई है हमें इसे धनात्मक रखना है गया हुआ समय कहीं गया नहीं है वो आप मेंसे किसी बच्चे की लंबाई में बदल गया है तो किसी के बालों की थोड़ी सी सफेदी में कैद है अब ये आप पर है कि आप सफ़ेद बालों पे दुखी हों या फिर शान से कहें कि ये बाल मैंने धूप में सफ़ेद नहीं किये हैं।

अच्छा किसी बरहमन ने आपको बताया कि ये साल अच्छा है?
मैं कहता हूँ कि सबके लिए आने वाला साल अच्छा है जब कुछ अच्छा होता न दिखे तो समय के चक्र में से अपनी रंगीन तीली निकालकर उस जगह के थोड़ा पीछे लगा के उसे बीता साल बना दो और अपना साल बदल लो और फिर कहो ये साल तो अब अच्छा है बस उम्मीद और विश्वास की इस चकर घिन्नी को रुकने नहीं देना है हर साल अच्छा ही होगा।

तो आने वाले इस नए साल के लिए आप सभी को ढेरों शुभकामनाएं।

(कर्म दर्शन पत्रिका के मेरे कॉलम ऑफ दि रेकॉर्ड के लिए भेजा
है,एडिटर साहब ने मेल पर रिप्लाई किया छपेगा तो जरूर बस आप चरस अच्छी वाली पिया करें :) )

-तुषारापात®™

Friday 23 December 2016

नाम

ताबिश,अब्बास,मोईन,बिलाल,शहजाद,अकरम,फैजल,इत्यादि से क्या पता चलता है? अच्छा असित,अमित,अव्यक्त,विजय,तुषार,वरुणेन्द्र, सिद्धार्थ,प्रदीप इन नामों से क्या पता चलता है? पहली नजर में आप सब एक साथ कहेंगें कि पहली पंक्ति के नाम मुस्लिम मजहब के लोगों के हैं और दूसरी पंक्ति के सभी नाम हिन्दू धर्म का पता देते हैं

तो मोटे तौर पे हम ये कह सकते हैं कि नाम का पहला शब्द धर्म का स्पष्ट/अस्पष्ट पता देता है अच्छा अब आते हैं नाम के दूसरे शब्द पे जो कि सरनेम होता है जैसे अहमद,जाफरी,शेख या चतुर्वेदी,मिश्र, सिंह आदि आदि इनसे क्या पता चलता है मोटे तौर पे ये जातिसूचक शब्द होते हैं जो दादा से पिता को और पिता से पुत्र को प्राप्त होता है

पहले नक्षत्र आधारित नाम की व्यवस्था हुआ करती थी प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं जिसका एक अलग अलग अक्षर होता है (मात्रा सहित) बालक नक्षत्र के जिस चरण में जन्म लेता था उसी चरण वाले अक्षर से आरम्भ होने वाले नाम दैवज्ञ (ज्योतिषी,पंडित) सुझा देते थे जिससे उस व्यक्ति के जन्म के समय का भी मोटा मोटा पता चलता था,इतनी लंबी भूमिका से तात्पर्य ये है कि जाति, नाम आदि समाज के वर्गीकरण की प्रक्रिया थी लेकिन दुर्भाग्य से उसे हमने विभाजन मान लिया तब सामाजिक सरंचना उतनी जटिल नहीं थी और जनसंख्या विरल थी अतः यह प्रक्रिया चलती थी पर आज समाज अत्यंत जटिल स्वरूप में है बाकी सब छोड़ भी दिया जाए तो भी नाम अभी भी अपना एक अलग महत्व रखता है लेकिन ये सब कुछ नहीं है।

अपने जिगर के टुकड़े को आप घर में कुछ भी प्यार से अजीब अजीब संबोधन से बुलाते हैं कुछ घरों में अभी भी पिता अपने सबसे बड़े पुत्र को भइया कहके बुलाते हैं उसका नाम नहीं लेते पर नाम बाहर वालों के लिए रखा जाता है नाम व्यक्तिगत नहीं सार्वजनिक संबोधन है इसलिए नामकरण अत्यधिक सतर्कता से करना चाहिए विशेष तौर पे उन्हें जिनका प्रत्येक कार्य समाज के एक बड़े हिस्से पर प्रभाव छोड़ता हो उन्हें जन भावना को आहत करने वाले नामों से बचना चाहिए पर ये कोई अंतिम सिद्धान्त नहीं है कि उन्हें ऐसा करना ही चाहिए।

नामकरण को लेकर बुद्धिजीवियों द्वारा पक्ष विपक्ष में कई तर्क कुतर्क दिए जा रहे हैं हालाँकि मैं तब लिख रहा हूँ जब ये मामला ठंडे बस्ते में जा रहा है लेकिन मैं इस मुद्दे पे नहीं इस प्रवृत्ति पे लिख रहा हूँ तो बुद्धिजीवियों नाम एक अति महत्वपूर्ण स्थान रखता है नाम हमें पशुओं से अलग करता है घोड़े घोड़े होते हैं शेर शेर होते हैं इसी प्रकार भेड़ों के झुण्ड होते हैं लेकिन मनुष्यों में सत्यपाल,अबोध, सुबोध,मुश्ताक आदि आदि होते हैं क्यों तुम भेड़ के झुण्ड बने जा रहे हो कुछ और रचनात्मक लिखने को शेष नहीं है तुम्हारे पास,तनिक विचार करना,किसी भी विषय पर अत्यधिक समाधन प्रस्तुत करना कभी कभी उस समस्या को और बढ़ा देता है।

और अंत में नाम को लेकर बवाल मचाने वालों से बस एक पंक्ति कहना चाहूँगा "तुम्हारी भावनाएं कभी आहत नहीं होती तुम बस भावनाएं आहत होने का ढोंग करते हो, और तुम्हारे इसी आडम्बर के ढोल की कर्कश ध्वनि में तुम्हारी तूती के गौरवपूर्ण सुर विलुप्त हो रहे हैं।

-तुषारापात®™

Wednesday 21 December 2016

भाभी

"वाह...मजा आ गया...खाना तो जबरदस्त है ..ये दोनों सब्जियाँ मेरी पसन्दीदा हैं..भाभी..इस बार अगली कहानी आप पर" मैंने खुशी से चटकारे लगाते हुए कहा

किचेन के अंदर से भाभी की आवाज आई "वाकई में...या यूँ ही अपनी बीवी के सामने मेरी तारीफ की जा रही है...इसे जलाने के लिए" मैं कुछ कहता इससे पहले किचेन में उनका हाथ बँटा रहीं मेरी पत्नी जी बोल उठीं "और मैं जो रोज खाना बनाती हूँ...मुझपे तो आजतक एक भी कहानी नहीं लिखी गई"

"तुम पे तो अपनी आत्मकथा में लिखूँगा... कि कितनी बार बेकार खाने पे मुझे जबरदस्ती तारीफ करनी पड़ी...सच्ची आत्मकथा होगी तो ज्यादा पसंद की जायेगी" इस बात पे सभी के ठहाके गूँजे

"आप दोनों की शादी के 22 साल पूरे हो गए न...जानतीं हैं ये मुझे इसलिए याद रहता है...क्योंकि उस साल..हम आपके हैं कौन की धूम थी...और देखो रेणुका शहाणे से भी अच्छी और सुंदर भाभी हमारे घर को मिलीं...वैसे ये मैं तभी बोलना चाहता था पर छोटा होने के कारण कह नहीं सका..आपने इस घर को अपने प्यार से बाँध के रखा..आप तो एक आदर्श भाभी हैं बिल्कुल सूरज बड़जात्या की फिल्मों की तरह" मैंने डोंगे से पनीर की सब्जी लेकर अपनी कटोरी लबालब भरते हुए कहा

भाभी और पत्नी जी दोनों अब रोटियाँ सेंककर अपनी अपनी थाली लगा के मुझे और भैया को ज्वाइन कर चुकीं थीं भाभी ने डायनिंग टेबल पे बैठते हुए कहा "चलो चलो..तब तो महाशय डॉली के आगे पीछे देखे जाते थे...वो गाना याद है...काफी दिनों तक हम लोग तुम्हें 'डॉली सजा के रखना' गा गा कर चिढ़ाते रहते थे"

"भाभी...श..श...बीवी के सामने सीक्रेट्स नहीं खोलते...वैसे भी तब मैं एफिल टॉवर के जैसे सींकिया हुआ करता था...और वो आपके मामा की लड़की डॉली गोलकुंडा का किला लगती थी..अपनी तो ये 'संगम की नाँव' अच्छी है" मैंने पत्नी जी की तरफ थोड़ा सा घी बढ़ाते हुए कहा

"वैसे देवर के राइटर होने का इतना फायदा तो मिलना ही चाहिए... अच्छा ये तो बताओ तुम्हारी कहानी में मेरा किस तरह गुणगान होगा.." भाभी ने भैया की तरफ देखते हुए कहा भैया शान्त गाय की तरह खाना खाने में लगे रहे

"उसमें कोई सेंटिमेंटल..या बढ़ा चढ़ा के बात नहीं होगी..जब भी देवर भाभी के रिश्ते की बात आती है...तो या तो उसे हँसी मजाक के रिश्ते का नाम दिया जाता है या पता नहीं क्यों..एक जबरदस्ती की सफाई सी देती हुई आदर्श बात जरूर जोड़ी जाती है...कि भाभी माँ जैसी होती है...या माँ के समान होती है... न साली आधी घरवाली होती है और न ही भाभी आधी माँ होती है...हम अतिश्योक्ति में क्यों जीते हैं... जैसे माँ का एक अलग रिश्ता है बहन का अलग रिश्ता होता है वैसे ही भाभी सिर्फ भाभी होती है..और इस शब्द का अपना अलग महत्व है अलग पद है..इसे बयां नहीं किया जा सकता...रिश्ते परिभाषित करने से बनावटी हो जाते हैं..." शायद मेरे अंदर का साहित्यकार जाग गया था

"वाह क्या बात कही...सही है प्रेम के अनेकों रूप हैं...माँ पापा भाई बहन सबसे हम प्रेम करते हैं पर इनकी व्याख्या नहीं करते..जहाँ व्याख्या करनी पड़े वहाँ प्रेम अपना स्वरूप खो देता है...अच्छा खाना क्यों रोक दिया...रुको ये रोटी वापस रखो ये लो ये गर्म है.." उन्होंने मेरी थाली से ठंडी रोटी हटा के कैसरोल से गर्म रोटी रखते हुए कहा

काफी देर से चुप भैया बोले "हाँ और इस प्रेम में समय समय पर भैया की जेब से निकालकर देवर को शाहरुख़ खान स्टाइल के कपड़े खरीदने के लिए पैसा देना भी शामिल है" एक बार फिर से सबके ठहाके गूँजे

"वैसे भाभी मैंने कभी आपसे कहा नहीं...आज कहता हूँ ..आप बिल्कुल ख़ामोशी वाली वहीदा रहमान की तरह लगतीं हैं...वही ग्रेस वही सौंदर्य... सदाबहार हैं आप इन बाइस सालों में जरा नहीं बदलीं..कसम से आपको तो संतूर का ऐड करना चाहिए" उनकी तारीफ कर मैंने भैया को चिढ़ाया

"हाय...वहीदा रहमान...मतलब...ख़ामोशी फिल्म में जैसे वो हो गईं थीं...मैं भी पागल हो जाऊँगी" उन्होंने हँसते हँसते कहा

मैंने बड़ा संजीदा सा चेहरा बनाते हुए कहा "वो तो आप पहले से थीं वरना भैया से शादी क्यों करतीं"

"वो तो मुझे तुम्हारी भाभी बनना था न इसलिए...वरना कौन इनसे शादी करता" और उनकी हाजिरजवाबी से एक बार फिर मैं लाजवाब हो चुका था।

#रिश्तों_में_शब्दों_की_अतिश्योक्ति_नहीं_भावों_की_अभिव्यक्ति_होनी_चाहिए
(पसंद आये तो शेयर करिये अपनी अपनी भाभी के लिए उन्हें अच्छा लगेगा)
#तुषारापात®™ उनके लिए जिनके लिए हमेशा तुषार रहूँगा छोटा वाला।

Thursday 15 December 2016

इकाईयों को हासिल नहीं मिलते

"आज दोपहर वो खुद ही आकर दे गया...सबको इनवाइट किया है...मिसेज खान विथ फॅमिली" ऑफिस से लौट के वो डाइनिंग टेबल पर रखे कार्ड को उठा के देख ही रही थी कि पीछे से उसकी माँ बोल उठीं

कहीं बहुत गहराई से उसकी आवाज निकली "हूँ..." उसने एक गहरी साँस ली पर छोड़ी बहुत आहिस्ता से,धीरे से पर्स टेबल पे रखा,बाल खोले और कुर्सी ऐसे खींची कि बिल्कुल भी आवाज न हो और खींच के उसपे हौले से बैठ गई,कार्ड अभी भी उसके हाथों में था "हासिल वेड्स...." आगे के नाम को उसने पढ़ा नहीं... तख़्त दान में देने वाले ये नहीं देखा करते कि उनके बाद उसपर कौन बैठा

"इक्कु...आज तेरा जन्मदिन है बेटा...और आज ही वो अपनी शादी का कार्ड दे गया....और शादी अपने जन्मदिन पर कर रहा है...ये सब क्या है...?" अम्मी ने चाय की प्याली उसके आगे रखते हुए कहा

"कुछ नहीं..." उसने कहा और आधी बात धीमे से बुदबुदाई "ये तोहफा है एक दूसरे को हमारे जन्मदिन का..." कहकर उसने चाय का एक घूँट भरा और निगलते ही कुछ ही दिन पुरानी हुई यादें उसके सीने में जलने लगीं

"इकाई...तुम होश में तो हो...यहाँ मैं तुम्हारे जन्मदिन 9 दिसम्बर पर सोच रहा था कि सबको ऑफिसियली बता दूँगा कि हम दोनों बहुत जल्द शादी....और तुम कह रही हो ये सब भूल जाऊँ...तुम मुझसे शादी नहीं..." हासिल ने उसके दोनों कंधे पकड़ के उसे झंझोड़ते हुए कहा

वो पत्थर की बनी बैठी रही बस उसके लब हिले " 9 नम्बर का रूलिंग प्लानेट मंगल होता है जो सेनापति है और सेनापति को ताज नहीं मिला करता....उसे अपनी सेना के लिए लड़ना होता है बस"

"तुम और तुम्हारी ये ब्लडी न्यूमरोलॉजी....देखो इकाई मैं जानता हूँ हमारी शादी आसान नहीं है...तुम्हारे पापा के जाने के बाद से...बट यू डोन्ट वरी... तुम्हारे घर का खर्च भी मैं उठा लूँगा और तुम्हारी दोनों बहनों की शादी भी अच्छे से...हम करवाएंगे न...याSSSर.." सब्र से काम लेते लेते आखिर में वो फिर से चीख उठा

"मैं फैसला कर चुकी हूँ...मैं किसी से भी शादी नहीं करूंगी" इकाई ने पथराई आँखों से कहा

"मैं तो ये भी नहीं कर सकता मेरी अम्मी का कोई ठिकाना नहीं कब वो चल बसें...ठीक है...अब तुम्हारे जन्मदिन पर ही..इकाई...मैं अपनी शादी का कार्ड भेजूँगा...और हाँ शादी भी अपने जन्मदिन 13 दिसम्बर को ही करूँगा...इस तरह हम दोनों के लिए एक दूसरे को याद करके रोने के दो ही दिन रहेंगे..दो नए दिन नहीं जुड़ेंगे" हासिल ने सरेंडर कर दिया हासिल की मर्जी नहीं चलती उसे तो अगले नम्बर पर जाना ही पड़ता है

अचानक चाय से इकाई के होंठ जले तो वो वापस आई उसकी अम्मी कुछ कहे जा रहीं थीं पर उसके कानों में कुछ नहीं जा रहा था उसने धीरे से कहा "9 अंक की इकाई सबसे बड़ी होती है अम्मी..उसमे अगर एक भी जुड़ जाए तो वो जीरो हो जाती है..और अगर कुछ और वो जोड़ ले तो वो छोटी हो जाती है फिर उससे छोटी इकाइयों का क्या होगा...और वैसे भी अम्मी..इकाइयों को हासिल नहीं मिला करते" और अपने कमरे में जाकर दरवाजा बंद कर लिया,लेकिन इस बार दरवाजा बंद करने की आवाज बहुत जोर से आई।

-तुषारापात®™

Tuesday 29 November 2016

आलपिनों की मूठें

आओ बैठें साथ जरा देर
किस्सों के आँगन में
अल्फ़ाज़ों से बुनी चटाई पे
धूप का हुक्का पीते हैं
फिर शाम उतर आएगी
रात की बाहें थामे हुए
ओस की नन्हीं बूँदों से
इन दोनों आँखों में
इक इक माला बन जायेगी
चाँद के हवन कुंड में
सूरज जब आएगा
उनचास फेरों के बाद
फिर पग फेरे को
तुम अपने घर चली जाना
हर दफे टूटता ये ख्वाब
हर बार एक सितारा बढ़ता है
ऊपरवाले के ब्लैकबोर्ड पे
फिर नई अर्जी टँकती है
जो दिखती सितारों की पट्टी
वो आसमान के सीने पे
चमकती आलपिनों की मूठें हैं।

#तुषारापात®™

Monday 28 November 2016

समय सारणी

"छी.. कितना गन्दा है...कभी साफ भी कर लिया करो..तुम्हारे रूम में कोई एक चीज है जो अपनी जगह पे हो...ये क्या है... यक.. सिगरेट के इतने सारे फिल्टर ग्लास में बची हुई चाय में तैर रहे हैं..." सारणी को उसके रूम में आए दो मिनट बीते थे और वो चार बातों पे उसकी क्लास ले चुकी थी

"मैडम...बैचलर्स के रूम ऐसे ही होते हैं...जब हमारी कोई गर्लफ्रेंड न हो तो लड़कियों के पीछे पीछे भागने में और अगर हो जाए तो उसे घुमाने शॉपिंग कराने में ही सारा टाइम निकल जाता है...अब लड़के लड़की सेट करें या रूम" समय ने उसकी कमर पे चुटकी काटने की कोशिश की पर वो एक तरफ हट गई

"तो क्या...हम लड़कियाँ भी तो उतने टाइम बाहर रहती हैं..फिर भी कॉलेज और बॉयफ्रेंड दोनों को मैनेज करने के साथ रूम भी सेट रखती हैं" कहकर सारणी ने सिगरेट फिल्टर्स को बाहर फेंका और ग्लास को धो के रख दिया उसके बाद बेड पे पड़े उसके कपड़े तह करके अलमारी में रखे इधर उधर पड़े न्यूज पेपर्स समेट दिए और कमरे को जितना भी सुधारा जा सकता था उतना सुधार दिया

"लड़कों को और भी कई टंटे होते हैं जो सेटल करने होते हैं..कोई मुंहबोली बहन को छेड़ रहा हो तो उसे अच्छे से समझाना या आएदिन किसी न किसी भाई का दिल टूटता रहता है तो हमें उसके लिए बीयर की बोतलों का काँधा भी अरेंज करना होता है..और पूरी पूरी रात बैठ कर साले की बकवास से भरी पूरी प्रेम कहानी बार बार सुननी होती है...तुम क्या जानो तुम लड़कियों ने हमारा जीवन कितना अस्त व्यस्त कर रखा है...लेकिन फिर भी चूँ तक नहीं करते...और मेरे केस में तो तुमने वो बात तो सुनी ही होगी कि समय बड़ा बलवान होता है" समय ने डायलॉग मारा और सिगरेट मुँह से लगाकर सुलगाने को माचिस ढूंढने लगा

सारणी अपने होंठ उसके होंठों के पास ले आई समय ने सोचा कि शायद आज उसकी किस्मत खुल गई है और उसने अपने होंठ खोल दिए सिगरेट नीचे गिर गई और सारणी ने झट से सिगरेट उठाकर तोड़ के फेंक दी और उससे दूर होते हुए बोली "समय बलवान होता है पर अगर सारणी से बंधा न हो तो इधर उधर यूँ ही बेकार में खर्च हो जाता है"

समय ने उसका हाथ पकड़कर उसे अपने पास बैठा लिया और धीरे से उसके नजदीक जाकर बोला "रूम में सफाई के अलावा कुछ और..काम..भी किये जा सकते हैं" सारणी ने उसे जोर का धक्का देते हुए कहा "हाँ रूम में कुछ खाने को बनाया जा सकता है"

"लग रहा है मैं अपनी गर्लफ़्रेंड को नहीं...माँ को ले आया हूँ.... बनाओगी क्या..सिर्फ मैगी और चाय बनाने का जुगाड़ है अपने पास" उसने एक कोने में पड़े मैगी के पैकेट की ओर इशारा करते हुए कहा सारणी ने दो पैकेट उठाए और एकमुखी चूल्हे पर जो सिलेंडर से ही जुड़ा रहता है उसपर पानी गर्म होने को पैन चढ़ा दिया

"मैगी ही खाना था तो बाहर ही खा लेते...रूम में आकर कोई गर्लफ्रेंड खाना बनाती है क्या" समय ने बनावटी गुस्से वाली शक्ल बनाते हुए कहा

"खाना खाना बनाएंगे तभी तो हमारी 'समय-सारणी' बन पायेगी" सारणी ने उसे बाँहों में लेते हुए कहा

मैगी बनने में दो मिनट लगते हैं इन दो मिनट में समय सारणीबद्ध हो रहा था।

#समय_सारणी
#तुषारापात®™

Monday 21 November 2016

चाँद पर लिखना छोड़ दो

"सुनो...कोई फिर से चाँद खुरच रहा है.." बारह बजे रात मेरे कान में फुसफुसाती है,मैं लिखना छोड़ के ऐसी कोई आवाज सुनने की कोशिश करता हूँ काफी देर चाँद की ओर कान लगाए रहने के बाद भी जब कुछ नहीं सुनाई दिया तो उसको डाँटते हुए कहता हूँ "रात!..तेरे इन सारे हतकंडो से वाकिफ हूँ मैं...देख...काम करने दे मुझे... तंग मत कर"

वो सहम के चुपचाप घड़ी की सुई पे जाकर बैठ गई मैं फिर से लिखने लगा अभी आधी ही लाइन लिखी थी कि वो फिर से बोली
"ये देखो...चाँद चीख रहा है...आह!...कितनी जोर जोर से...सुनो तो...सुनो..जरा" मैं लिखता रहा मेरे लिए ये रोज की बात है रात हमेशा मुझे लिखने से रोकने को कुछ न कुछ करती रहती है

"सच कह रही हूँ...जरा सुन तो...बस एक बार उसकी दर्द में डूबी आवाज सुनने की कोशिश तो कर...उफ़ इसकी ये चीखें मुझे सोने नहीं देती....ओ कलम घिसने वाले...सुन...चाँद की चीखें रात को सोने नहीं देती...नहीं सोने देती..."उसकी आवाज ऐसी थी जैसे किसी अपने के दुःख में डूबा और भीगा कोई कई सदियों से सोया न हो,लिखना छोड़ कर पता नहीं क्यों मैं इस बार बहुत ही धीमी आवाज में उससे बोला "पर ऐसी कोई चीख मुझे क्यों नहीं सुनाई देती..."

मेरे लहजे में आई नरमी से उसकी हिम्मत बढ़ी "तुम चलोगे उसके पास...देखना चाहोगे...चाँद को चीखते हुए"

"ह..हाँ..पर कैसे?" मैंने हड़बड़ाते हुए पूछा

वो बड़ी वाली सुई से उतर के पेंडुलम पे आके बैठ गई और मुझे अपना हाथ देते हुए बोली "बस तुम इस घड़ी के पेंडुलम पर नजर जमाये रखना...मैं इसपर तुम्हें बिठाके चाँद के पास ले चलूँगी"

और अगले ही पल हम चाँद पे थे,मैंने देखा चाँद की पीठ पे बहुत सारे जख्म थे जैसे किसी आदमी की पीठ पे चाकू छुरी तलवार वगैरह से सैकड़ों वार किए गए हों उसके कुछ जख्म पपड़ी बनकर सूख चुके थे कुछ गहरे थे तो कुछ हल्के हल्के से थे एक बिल्कुल ताजा घाव था जिससे चाँदनी रिस रही थी चाँद कराह रहा था

मुझे देखते ही वो रुआँसा हो कहने लगा "तुम्हारी और मेरी एक जैसी है मैं अपनी पीठ पे धूप झेलता हूँ और चाँदनी देता हूँ और तुम अपने सीने में जख्म रखते हो और कहानी कहते हो...दुनिया हमारे मुस्कुराते चेहरे देखती है..पर भीतर के जख्म नहीं...पर मेरे भाई तुमको तो मेरी चीखें सुननी चाहिए थीं..."

अपने हमजख्म से ये बात सुन मैं थोड़ा शर्मिंदा हुआ पर उसके जख्मों का क्या राज है इस जिज्ञासा में ज्यादा था उससे पूछा "पर तुम्हें ये इतने सारे जख्म किसने दिए?आखिर..ये माजरा क्या है?"

"तुम अभी क्या कर रहे थे....?" उसने मेरे सवाल के जवाब में सवाल किया, एक पल को मैं चौंक गया और अगले ही पल राज जान गया बस पक्का करने को उससे एक बात पूछी "ये जो जख्मों के बीच ...थोड़ी थोड़ी...मरहम पट्टी दिख रही है..वो..गुलजार ने की है?"

उसने कोई जवाब नहीं दिया पर उसके लबों पे आई दर्द के साथ हलकी सी मुस्कुराहट ने मुझे गहराई से सब समझा दिया,रात मुझे वापस मेरे कमरे में ले आई,मेज पर रखी अपनी डायरी के जिस पन्ने को लिखते लिखते अधूरा छोड़ गया था डायरी से उसे नोचा और उसके टुकड़े टुकड़े करके डस्टबिन में फेंक दिए...चाँद की चीखें बंद हो चुकी थीं...रात अब चैन से सो रही है।

#चाँद_पर_कलम_नश्तर_की_तरह_चलते_हैं
#चाँद_पर_लिखना_छोड़_दो
#तुषारापात®™

Tuesday 15 November 2016

उस्ताद-ए-फन-ए-रेख़्ता

हम मस्जिद से क्या जुदा हो गए
इबादती सारे खुद खुदा हो गए

लड़खड़ातें हैं जो एक जाम में
उनके अपने मयकदा हो गए

तुम्हारी बातों में लगता है दिमाग कहकर
वो किसी कमअक्ल पे फिदा हो गए

खींचते हैं कागज पे तिरछी लकीरें
और उस्ताद-ए-फन-ए-रेख़्ता हो गए

लिखने वालों की इक भीड़ सी लगी है
'तुषार' तुझे पढ़ने वाले लापता हो गए

#तुषारापात®™


Sunday 13 November 2016

विचार और तुषार संवाद

आए हो तुम तो तुम्हारा क्या करूँ
कथा का निर्माण या कविता रचूँ

करतल ध्वनि सुनने आते हो तुम
प्रशंसाओं पे झूमते इतराते हो तुम
अभिनंदन हो तुम्हारा चहुँ ओर
नाम भर के लिए मैं माला धरूँ

कि जैसे क्रीड़ा पश्चात धूल-धूसरित
कोई बालक माँ के समक्ष उपस्थित
ठूँठ से मेरे सामने आ बैठे हो तुम
कब तक श्रृंगार तुम्हारा करता रहूँ

काल के चक्र से परे होते हो यूँ
कालजयी होने को आते हो क्यूँ
किलकारियाँ तुम्हारी गूँजे जग में
और मैं तुम्हारे जनन की पीड़ा सहूँ

जिसके मुख से तुम हुए हो उत्पन्न
जाओ जाकर उससे कहना ये कथन
तुम महत्वपूर्ण हो अगर मैं नगण्य
क्यूँ ऋचाओं से मैं वेद रचता रहूँ

आए हो तुम तो तुम्हारा क्या करूँ
कथा का निर्माण या कविता रचूँ......

#विचार_और_तुषार_संवाद #क्रमशः
#तुषारापात®™

Thursday 10 November 2016

श्याम धन पायो


"सुनो! सुनो! सुनोSSSS....महाराज के आदेश से! आज मध्यरात्रि से! वर्तमान में प्रचलित सभी मुद्राएं! अमान्य कर दी गई हैं! सभी नागरिकों को यह आदेश दिया जाता है...कि आगामी भोर...और देव प्रबोधिनी एकादशी संध्याकाल तक की मध्यावधि में अपनी समस्त मुद्राओं के नवीनीकरण हेतु राजकोषागर से संपर्क करेंSSS....सुनो! सुनोSSSS......." इस नगर ढिंढोरे से सभी नागरिकों,छोटे बड़े समस्त व्यापारियों में हलचल मच गई..सम्पूर्ण प्रजा सकते में आ गई पग पग पर व्यक्तियों के समूह आकस्मिक हुई इस राजाज्ञा का अर्थ समझने का प्रयास करने लगे कुछ फक्कड़ मलंग व्यक्ति कोरी प्रसन्नता में धनीकों का उपहास करते भी दिख रहे थे कुल मिलाकर चहुँओर कोलाहल था भय व कौतूहलता सभी के मुख मंडल पर छाई थी।

अगले दिवस राज्यसभा लगी समस्त मंत्रीगण और राज्य के प्रतिष्ठित वैश्य वर्ग के प्रतिनिधि वहाँ विराजमान थे विमुद्रिकरण की इस राजाज्ञा से अचंभित सभी मझले व लघु उद्योग व्यापारी भी राजसभा में उपस्थित थे संभवतः नगर के समस्त नागरिक भी राजा के वचनों को सुनने आये थे राजा ने उच्च स्वर में औपचारिक सूचना आरम्भ की "राज्य में..अवैध मुद्रा का प्रचलन अधिक होता गया है जिसके परिणाम स्वरूप महंगाई में वृद्धि, आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता का संकट गहराता जा रहा है.. तथा धनिकों के पास बिना कर भुगतान की बहुत सारी चल संपति संग्रहित होती जा रही है...अतः इस संकट से अर्थव्यवस्था को उबारने हेतु ये कठोर निर्णय राज्य पर आरोपित हुआ है" सबने सुना अधिकतर सहमत हुए जो नहीं भी सहमत थे वो राजाज्ञा के सामने विवश थे सभी साधारण-विशिष्ट व्यक्ति मुद्रा नवीनीकरण नीति को समझने लगे जिसका विस्तृत वर्णन राजा की आज्ञा प्राप्त होते ही कोषागार मंत्री महोदय सभा को कर रहे थे।

मंत्री की नीति सुनकर समस्त प्रजा को पूर्ण विश्वास हो गया कि अब काला धन और अवैध मुद्रा का अस्तित्व न रहेगा परन्तु पट के पार्श्व में भी कई क्रीड़ाएं होती हैं जो दर्शकों को दृश्य नहीं होतीं।

उसी राज्य में एक अत्यन्त प्रभावशाली बहुत ही धनी और चतुर व्यापारी था उसके अधिकार में राज्य की एक मात्र नदी आती थी जिसके जल का वह व्यापार करता था और इस व्यापार के कर का भुगतान समय से राजकोष में कर देता था। यद्यपि उस विशाल राज्य में कई ताल और नम भूमि क्षेत्र थे जिसमें जल उपलब्ध रहता था तथा उनपर कई अन्य छोटे व्यापारियों का अधिकार था परंतु वह ताल पोखर इत्यादि का जल दूषित होता था ,उस राज्य में यही परम्परा थी वहाँ जल का विपणन उच्च मूल्य पर होता था उसपर नदी के जल का मूल्य सर्वाधिक हुआ करता था।

इस मुद्रा के अप्रचलन की घोषणा के लगभग तीन मास पहले चतुर व्यापारी ने अपने अधिकार में आने वाली नदी से सभी नागरिकों को किसी भी मात्रा में जल वो भी बिना किसी मूल्य किसी शुल्क के ले जाने की अत्यंत कल्याण कारी योजना का आरम्भ किया परन्तु उसकी अवधि योजना आरम्भ की तिथि से मात्र तीन मास तक ही थी उसके उपरांत प्रत्येक नागरिक व्यापारी को मूल्य चुकाकर ही जल प्राप्त कर सकेगा इस नियम का उल्लेख भी उसके द्वारा किया गया।

जल ले जाने के लिए प्रत्येक नागरिक को उस व्यापारी द्वारा विशाल कुम्भ भी नि:शुल्क वितरित किये गए यहाँ तक की अगर कुंभ फूट जाता (जो कि प्रायः होता ही था क्योंकि मृदापात्र थे) तो नि:शुल्क नया पात्र उस नागरिक को व्यापारी द्वारा प्रदान किया जाता था चहुँओर उस देवता स्वरूप व्यापारी का गुणगान हो रहा था।

अब तीन मास पूर्ण हो चुके थे उस व्यापारी की नि:शुल्क जल योजना का समापन आज हो चुका था और गत दिवस से मुद्रा का नवीनीकरण भी किया जा चुका था अब नगर वासियों को नवीन मुद्रा द्वारा व्यापारी के द्वारा तय किये गए उच्च मूल्य पर जल क्रय करना होता था साथ ही व्यापारी की नीति ये भी थी कि उसके यहाँ से लिये पात्र में ही जल का विक्रय होगा उस पात्र का मूल्य भी वही निर्धारित करता था जो कि सामान्य से बहुत अधिक था राज्य के निवासी जल जैसे जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक पदार्थ को पहले से बहुत अधिक मूल्य पर उस व्यापारी से क्रय करने को विवश हो गए।

उस व्यापारी का समस्त श्याम धन अब श्वेत हो रहा था क्योंकि उसने अपनी समस्त पुरानी मुद्रा को योजना लागू करने में समाप्त कर दिया था और अब उसे नवीन मुद्रा की प्राप्ति हो रही थी जिसपर वो कर भी चुका रहा था। उधर सामान्य नागरिक,श्रमिक वर्ग, कृषक आदि मुद्रा नवीनीकरण के जटिल नियमों तले दबे हुए थे खुदरा व्यापार ठप होने से लघु व्यापारियों के हस्त से समस्त व्यापार निकलता जा रहा था समस्त लघु-वृहद व्यापार क्षेत्र पर बड़े व्यापारियों का अतिक्रमण हो रहा था।

राजा ने जो नवीन मुद्रा का प्रचलन आरम्भ करवाया था वह पिछली मौद्रिक इकाई से अधिक इकाई की थी इससे अवैध मुद्रा बनाने वालों को भी पहले से अधिक लाभ होने लगा यद्यपि राजा के विश्वासपात्र कर्मचारियों ने प्रजा में यह डर बिठाया था कि नवीन मुद्रा के प्रत्येक सिक्के पर राजा के आदेश से राजपुरोहित ने एक राक्षसी को सूक्ष्म रूप में अभिमंत्रित कर दिया है जो सिक्कों के अवैध प्रतिरूप बनाने वालों को खा जायेगी परन्तु इसके बाद भी अवैध सिक्के बनते रहे।

आर्श्चयजनक रूप से राज्य के सभी मंत्री व प्रमुख धनिकों के द्वारा प्राचीन मुद्रा बहुत कम मात्रा में प्रदर्शित की गई परंतु उनके पास राज्य की अथाह भूमि और स्वर्ण धातु के भंडार थे जो वो अब विक्रय कर नवीन मुद्रा से अपने अपने कोष पुष्ट कर रहे थे और कर का भुगतान भी कर रहे थे।

राजा बढे हुए कर से प्रसन्न था,राज्य के मंत्री तथा प्रमुख व्यापारी भी अत्यन्त प्रसन्न थे उनके पास अब लेशमात्र भी काला धन नहीं था,राज्य से काला धन व अवैध मुद्रा दूर करने की ये महत्वाकांक्षी योजना राजा के अनुसार सफल रही थी।

देव जाग चुके थे परंतु उनकी योगनिद्रा का लाभ उठा कर लक्ष्मी जी के सिक्कों का रूपांतरण हो चुका था।

-तुषारापात®™

Wednesday 2 November 2016

हैण्डपम्प

"अब मैं तुम्हें अच्छी नहीं लगती है न" ये थोड़े से शब्द उसने अपने पति के कानों में डाले और फिर बहुत देर तक उससे अपनी तारीफ सुनती रही।

-तुषारापात®™

Tuesday 1 November 2016

खंजर/छुरी

"बताओ न..कैसी लग रही हूँ..लाल साड़ी में"

"कत्ल के बाद के खंजर जैसी"

"पर जनाब खंजर तो मेल होता है"

"ह्म्म्म..तो क़त्ल के बाद की छुरी जैसी"


#तुषारापात®™

बेवजह

"कभी बेवजह ही सही मिलने आ जाया करो"

"क्यों"

"मिलके जब जाते हो..लिखने की वजह बन जाते हो"
#तुषारापात

Wednesday 19 October 2016

पौना चाँद

भूखा प्यासा बैठा है सुबह से उम्रे यार के लिए
पूरा चाँद बेकरार है पौने चाँद के दीदार के लिए

-तुषारापात®™

Tuesday 18 October 2016

जोदि तोर डाक शुने केऊ ना आसे तबे एकला चलो रे

 "आपके विचारों ने तो पूरे विश्व को हिला दिया है..सब आपको लाइव सुनना और देखना चाहते हैं..पर दादा...आपका यहाँ हिंदी में अपना व्याख्यान देना मुझे कतई समझ नहीं आया"

"क्यों..इसमें कौन सी नई बात हो गई...हर जगह अब तक हिंदी में ही तो भाषण देते आया हूँ"

"पर दादा...वो तो हिंदुस्तान की बात थी...मगर यहाँ..लंदन में कितने अंग्रेज आपकी बात समझ पाए होंगे"

"तो फिर मेरे लेख उन्हें कैसे समझ आते थे.आखिर उन्हीं लेखों से प्रभावित होकर ही तो उन्होंने मुझे यहाँ बुलाया है"

"दादा..आपके लेख तो यहाँ अंग्रेजी में अनुवादित होकर छपते हैं.. ये तो कहो कि सबको आपके भाषण की ट्रांस्लेटेड कॉपी दे दी गई थी..पर आप अगर खुद अंग्रेजी में बोलते तो बात ही अलग होती..मैं तो बस इतना ही कहुँगा..कि..आपने इन अंग्रेजों पे अपना प्रभाव जमाने का एक बहुत ही बेहतरीन मौका गँवा दिया..

"हा हा हा अनाड़ी हूँ न..वैसे अनुवाद चाहे जितना अच्छा हो मगर किसी विचार का समग्र भाव उसी भाषा से प्रकट होता है जिस भाषा में वो सोचा या लिखा गया हो"

"अनाड़ी नहीं..आप जिद्दी हो...रुकिए शायद बाहर दरवाजे पे कोई आया है.. घन्टी बजी है..एक तो इन अंग्रेजों ने इतना बड़ा सुईट बुक करवाया है कि इस कमरे से पहले कमरे तक जाने में लगता है मानो कलकत्ता जा रहा हूँ..आप आराम कीजिये..मैं देख के आता हूँ"

"क्या हुआ...भई.. बड़ी देर लगा दी..कौन था"

"दादा..आप जीनियस हो..आपकी हर बात समझना आसान नहीं.. आप अनाड़ी नहीं..जबरदस्त खिलाड़ी हो.. अब मुझे सब समझ आ गया"

"हैं..इतनी जल्दी राय बदल गई..क्या हो गया बाहर जाते ही"

"दादा..बाहर कोई मिस्टर थॉमस ब्राउन आये हैं...शायद यहाँ के शिक्षा विभाग में किसी पद पर हैं..आपका इंतज़ार कर रहे हैं..उनके साथ दस ग्यारह शिक्षक भी हैं..सबका कहना है वो हिंदी पढ़ना और समझना चाहते हैं"

"ह्म्म्म.. दस ग्यारह में से एक भी सीख गया तो ये संक्रमण आरम्भ हो जायेगा...किसी भारतीय का यहाँ आना और हजारों अंग्रेजों को अंग्रेजी में भाषण सुनाना कोई बड़ी बात नहीं..बात तो तब है जब थोड़े ही सही कुछ अंग्रेज हिंदी बोलें..चलो मिलते हैं उनसे"

-तुषारापात®™

Friday 30 September 2016

श्राद्ध,मृतकों को हममें जिन्दा रखने की एक प्रक्रिया है

मिक्सी की तेज घिररर घिररर से नवीन की नींद खुली उसने आँखे मलते हुए बेड के साइड में रखी घड़ी पर नजर डाली तो पाया कि
सुबह के पाँच बजे हैं "पौर्णिका..पौर्णिका...यार बंद करो ये आवाज ...इतनी सुबह सुबह क्या बनाने लगीं" उसने अपने सिर पर तकिया रखा और लगभग चीखते हुए पौर्णिका को आवाज लगाई पर मिक्सी की आवाज किचेन से वैसी ही आती रही थोड़ी देर बाद वो झल्ला कर उठा और किचेन की तरफ आया

"अरे..आज तो तुम भी जल्दी उठ गए...लेकिन वेट..आज चाय बाद में मिलेगी...पहले जरा मैं ये दाल पीस लूँ...और उसके बाद सारा कुछ बना लूँ...तब..तुम चाहो तो थोड़ा सा और सो लो"पौर्णिका ने उसे देखते ही कहा और पहले की तरह अपने काम में लग गई

"सो लूँ?..इतने शोर में कोई सो सकता है क्या...और तुम ये आज सुबह सुबह क्या करने में लगी हो?" नवीन प्यूरीफायर से एक ग्लास पानी भरते हुए बोला

"नवीन..डोन्ट डिस्टर्ब मी...मुझे अभी बहुत काम है.." पौर्णिका ने उससे कहा और सबसे छोटी उंगली के पहले पोर पे अंगूठा रख ऐसे बुदबुदाने लगी मानो याद कर रही हो "सबसे पहले दही बड़ा...फिर पनीर की सब्जी...उड़द की दाल का हलवा... पापड़... चटनी... और...और...हाँ..चने की दाल की कचौड़ी..ये तो उसकी फेवरिट हुआ करती थी..ये मैं कैसे भूल गई"

"मेरे हाथ का बना खाना उसे कितना पसंद था...कहता था घर के खाने के आगे ये पिज्जा बर्गर नूडल वूडल सब बेकार हैं...हॉस्टल का खाना खा खा कर...बेचारा...कितना दुबला हो गया था..वजन भी..." वो काम करते जा रही थी और बोलती जा रही थी पर किससे ये शायद उसे भी पता नहीं था या शायद वो खुद से बातें कर रही थी

उसकी सारी बातें सुन और पागलों की तरह जूनून में उसे काम करता देख नवीन के दिल में हल्का सा एक धक उठा उसने खुद को संभाला और कहा "ग्यारह साल हो चुके हैं पौर्णिका.."

"अब तक तो उसकी शादी भी हो चुकी होती...क्या पता एक दो बच्चे भी हो जाते..मैं दादी हो गई होती और नवीन तुम दादा" उसने मानो नवीन की बात सुनी ही नहीं

"पौर्णिका..ग्यारह साल हो चुके हैं उसे गए हुए...जब तक हम इंडिया में थे तब तक तो ठीक था..पर अब एक साल हो रहा है न्यूयार्क आये हुए...यहाँ ये पितृपक्ष...ये..श्राद्ध..इन तिथियों का कोई मतलब है क्या"नवीन ने उसके हाथ में पानी का ग्लास दिया

उसने पानी पीने से मना किया और बोली "क्यों..क्या यहाँ न्यूयार्क में कोई दूसरे सूरज चाँद निकलते हैं...वही हैं न इंडिया वाले..मैं ये सब जल्दी से तैयार कर दूँगी..तुम किसी पंडित जी को ये खिला आना.."

"पंडित...पंडित यहाँ कहाँ मिलेगा" नवीन ने ऐसे कहा जैसे कोई अनोखी बात सुनी हो

"ठीक है...पादरी तो होंगे..उन्हें ही खिला देना या सीधे घर पर इनवाइट कर लेना" पौर्णिका को चिंता सिर्फ खाना बनाने की थी और वो उसी में रमी थी

"पादरी...हुंह..वो ये सब ढकोसले नहीं मानते...तुम क्यों यहाँ मेरी और अपनी हँसी करवाना चाहती हो..क्रिश्चन्श पुनर्जन्म में विश्वास नहीं रखते" नवीन ने ऐसे कहा मानो सारे अंग्रेज उस पर हँस रहे हैं उसका मजाक बना रहे हैं

"अजीब बात है...ईस्टर मनाने वाले...पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते...ठीक है मैं किसी गरीब को खिला दूँगी...अब ये मत कहना यहाँ गरीब भी नहीं होते" पौर्णिका की आँख में नवीन का बिम्ब धुंधलाने लगा,नवीन ने उसे अपने गले से लगाया,भर आई उसकी आँखों को चूमा और धीरे से कहा "जानता हूँ ये दुःख बहुत बड़ा है...पर पौरू..ये सब दिखावा नहीं लगता?"

"नव...मेरा बेटा था वो...उन्नीस साल तक पाला था उसे...उसे गए तो अभी बस ग्यारह साल ही हुए हैं...मुझे नहीं पता लोग इसे क्या कहते हैं दिखावा या अन्धविश्वास..पर ममता कोई तर्क नहीं सुनती..श्राद्ध हमारे मृतकों को हममें जिन्दा रखने की एक प्रक्रिया है.. और..और..मैं जानती हूँ ..कि..अब वो कभी भी..मेरे हाथ का खाना नहीं खा सकेगा...पर...नव..वो मेरी भावनाएं तो जरूर चख सकता होगा.."पौर्णिका ने कहा,उसके बाद न जाने कितनी देर तक नवीन का कन्धा भीगता रहा।

-तुषारापात®™ (पलकों पे कुछ बूँदों के साथ)

Tuesday 27 September 2016

क्या वाकई ?

रख के खंजर मेरे गले पे ये कहा उसने 'तुषार'
लिखो के कलम तलवार से ज्यादा ताकतवर है 

Thursday 22 September 2016

वर्षगाँठ

तुमने मुझे छुआ
मैं कवि हुआ
तुम्हारी मेरी कहानी ने आकार लिया
संसार ने घोषित मुझे कथाकार किया
तुम्हारा मुझमें विन्यास हुआ
मुझसे उत्पन्न उपन्यास हुआ
आँखों का त्राटक हुआ
मुझसे पहला नाटक हुआ
तुम्हारे संग चित्र खिंचा
मैंने अनोखा रेखाचित्र रचा
तुम्हारे मेरे जीवन की झाँकियाँ
ही हैं मेरी समस्त एकांकियाँ
तुम आच्छादित सुगंध
मेरा पहला अंतिम निबंध
तुम्हारे खुले मुंदे शुष्क नम नयन
मेरे हास्य व्यंग्य कटाक्ष प्रहसन
दर्पण की तरह प्रतिबिम्बित करतीं तुम सदैव सत्य सूचना
मेरी समीक्षा रिपोर्ताज साक्षात्कार हो तुम मेरी आलोचना
तुम्हारे साथ व्यतीत जीवन अधिक पर शब्द हैं अल्प
यात्रा वृतांत की डायरी पर अंकित सब सत्य गल्प
तुम्हारे साथ बंधा था आज मेरा जीवन मरण
पिछले जन्मों के पुण्यों का हुआ मुझसे संस्मरण
तुमसे है मेरा साहित्य मेरे लेखन की हर विधा
तुम्हारे बिना ये तुषारापात मात्र एक लघुकथा
मेरे जीवन की बस इतनी आख्या
मैं सन्दर्भ तुम्हारा तुम मेरी व्याख्या
अर्धांगिनी!सात जन्मों की प्रिय संगिनी
तुम्हीं आत्मकथा मेरी तुम्हीं हो जीवनी

-तुषारापात®™

Tuesday 20 September 2016

16 मोहरे 32 खाने

"उफ़ इस बार सत्रह शहीद...भगवान जाने कब तक और कितने सैनिक यूँ ही मारे जाते रहेंगे.....सरकार से अपना डिफ़ेन्स तक तो सही से होता नहीं...अटैक क्या खाक करेंगे" सेना पर आतंकवादी हमले की खबर देख पापा मायूसी और आक्रोश से मिली जुली आवाज में बड़बड़ाने लगे

"पापा..सरकार में हमसे और आपसे तो बेहतर ही लोग बैठे होंगे...वो समझते होंगे कब क्या और कैसे करना है...वैसे भी हम इंडियंस डिफ़ेन्स में बिलीव रखते हैं अटैक में नहीं "मन ही मन मुझे भी इस हमले को लेकर एक कड़वाहट थी तो उसी भावना में उनसे तल्खी से ये कह गया

पापा ने एक पल मुझे देखा,मुस्कुराये फिर बोले "डिफ़ेन्स... हूँSS....चलो एक बाजी शतरंज की हो जाए"

"अचानक शतरंज...अच्छा ठीक है...हो जाए" वैसे मेरी हार तो तय है क्योंकि मैंने शतरंज अभी अभी ही सीखा है और पापा इसके मंझे हुए खिलाड़ी हैं पर फिर सोचा चलो मन की थोड़ी भड़ास शतरंज पे मारकाट मचा के ही शांत की जाए,मैंने शतरंज का बोर्ड उठाया सारे मोहरे बिछाए और उनसे कहा "पहली चाल आप चलें आज मैं डिफ़ेन्स पे ज्यादा ध्यान दूँगा"

"ठीक है ये लो" कहकर पापा ने एक पैदल आगे कर दिया,बदले में अपनी चाल में मैंने भी एक पैदल आगे किया,देखते ही देखते कई चालें हो गईं पापा के कई मोहरे मेरे मोहरों के नजदीक आ गए और मेरा डिफ़ेन्स कमजोर होने लगा

"आज तो आपका अटैक बहुत तेज है...मैं डिफ़ेन्स ही करता रह गया.. और आप मेरे किले तक पहुँच गए..."मैंने अपनी अगली चाल चलते हुए कहा

"बेटा जी..पूरी शतरंज में चौंसठ खाने हैं...सोलह पे तुम्हारे मोहरे और सोलह पे मेरे मोहरें हैं...लेकिन खेल की शुरुआत में ही तुम्हें ये समझना चाहिए था...कि...अपने सोलह मोहरों की दो लाइनों के आगे की दो लाइनों तक यानी कुल बत्तीस खानो तक तुम्हें अपना डिफ़ेन्स कायम करना था... जो तुमने नहीं किया..और देखो मैंने तुम्हारे मोहरों पे मार करने की जगह बनाने को अपने कई मोहरे सेट कर दिए... अब मैं तुम्हारी ही जमीन पे युद्ध कर तुम्हें हराऊँगा... क्या समझे?...तुम्हें लाइन ऑफ़ कंट्रोल...अपने मोहरों तक नहीं बल्कि आधी शतरंज तक समझनी चाहिये थी तब तुम्हारा डिफ़ेन्स बढ़िया कहा जाता...." उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा,मैं कसमसा के रह गया

फिर उन्होंने अपना एक पैदल बढ़ा के मेरे पैदल की मार की रेंज में रख दिया मैं झट से बोल उठा "लेकिन पिताश्री...जोश में आपने ये चाल गलत चल दी...आपके इस पैदल पे किसी और मोहरे का जोर नहीं है...इसे तो...ये लीजिये..मेरा प्यादा खा गया" व्यंग्य में कहकर मैंने अपने प्यादे से उनके प्यादे पे तिरछा मार की और उसे हटा दिया
पापा मुस्कुराये जा रहे थे और मुझे उनकी ये मुस्कुराहट बहुत खतरनाक लगने लगी,उन्होंने अपने ऊँट से मेरे उस घोड़े को मार दिया जो पैदल हटने से उनके ऊँट की रेंज में आ गया था,और मजे की बात ये कि घुस आए उनके इस ऊँट पे मेरे किसी मोहरे की मार भी न थी मैं दर्द से बिलखते हुए बोला "ओफ्फो...मैं भी कितना बेवकूफ हूँ...पैदल के बदले...अपना घोड़ा मरवा बैठा..."

"हूँS..यही होता आ रहा है...हम घुस आए पैदल को मारने के चक्कर में अपने घोड़े मरवाते जा रहे हैं" कहकर उन्होंने खेल बंद कर दिया उनके चेहरे से मुस्कुराहट जा चुकी थी, अचानक से उनकी शतरंज खेलने की बात का मतलब अब मुझे समझ आ चुका था।

-तुषारापात®™

Wednesday 14 September 2016

हिंदी दिवस

"क्या कहा 'क्ष' 'त्र' 'ज्ञ' भी बंदी बना लिए गए..आह..परन्तु ये कैसे संभव हुआ ये तीनों तो संयुक्ताक्षर होने के कारण अधिक शक्तिशाली थे" पूरा देवनागरी शिविर दूत की सूचना पे एक साथ बोल उठा,दूत ने साम्राज्ञी हिंदी को प्रणाम किया और अपना स्थान लिया।
"अवश्य धूर्त आंग्ल अक्षरों ने पीछे से आक्रमण किया होगा.. और हमारी सेना की अंतिम पंक्ति के ये तीनो वर्ण युद्ध के अवसर के बिना ही दासत्व को प्राप्त हुए होंगे" महामंत्री पाणिनि ने अपना मत प्रस्तुत किया जो समस्त सभा को भी उचित प्रतीत हुआ।
हिंदी अपने सिंहासन से उठते हुए बोली "महामंत्री..इससे पहले भी हमारे 'ट' 'थ' 'ठ' 'भ' 'ण' 'ड़' 'ढ' 'ऋ' जैसे अत्यन्त वीर अक्षर भी युद्ध में बंदी हो चुके हैं...किस कारण हमारी पराजय हो रही है... बावन अक्षरों वाली विशाल सेना अपने से आधी...मात्र...छब्बीस अक्षरों की आंग्ल सेना के सामने घुटने टेक रही है..आह दुःखद किंतु विष के समान ये सत्य.."
"साम्राज्ञी का कथन उचित है..इसके दुष्परिणाम निकट भविष्य में स्पष्ट होंगे..आने वाली पीढ़ी तुतलायेगी..परन्तु बहुत अधिक संभावना है तब ये दोष नहीं अपितु एक गुण ही मान लिया जाय..देवी हमारी पराजय का कारण सेनापति की अदूरदर्शिता है.. हमारी सेना एकमुखी होकर लड़ी..और शत्रु ने हम पर चारो ओर से वार किया.. देवी..हमें चतुर्मुखी सेना का निर्माण करना चाहिए था" महामंत्री ने भी अपना आसन छोड़ दिया
"क्या अब ये संभव नहीं..अब क्या उपाय शेष है?" हिंदी ने मात्र पूछने को जैसे पूछा हो
महामंत्री ने शीश झुका उत्तर दिया "हम पूर्व की ओर ही मुँह किये खड़े रहे और हमें पता भी न चला कि हमारी पीठ के पीछे पश्चिम में सूर्य अस्त हो रहा है..आह..दृष्टि पूर्व पर नहीं सूर्य पे रखनी चाहिए थी"कहकर उसने एक गहरी साँस छोड़ी और धीरे से कहा "संधि ही मात्र एक उपाय शेष है" सुनकर पूरी सभा में निराशा दौड़ गई

"दोष अवश्य हमीं में है..मेरे पुत्र..साम्राज्ञी हिंदी के अक्षर.. अपने अभिमान में सदैव ऊपरी रेखा पर रहे..धरा पर उनके पाँव ही न पड़ते थे..परन्तु आज ऊपरी रेखा पे लटके(लिखे) इन अक्षरों को फाँसी लग रही है..और अंग्रेजी के अक्षर मजबूती से अपने पाँव धरा पे जमाते जा रहे हैं (हिंदी ऊपरी रेखा पे लिखी जाती है और सिखाने को अंग्रेजी नीचे की रेखा पे)" कहकर हिंदी ने अपना मुकुट उतार दिया।

-TUSHAR SINGH तुषारापात®

Tuesday 13 September 2016

जरा मुस्कुराइये

कभी कभी मुझे एफ बी पे ख्याल आता है
कि जैसे तूने अकाउंट बनाया है मेरे लिए
तू अबसे पहले पोस्टों पे फिर रही थी गैरों की
तुझे इनबॉक्स में बुलाया गया है मेरे लिए

कभी कभी मुझे एफ बी पे ख्याल आता है
कि ये पोस्ट और शेयर मेरी अमानत हैं
ये फोटुओं के घने अल्बम हैं मेरी खातिर
ये लाइक और ये कमेन्ट मेरी अमानत हैं

कभी कभी मुझे एफ बी पे ख्याल आता है
कि जैसे बजते हैं नोटिफिकेशन्स से कानो में
बेकार पोस्ट है तरस रहा हूँ लाइक्स को
कमेंट कर रही है तू अपने सारे फोनो से

कभी कभी मुझे एफ बी पे ख्याल आता है
कि जैसे तू खर्चेगी सारी जीबी मुझपे यूँ ही
किसी को नहीं मिलेगी तेरी एक केबी भी
मैं जानता हूँ कि तू फेक है मगर यूँ ही

कभी कभी मुझे एफ बी पे ख्याल आता है

Saturday 10 September 2016

उम्मीद

फिर तुझसे कुछ उम्मीदें लगा रखीं हैं
दिल बहलाने को ये बातें बना रखीं हैं

कि छत नहीं पूरा आसमाँ टिका रखा है
बिना नींव के हमने दीवारें उठा रखीं हैं

बरगद के नीचे पनपने का हुनर ले आये
बेवजह उग आईं अपनी मूँछें कटा रखीं हैं

गर ये चार हो जातीं तो तीन हम हो जाते
इसी डर से नजरें बीवी से हटा रखीं हैं

कभी अच्छा था हमारा भी तुम्हारे जैसा 'तुषार'
उस गए वक्त की रुकी कुछ घड़ियाँ सजा रखीं हैं

-तुषारापात®™

Friday 9 September 2016

नाना जी

"नूतन दीदी..नानाजी की हालत बहुत नासाज है...आप तुरंत आ जाओ" सुबह सुबह मोबाइल पे शन्नो की रुआंसी आवाज सुनाई दी

नब्बे साल के वृद्ध की तबियत खराब होना कोई नयी बात नहीं होती पर शन्नो की आवाज की अजीब सी बेचैनी ने मेरे अंदर कुछ घबराहट सी भर दी मैंने उससे पूछा "क्..क्या हुआ...अभी परसों ही तो मेरी बात हुई थी उनसे..बिलकुल भले चंगे थे...अचानक तबियत बिगड़ी क्या"

"नहीं दीदी...तबियत नहीं...नानाजी पर हमला हुआ है...आप बस जल्दी से आ जाओ...शायद दोबारा न देख.." बात अधूरी छोड़ उसने रोते रोते फोन काट दिया मैं सोचती ही रह गई कि एक नब्बे साल के देवता तुल्य बूढ़े से किसी की क्या दुश्मनी हो सकती है

मैंने जल्दी से अपने पति राज को उठाया,उन्हें सारी बात बताई और अपने सात साल के बेटे राहुल का माथा चूम,उसे सोता छोड़ ड्राइवर के साथ कार लेकर निकल पड़ी मैं उड़कर उनके पास पहुँच जाना चाहती थी पर दिल्ली से हरदोई तक की दूरी कुछ कम नहीं थी, ड्राइवर कार चला रहा था और मैं पिछली सीट पे बैठी दिल्ली पीछे छूटते देख रही थी और साथ ही पिछली यादों में खोती जा रही थी

शादी के आठ साल के बाद भी मुझे बच्चे का सुख नहीं था एक दिन मेरी एक सहेली ने हरदोई के पास एक जगह बिलग्राम के एक बहुत पहुँचे हुए पीर नानाजी के बारे में मुझे बताया और एक हफ्ते के भीतर ही मेरे लाख मना करने पर भी मुझे अपने साथ उनके पास ले आई थी

बिलग्राम की उबड़ खाबड़ सड़कों से दोचार होते हुए दिल्ली से बिलकुल ही बदले परिवेश में बिलग्राम के भी और अंदर आकर हम नानाजी के सामने बैठे थे वहाँ भीड़ लगी थी मैंने देखा मटमैले सफेद कुर्ते और मुड़े तुड़े नीले तहमद में एक वृद्ध चारपाई पे बैठा कागज पे कुछ लिख रहा था उसका चेहरा झुर्रियों से भरा हुआ था सर पर काला सफेद चौखाने वाला मुसलमानी कपड़ा बाँधा हुआ था माथे पे पाँच लकीरें थीं जिन्हें देख कर मेरा ज्योतिषीय दिमाग उनके प्रति कुछ श्रद्धा से जरूर भर गया था पर पूरे माहौल में मुसलमानी महक से मुझे उबकाई सी भी आ रही थी

"तो क्या जाना क्या लिखा है हमारे भाग्य में" एकदम से वो मुझे देखते हुए मीठी सी आवाज में बोले उन्होंने मुझे अपने माथे की लकीरें पढ़ते देख लिया था शायद

"क्..कुछ नहीं...ये आप कागज पे क्या लिखते हैं..अरबी में लिखा है न..आयतें?" मैं हड़बड़ाहट में उनके प्रश्न का उत्तर न देकर उनसे ही प्रश्न कर बैठी उन्होंने सुना और हलके से मुस्कुराये इसी बीच मेरी सहेली प्रिया ने उन्हें मेरी समस्या बता दी उन्होंने एक धागा उठा के कुछ बुदबुदाया और मुझे उसी धागे से सर से पैर तक नापा और फिर अपनी चारपाई पे बैठ कागज पे लिखने लगे वो कलम भी अलग सा था सुनहरे रंग की स्याही थी जैसे फूलों के रस से बनी हो कागज की जरा सी पुर्ची पे बहुत घना और बारीक मगर बहुत ही सुंदर अक्षरों से उनका लिखा मानो लिखा न छपा हो

"आप इतना महीन लिख कैसे लेते हैं...इतनी उम्र होने पर भी चश्मा नहीं लगाते..."मैंने आश्चर्य से उनसे पूछा

"बिटिया..तिरासी साल की उम्र भी क्या कोई ऐनक लगाने की होती है ..नजर दुरुस्त रखने को सूरज को रोज सुबेरे पानी पिलाता हूँ...वो क्या कहते हैं तुम्हारे यहाँ सूर्य नमस्कार.."वो मुस्कुराते हुए बोले और अपने लिखे हुए कागज को एक गिलास जिसमें आधा पानी था उसमें घोलने लगे

मैं उनके मुँह से सूर्य नमस्कार का नाम सुनकर चौंक गई फिर खुद को लगा चश्मा ठीक करने में कुछ शर्म भी आई मुझे,मैंने उनसे एक सवाल और किया "आपको सब नानाजी क्यों कहते हैं"

"अब तुम्हारी जैसी तमाम बिटियों की सूनी कोख भर जाती है तो सबके लल्ला लल्ली के नाना हुए न हम..बाकी सबका नाना तो वो ऊपरवाला है सब उसी का करम है" कहकर उन्होंने गिलास का पानी मुझे पीने को दिया

थोड़ी हिचक के साथ मैं वो पानी पी गई और बोली "ऊपरवाले से आपका मतलब अल्लाह से है या भगवान से"

उनके होठों पे छाई मुस्कान गायब हुई और दुःख से भरी आवाज में बोले "हम अपने बाप को उनके नाम से बुलाते हैं क्या..इंसान बिलकुल पागल है बिटिया..उसकी बिसात है क्या ऊपरवाले का नाम रखने की..." कहकर उन्होंने एक ताबीज मुझे पहनने को दिया

मैंने वो ताबीज पहन लिया और बोली "आपने बताया नहीं आप अरबी में आयतें लिख रहे थे न कागज पे"

"सब कुछ आज ही जान लेगी..या जब लल्ला लेकर आएगी तबके लिए भी कुछ छोड़ेगी" उनके होठों पे मुस्कान फिर से आ चुकी थी
उन्होंने कुर्ते की जेब से माचिस निकाली हाथ में कुछ देर घुमाते रहे फिर कुछ सोच कर जेब में वापस रख दी और दूसरे कमरे में बैठी अपनी सबसे छोटी बेटी शन्नो को आवाज दी और हमें खाना खिलाने को कहा मैंने बहुत मना किया पर शन्नो के प्यार और प्रिया के हाँ कहने पर मैंने खाना खाया,खाना बहुत ही स्वादिष्ट था और शन्नो का व्यवहार इतना मीठा कि दिल हिन्दू मुस्लिम सब भूल गया
खाना खाकर जब हाथ धोने उठी तो देखा नानाजी एक बच्चे की तरह छुपकर बीड़ी पी रहे थे मेरे चेहरे पे मुस्कान फैल गई

ड्राइवर ने एक जगह चाय पानी के लिए कार रोकी तो मैं पुरानी यादों से वर्तमान में वही मुस्कराहट लिए आई,चाय फटाफट निपटा हम फिर से निकल पड़े शाहजहाँपुर क्रॉस हो रहा था

मैं नानाजी को याद कर बेचैन हो रही थी राहुल के होने के बाद से आजतक उनके यहाँ लगातार आना जाना बना रहा एक परिवार की तरह हो गए थे हम,अब तो मोबाइल पे भी तीसरे चौथे दिन नानाजी से बात करती रहती हूँ यही सब सोचते न जाने कब बिलग्राम पहुँच गई

उनके घर पहुँचते ही कार से उतरकर दौड़ते हुए नानाजी के कमरे में पहुँची घर के बाहर भीड़ जमा थी नानाजी अपनी चारपाई पे पट्टियों से बंधे पड़े थे मुझे देखकर शन्नो मेरे गले लग रोने लगी और कहने लगी "दीदी गाँव में जेहादियों का जोर है..इनसे कहते हैं कि सिर्फ बेऔलाद मुसलमानों के लिए उपाय करें..हिंदुओं के लिए किया तो जान से हाथ धोना होगा" मैं ये सुनकर सन्न रह गई बेऔलाद होने का दुःख भी क्या हिन्दू का अलग मुसलमान का अलग होता है

"अरे..तुझे भी बुला लिया इस निगोड़ी ने.." नानाजी मुझे देखते हुए बोले "सौ साल का होकर ही मरूँगा..इतनी जल्दी नहीं जाऊँगा इस घर से." मैं उनकी बात सुनकर उनके पैरों से लिपट गई मेरे आँसूओं से उनके पैर भीग गए

"दीदी..इनपे हमला उस जमील ने किया है अभी सत्रह बरस का ही होगा पर जेहादी हो गया है..जानती हो ब्याह के बारह बरस बाद भी उसकी अम्मी के कोई बच्चा न था..इन्हीं के बताये उपाय से ये जमील हुआ था..और आज वो ही इन्हें मारने आया था..जबकि ये उस समय जानते भी थे कि ऐसा ही होगा"

मैं ये जानकर हैरत से उनकी ओर देखने लगी और गुस्से में आ गई कि जब जानते थे उसका पैदा हुआ बच्चा उनकी जान लेगा तो उसे उपाय क्यों बताया

उन्होंने जैसे मेरा मन पढ़ लिया और बोले "आस में आई किसी बेऔलाद बिटिया को रोता छोड़ना इस्लाम नहीं सिखाता.. जब जमील हुआ था तब उस बिटिया को मिली खुशी इस बूढ़े की जिंदगी से ज्यादा कीमती थी"

-तुषारापात®™

Wednesday 7 September 2016

बातें

खामोशियाँ तोड़ने को वो बेकरार थी
लबों पे लब रख उसने बातें हजार की

-तुषारापात®™

Friday 2 September 2016

हारजीत

"बट सर फर्स्ट पेपर में मेरे इतने कम नम्बर कैसे आ सकते हैं...मैंने सारे क्वेश्चन्स के आंसर सही सही लिखे थे...और सर ये तो सिद्धांत ज्योतिष (गणित) का पेपर था जिसमे मार्किंग भी पूरी पूरी होती है" अपने सेकंड सेमेस्टर के रिजल्ट से नाखुश राघवेंद्र फोन पे अपने टीचर से बात कर रहा था

"आई एम ऑल्सो शॉक्ड राघवेंद्र...ओके यू मस्ट गो फॉर स्क्रूटनी" कहकर उन्होंने फोन डिसकनेक्ट कर दिया राघवेंद्र मायूस होकर अपना फोन देखता रह जाता है,उसके साथ ही बैठा उसका बैचमेट अभय सब कुछ समझते हुए बोला

"क्या बोला प्रोफेसर..स्क्रूटनी न...कुछ नहीं आएगा उसमें...कॉपियाँ यहीं जाँची जाती हैं...राघवेंद्र..तेरे साथ ये लोग ये सब जान के कर रहे हैं...पिछले सेमेस्टर में भी तेरे साथ ऐसा ही हुआ था...ये उस पवन उपाध्याय को आगे कर रहे हैं...वाइवा और प्रैक्टिकल में भी उसे सबसे ज्यादा नम्बर दिए गए हैं...जबकि पूरे क्लास को पता है उसे कितना आता है और तुझे कितना....ये हेड ऑफ डिपार्टमेंट का ब्राह्मणवाद है"

अगले दिन क्लास में वास्तु पढ़ाने वाली मैडम जिनका अधिक स्नेह था राघवेंद्र पर,कम नंबरों के बारे में उससे पूछती हैं तो वो बुझे मन से कहता है "मैम..आखिर कब तक हम बारहवीं शताब्दी तक के ज्ञान के आधार पे ज्योतिष पढ़ते रहेंगे..कोई उस ज्ञान को अपनी रिसर्च कर आगे क्यों नहीं बढ़ाता... आखिर तबसे अबतक मानव के रहन सहन जीवन यापन के साधन और उसकी सोच में जमीन आसमान का चेंज आ चुका है..आज भी जो लोग इसे आगे ले जाना चाहते हैं उन्हें ही पीछे किया जा रहा है...मैम.... ज्योतिष के लिए बस इतना ही कहना चाहूँगा कि..सुनहरे अतीत ने अपने को लोहे के निकम्मे वर्तमान को सौंपा था...भविष्य में जंग तो लगनी ही थी.."वास्तु वाली मैडम उसकी बात में छुपे दर्द को समझती हैं पर कुछ न कहकर क्लास को पढ़ाने लगती हैं

क्लास खत्म होने के बाद पवन राघवेंद्र से कहता है "तू खुद को क्या आर्यभट्ट या भाष्कराचार्य समझता है...देखना मैं यहाँ से पी०एच०डी० कर यहाँ ही प्रोफेसर हो जाऊँगा और साथ ही फलित की प्रक्टिस कर नोटों की खूब छपाई भी करूँगा...तू मुझे कभी हरा नहीं पायेगा.."राघवेंद्र उसकी बात सुन आगे बढ़ जाता है

इसी तरह तीसरे और चौथे सेमेस्टर का हाल रहता है राघवेंद्र सभी विषयों में तेज होने के बावजूद एम०ए० ज्योतिर्विज्ञान में दूसरे स्थान पे आता है, उससे काफी कम ज्ञान रखने वाला पवन प्रथम स्थान प्राप्त करता है।

उसके बाद दोनों नेट की परीक्षा पास कर पी०एच०डी० के लिए अपने अपने शोध प्रस्ताव ज्योतिर्विज्ञान विभाग को भेजते हैं पर सिद्धान्त में एक ही सीट होने के कारण सिर्फ पवन का प्रस्ताव ज्योतिर्विज्ञान कमेटी द्वारा स्वीकार किया जाता है राघवेंद्र पक्षपात के आगे बेबस रह जाता है

समय के अणु अत्यन्त गतिशील होते हैं राघवेंद्र की कोई भी खबर किसी के पास नहीं थी कोई कहता कि वो विदेश चला गया तो कोई कहता कि उसने मायूस होकर ज्योतिष की पढाई ही छोड़ दी,वहीं दूसरी ओर पवन अब डॉक्टर पवन हो चुका था वो यूनिवर्सिटी में लेक्चरर भी है और शहर का जाना माना ज्योतिषी भी है ज्योतिर्विज्ञान के हेड रिटायर हो गए थे और अब वास्तु वाली मैडम हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट हैं

अगस्त के महीने का आखिरी सप्ताह चल रहा है ज्योतिर्विज्ञान के बी०ए० और एम०ए० का नया सत्र आरम्भ हो चुका है पवन को हेड मैडम बताती हैं "इस बार सिद्धान्त ज्योतिष के पाठ्यक्रम में कुछ नई किताबें भी पढाई जाएंगी अब चूँकि सिद्धान्त तुम ही पढ़ाते हो तो बेहतर है तुम इन किताबों से रुबरु हो लो"

"ओहो मतलब कुछ नई खोज भी हुईं हैं इधर..देखूं तो किसकी किताबें हैं.." कहकर पवन ने सामने रखी किताबों से पहली किताब उठाई जिस पर लिखा था 'भारतीय ज्योतिष: आधुनिक सिद्धान्त' वो पहला पन्ना खोलता है जिसपर लेखक की सिर्फ दो पंक्तियाँ लिखी थीं "मेरे उस सहपाठी को समर्पित जो कहीं किसी विश्वविद्यालय में अब आजीवन इस पुस्तक को प्रतिदिन पढ़ायेगा" पवन जल्दी से नीचे लिखे लेखक का नाम देखता है और बुदबुदाता है "राघवेंद्र सिंह..जर्मनी"

-तुषारापात®™

Tuesday 30 August 2016

शिक्षक दिवस

शिक्षक दिवस आने वाला है सोचा कुछ लिखा जाए बहुत देर तक विचार किया कि क्या लिखूँ समझ में नहीं आया,हाँ शिक्षकों और गुरूओं की बड़ाई में वही घिसीपिटी परिपाटी पे बहुत कुछ लिखा जा सकता है कि शिक्षक वो सूर्य है जो हमें अज्ञान की रात से मुक्त करता है वो राष्ट्र का भविष्य बनाता है वो राष्ट्र निर्माता है या गुरू गोविन्द दोऊ खड़े.. आदि आदि किताबी आदर्श से भरी हुई और अच्छी अच्छी प्रशंसात्मक बातें भी खूब लिखी जा सकती हैं या शिक्षक और शिक्षा व्यवस्था पे व्यंग्य्/कटाक्ष कर अपनी कलम की भूख शांत की जा सकती है पर वास्तव में क्या इतना ही है शिक्षक दिवस का महत्व? छोड़िये इन बड़ी बड़ी बातों को आइये हम हमेशा की तरह छोटी छोटी बातों से उत्तर निकालने की कोशिश करते हैं

आप में से कितने लोग हैं जो जब जूनियर हाईस्कूल या हाईस्कूल में थे तो उस समय की पढ़ाई उन्हें अच्छे से समझ आती थी? यहाँ मैं अच्छे नंबर लाकर फर्स्ट या सेकंड डिवीजन से पास होने का नहीं पूछ रहा,मेरा पूछने का मतलब है जो भी विषय जैसे विज्ञान,गणित,अंग्रेजी आदि जो पढ़ाये जाते थे वो अच्छे से या छोड़िये थोड़ा बहुत ही सही समझ में आते थे कि ये वास्तव में हैं क्या और हम पढ़ क्या रहे हैं?

कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो लगभग सभी का यही कहना होगा कि बस उस समय हमने याद किया,पेपर दिए और अच्छे या औसत नंबरों से पास हो गए वो क्या था किस बारे में था भौतिक विज्ञान,रसायन विज्ञान या त्रिकोणमिति आदि का अर्थ क्या था से हमें कुछ लेना देना न था
धीरे धीरे जब हम अपनी पढाई आगे जारी रखते हैं और उनमें से किसी एक विषय को मुख्य रूप से पढ़ते हैं तब कहीं जाकर कुछ कुछ उस विषय को जान पाते हैं कि अच्छा ये सबकुछ जो पढ़ाया जा रहा है ये इस कारण है या इसका मतलब तो ये है अब जाके समझ में आया लेकिन ऐसे लोगों का प्रतिशत बहुत कम है ज्यादातर लोग वो हैं जो पढ़ते हैं सम्बंधित विषय में मास्टर की डिग्री तक ले लेते हैं पर अपने विषय पर उनकी कोई पकड़ नहीं होती वो डिग्री लेकर या तो नौकरी या फिर व्यवसाय में लग जाते हैं और शिक्षा एक अनावश्यक आवश्यकता जैसी कोई चीज बनी डिग्री के कागज में लिपटी अलमारी के किसी खाने में धूल खा रही होती है

अब शिक्षक भी कोई अवतार तो होता नहीं जो आसमान से उतरता हो वो भी ऊपर बताये गए हम जैसे छात्रों के बीच से ही निकलता है लेकिन उसके लिए डिग्रियां बहुत काम की हैं उन्हीं के आधार पे उसे प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने का अवसर प्राप्त होता है जो सफल हुआ नौकरी पाई और बन गया राष्ट्र निर्माता, हालाँकि इसमें वो बहुतायत से होते हैं जो कहीं कुछ नहीं कर पाते तो अंत में शिक्षक हो जाते हैं तमाम जगह नौकरी के लिए दूसरों से लिखवाई अंग्रेजी की एप्लिकेशन भेजते भेजते जब थक जाते हैं तो कहीं किसी विद्यालय में मास्साब अंग्रेजी पढ़ाने लगते हैं और पढ़ाते कैसा हैं ये ऊपर हम लोग चर्चा कर ही चुके हैं जहाँ विषय पढ़ाया जाता है छात्र पढ़ते हैं अच्छे नंबर से पास होते हैं और इस पूरी प्रक्रिया में पढ़ाने वाला और पढ़ने वाला दोनों सम्बंधित विषय से लगभग अनजान ही बने रहते हैं और ये चक्र यूँ ही चलता रहता है

खैर छोड़िये चर्चा गंभीर होने लगी,अच्छा मुझे लगता है हम में से लगभग सभी अगर आज अपनी वही पुरानी कोर्स की किताबों के पन्ने पलटें तो पाएंगे अरे इसमें क्या था ये तो बड़ी आसान सी बातें थीं पता नहीं क्यों उस समय कुछ पल्ले नहीं पड़ता था अब तो सब समझ में आ रहा है होता है न ऐसा ? क्योंकि अब हमारी बुद्धि विकसित हो चुकी होती है और साथ ही हमें पढाई का हौवा भी नहीं रहता जोकि कमजोर शिक्षकों के कारण हमारे आप के मन में बैठा रहता था लेकिन मुझे ये नहीं समझ आता ये बात छोटी बड़ी कक्षाओं को पढ़ाने वाले शिक्षकों के साथ क्यों नहीं होती ? उन्हें अपने ही विषय को पढ़ाना क्यों नहीं आ पाता? क्या उनकी बुद्धि विकसित नहीं हो पाती? आखिर इस दुश्चक्र को तोड़ने के लिए क्यों नहीं कोई आगे आता? ठीक है शिक्षा एक व्यापार ही सही,व्यापार मानने में मुझे कोई तकलीफ भी नहीं पर भाईसाहब व्यापार में घटिया उत्पाद देना कितना सही है? पर छोड़िये यहाँ जब क्रेता विक्रेता दोनों संतुष्ट हैं तो हम आप क्या कर सकते हैं?

शिक्षक को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान तो होना ही चाहिए पर साथ ही उसे ये भी आना चाहिए कि कैसे अपने विषय को छात्र के सामने प्रस्तुत करे जिससे छात्र उसे भलीभांति समझ सके उस ज्ञान को आत्मसात कर सके और आगे अगर वो शिक्षक बने तो कुछ और बेहतर छात्र या शिक्षक राष्ट्र को दे सके

हमें ज्ञानी शिक्षकों से कहीं ज्यादा ज्ञान को छात्र में स्थापित करने की विद्वता रखने वाले शिक्षकों की आवश्यकता है अब इसके लिए छात्र या शिक्षक किसी एक को तो पहल करनी होगी जिससे अज्ञानता का ये दुश्चक्र टूटे

इस शिक्षक दिवस मैं अपने शिक्षकों से अधिक अपने उन सहपाठियों को याद कर रहा हूँ जिन्होंने स्वाध्याय से किताबों और शिक्षकों द्वारा बताई गईं बातों को मुझे मेरी बुद्धि के हिसाब से समझाया था जिससे मुझे वो बातें हमेशा के लिए याद रहीं और आज मैं अल्प ज्ञान के बावजूद ये लेख लिखने की विद्वता रखता हूँ मेरे लिए मेरे वो सहपाठी ही मेरे सबसे अच्छे शिक्षक थे आप के शिक्षक कौन थे सोचियेगा खास तौर पे वो अवश्य इसपे विचार करें जो अभी अध्यापन के क्षेत्र में हैं या फिर किसी रूप में अध्ययन रत है और हाँ शिक्षक दिवस का लड्डू खाने से पहले और खिलाने से पहले ही इसका विचार कीजियेगा।

-तुषारापात®™

Friday 19 August 2016

एक करोड़ की साड़ी

"ये ले छुटकी तेरी राखी का तोहफा...देख कितनी सुन्दर साड़ी है..साड़ी वाड़ी पहना कर..निक्कर पहन के तेरा इधर उधर घूमना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं आता" अजय ने राखी बंधवाने के बाद अपने बैग से साड़ी निकालकर उसे देते हुए कहा

"मुक्केबाजी की प्रैक्टिस क्या..साड़ी पहन के होती है...आप भी न भइया...बस कमाल हो...वाह भइया साड़ी तो बहुत ही अच्छी है..." कहकर विजया ने साड़ी खोल के खुद पे लगाई और शीशे में अलट पलट के देखने लगी

अजय अभिमान से बोला "अच्छी क्यों नहीं होगी...पूरे चार हजार की है" फिर उसने पास ही खड़े अपने छोटे भाई अमर को देखते हुए कहा "इन लाट साहब को कितनी बार कहा...मेरे साथ सूरत चलें...अपनी तरह हीरे का काम सिखा दूँगा...पर नहीं इनको यहीं इस कस्बे में सर फोड़ना है...चल तू इसे राखी बाँध मैं जाकर जरा अम्मा के पास बैठता हूँ"

"सब अगर सूरत चले गए तो माधव पुर का क्या होगा...और मुझे छुटकी को स्टेट लेवल से आगे की एक बढ़िया मुक्केबाज भी बनाना है..इसे ओलम्पिक में भेजना है" अमर ने बुदबुदाते हुए कहा,अजय उसकी बात सुन दोनों को देख एक व्यंग्यतामक मुस्कान छोड़ता है और चला जाता है
विजया अमर को राखी बाँधती है और अपने हाथ से सिवइयाँ खिलाती है अमर अपने हाथ में लिया चमकीली पन्नी का एक पैकेट पीछे छुपाने लगता है विजया उसे सकुचाते हुए देख लेती है और उससे कहती है "भइया क्या छुपा रहे हो"

"कुछ नहीं..अ... वो...मैं...तेरे लिए..." वो आँखों में शर्मिन्दिगी लिए कुछ बोल नहीं पाता,विजया उसके हाथ से पैकेट छीन लेती है और खोलती है उसमें एक बहुत साधारण सी साड़ी होती है वो फिर भी साड़ी की खूब तारीफ करती है

"मैं बस...आज...यही ला सका....ढाई सौ की है...." अमर की आवाज रुंधी हुई थी "लेकिन बस जरा मेरा काम जम जाने दे...छुटकी...देखना एक दिन मैं तेरे लिए एक करोड़ की साड़ी लाऊँगा... पूरे माधवपुर क्या सूरत के किसी रईस ने भी वैसी साड़ी न देखी होगी कभी" दोनों भाई बहन की आँखे भीग गईं

दिन बीतते जाते हैं अमर का काम बस ठीक ठाक ही चल रहा है वो चाहे खुद आधा पेट रहे पर अपनी छुटकी को कोई कमी नहीं होने देता विजया की सेहत और खानपान की चीजें,बॉक्सिंग के सारे सामान,कोच के पैसे आना जाना आदि आदि उसकी जितनी भी जरूरतें होती सब पूरी करता उसका हौसला बढ़ाता और पैसे कमाने के लिए दिन रात खटता रहता उसकी तबियत खराब रहने लगी पर वो विजया के सामने कुछ जाहिर नहीं होने देता था

आखिरकार विजया ओलम्पिक के लिये चुन ली जाती है और विदेश में जहाँ ओलम्पिक का आयोजन होता है चली जाती है इधर अमर को डॉक्टर बताते हैं कि उसे कैंसर है वो भी अंतिम अवस्था में और वो उसे तुरंत सूरत के बड़े अस्पताल जाने को कहते हैं पर पैसे के अभाव में जा नहीं पाता और एक दिन इस संसार से विदा हो जाता है

विजया बॉक्सिंग मुकाबले के फाइनल में पहुँच जाती है अगले दिन उसे स्वर्ण पदक के लिए कोरिया की बॉक्सर से लड़ना है उसे अमर का आखिरी संदेश मिलता है "छुटकी तुझे फाइनल में जीतना ही होगा मेरे लिए नहीं...बड़ी बिंदी वाली उस महिला के लिए जिसने कहा था कि शक्ल सूरत तो इन जैसी लड़कियो की कुछ खास होती नहीं..ओलम्पिक में इसलिए जाती हैं कि चड्ढी पहनकर उछलती कूदती टीवी पे दिखाई दें और अपने गाँव में हीरोइन बन जाएं....छुटकी ये जन्म तो चला गया एक करोड़ की साड़ी अगले जनम दिलाऊँगा...तू बस सोना जीत के आना"

विजया अमर की मौत से टूट के रह जाती है पर किसी तरह खुद को समेट के वो फाइनल लड़ती है और जीतती है उसके गले में गोल्ड मैडल है उसकी आँखों के सामने तिरंगा ऊपर उठाया जा रहा है उसे लग रहा है जैसे उसके अमर भइया तिरंगे की डोर खींच रहे हैं और तिरंगा सबसे ऊपर फहरा रहा है उसकी आँख से आंसू बहते ही जा रहे हैं

पूरे देश में विजया का डंका बज जाता है कुछ दिनों बाद एक नामी सोशल वर्क संस्था कैंसर मरीजों के उपचार के लिए धन इकट्ठा करने के उद्देश्य से देश के तमाम बड़े फ़िल्मी और खेल सितारों की चीजों की नीलामी करवाती है

"देवियों और सज्जनों..अब पेश है ओलम्पिक गोल्ड मैडल विनर बॉक्सर विजया की समाज कल्याण के इस कार्य के लिए दी गई अपनी सबसे अनमोल साड़ी जो उनके स्वर्गीय भाई ने उन्हें रक्षाबंधन पे दी थी"

-तुषारापात®™

Monday 15 August 2016

दो शब्द

"और अब मैं मंच पर मुख्य अतिथि महोदय को बुलाना चाहूँगी...जो...इसी विद्यालय के छात्र रहे हैं ..और..आज एक बहुत मशहूर गीतकार और बड़े लेखक हैं...जोरदार तालियों के साथ स्वागत कीजिये श्री सत्तार अहमद जी का" काजमैन जूनियर हाईस्कूल के स्वतंत्रता दिवस समारोह में मंच संचालिका जो कि एक नई अध्यापिका ही थीं ने मुझे मंच पे कुछ इस अंदाज में आमंत्रित किया,मैं कम् ऊंचाई के उस छोटे से मंच पे पहुँचा उन्होंने मुझे माइक दिया और आग्रह किया कि मैं विद्यार्थियों से दो शब्द कहूँ मैंने उनका शुक्रिया अदा किया,तथा प्रिंसिपल और सभी अध्यापकों का अभिवादन कर बच्चों से मुखातिब हुआ

"बच्चों...मुझे 15 अगस्त और 26 जनवरी बिलकुल भी पसंद नहीं थे... जब भी..इनमें से कोई त्यौहार आने वाला होता...तो एक अनजाना सा डर मेरे अंदर पैदा होने लगता था.. मैं जब पाँचवी कक्षा में था तब से ही देशप्रेम की कवितायें और छोटे छोटे लेख लिखा करता था...और जैसे आज आप में से कुछ बच्चों ने..अपनी बहुत सुंदर सुंदर कविताएं सुनाई मैं भी उसी तरह मंच पे आकर अपनी लिखी कविताएं पढ़ना चाहता था मगर..." कहकर मैं रुक गया मेरे सामने 30 साल पहले के दृश्य उभरने लगे दिल में वही बचपन वाली धुकधुक होने लगी सब मेरी ओर उत्सुकता से देख रहे थे तो जल्दी से आगे कहना शुरू किया

"मगर मुझे कविता या लेख पढ़ने की परमिशन नहीं दी जाती थी..क्योंकि मेरे पास फुल यूनिफार्म..अ...ड्रेस नहीं हुआ करती थी.. सफेद बुशर्ट तो थी पर खाकी पैंट नहीं थी.. उसकी जगह काली पैंट थी और वो भी कुल जमा एक ही..जिसे दो तीन दिन के गैप पे रात में धोता था और सुबह तक सुखाकर फिर से पहन लेता था...तो...तो आप सब तो जानते ही हैं कि ऐसे मौकों पे जब कई अतिथि भी आते हैं जैसे कि आज मैं आया हूँ..तो बच्चों का फुल यूनिफार्म में आना जरुरी होता है.. नहीं तो स्कूल का नाम खराब होता है तो इसीलिए उस समय के प्रिंसिपल साहब ने मुझे कभी अलाऊ नहीं किया...हालाँकि मैं पढ़ने में तेज था तो उन्होंने काली पैंट में ही मुझे क्लास में बैठने की अनुमति दे रखी थी..तो कहाँ थे हम..हाँ...तो 15 अगस्त और 26 जनवरी को मैं यहीं..इस खंबे के पास..साइड में खड़े होकर दूसरे बच्चों को अपनी ही लिखी कविताएं पढ़ते और लोगों को तालियाँ पीटते मायूस मन से देखा करता था" कहते कहते गला कुछ रुंधा तो मैंने रुककर पानी पिया और जारी हुआ

"फीस तो उस समय बहुत ही कम हुआ करती थी..उसे तो देर सबेर मेरे बेहद गरीब माता पिता जमा करा देते थे पर हम सात भाई बहनों के कपड़े-लत्ते खाने-पीने की....जरूरतें...बस किसी ही तरह पूरी हो पाती थीं.. सातों भाई बहनों में सिर्फ मैं ही स्कूल आता था वो भी अपनी जिद से... खैर...तो ऐसे ही दो साल बीत गए और एक दिन आठवीं कक्षा के मेरे नए कक्षाध्यापक सूबेदार सिंह सर ने मेरी एक दो कविताएं पढ़ीं और मुझे आने वाले 15 अगस्त पर इन्हें पढ़ने को कहा मेरी सकुचाहट देख वो पहले तो चौंके पर बाद में पूरी स्थिति जानकर उन्होंने मुझे एक जोड़ी सफेद शर्ट और खाकी पैंट सिलवा दी और कहा कि अब तुम्हें रुकना नहीं है बेधड़क होके कविता पढ़ना तुम बहुत अच्छा लिखते हो...अगर उन्होंने उस समय वो नहीं कहा होता और आगे तक मेरी पढाई का बोझ न उठाया होता तो आज मैं यहाँ आपके सामने यूँ न खड़ा होता" मेरी आँखें कहते कहते डबडबाने लगीं

खुद को संभाला और आगे कहने लगा "बच्चों..यही है भारत..और यही है इसकी एकता.. देश को लेकर बड़ी बड़ी बातें जो करें उन्हें करने देना तुम बस ऐसी ही छोटी छोटी बातें पकड़ना..और निभाना...कभी भी मजहब के नाम पे बाँटने वाले चंद लोगों की बातों को सच मत मानना.. आपस में प्यार और विश्वास रखना...खुद भी बड़े हो जाओगे और देश भी ....." बच्चों ने जोर की तालियाँ बजाई तो मैं हल्का ठहर गया फिर बोला

"वैसे मुझसे दो शब्द बोलने के लिए कहा गया था..मगर...30 साल से दबी दास्ताँ थी..कुछ लंबी हो गई...आखिर तीस साल बाद इस मंच पे मैं आ ही गया और वो भी बिना यूनिफार्म के" ये सुनकर बच्चे खिलखिला दिए मैंने आगे बस ये कहा और सबको सलाम करते हुए मंच से उतर आया

"बाकी इससे बेहतर दो शब्द और क्या हो सकते हैं....जयSS हिंद"

प्रतिउत्तर में बच्चों ने पूरा विद्यालय परिसर जय हिंद से गुंजायमान कर दिया।

-तुषारापात®™

Saturday 13 August 2016

व्हाट्सएप्प वात्सल्य

ऑफिस डेस्क पे था कि तभी व्हाट्सएप्प की नोटिफिकेशन रिंग बजी "ट्यूं.. ट्यूं..ट्यूं.." उसने मोबाइल उठा कर नोटिफिकेशन क्लिक किया "खाना सहि टायम पे खा लेना" ये मैसेज पढ़ते ही उसके चेहरे पे आश्चर्य के भाव आये उसने दोबारा से मैसेज चेक किया और बुदबुदाया "खाना सही टाइम पे खा लेना" वो ये मैसेज बार बार बुदबुदा रहा था और उसकी आँखों में पानी भरता जा रहा था

उसने मैसेज का रिप्लाई किया "ये किसने लिखा है...???" उसके मन में संशय उठा कि कहीं उसकी बेटी ने तो ये मैसेज टाइप नहीं किया मैसेज भेज के वो चैट विंडो बड़ी बेसब्री से देख रहा था थोड़ी ही देर में मैसेज सीन होने के दोनो टिक नीले हुए और उसके बाद टाइपिंग शो होने लगा काफी देर तक टाइपिंग दिखाता रहा करीब 15 मिनट के बाद रिप्लाई आया "मेरा फॉन है तो मैं ही टायप करुंगी न..शिल्पा तो कालेज गई हाई"

पढ़कर वो गीली आँखों के साथ मुस्कुराया और खुशी खुशी टाइप करने लगा और जल्दी से भेज दिया "एक पल को तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ...कमाल हो गया...आज सुबह तो मैं भी हार मान चुका था"

"लैंड लाइन की जगह मोबाइल पे बात करना ही किसि तरह सीखा था...पुराने मोबाइल में बटन नहीं समझ आते थे और ये नए टच वाले को चलाना तो बहुत टफ है... उपर से ये गूगल हिंदी इनपोट...पर तुम 20 दिन से सिखा जो रहे थे तो कैसे नहीं आता" दूसरी ओर से इस बार 25 मिनट बाद रिप्लाई आया

वो समझ गया टाइप करने में समय लग रहा है और कुछ शब्द गूगल इनपुट के ऑटो ऑप्शन के कारण थोड़े बहुत गलत भी टाइप हो रहे हैं वो आज सुबह की घटना याद करके दुखी भी था और अभी आये मैसेजों के कारण बहुत खुश भी था उसने टाइप करा "सुबह मैंने बहुत गलत बिहैव किया... कितना झुँझलाया था आप पर..गुस्सा भी किया कि आपके बसका नहीं है...आप वही पुराना फोन चलाओ..." और भेज दिया

"कोई बात नहीं..झल्लहाट तो होती ही है जब एक ही चीज किसी को बार बार समझाओ और वो उस बात को जरा सा भी न पकड़ पाए :) " उधर से इस बार रिप्लाई में एक स्माइली भी आया

उसने तुरंत रिप्लाई किया "बट मुझे इस तरह चीखना नहीं चाहिए था... सॉरी.. सॉरी.. वैसे मैं बता नहीं सकता आपके आये हुए मैसेज देख के इस समय मैं कितना ज्यादा खुश हूँ..बहुत बहुत ज्यादा"

"पर मुझे पक्का यकीन है मैंने तुम्हें उतनी खुशी नहीं दी होगी..जितनी तुमने मुझे उस समय दी थी जब मैं तुमको लिखना सिखा रही थी और तुमने सबसे पहला शब्द लिखा था 'माँ'"

उसने ये मैसेज पढ़ा और टप टप की आवाज के साथ मोबाइल स्क्रीन आँसूओं से भीग गई।

-तुषारापात®™


Tuesday 9 August 2016

कवितादान

कविता स्त्री है
और पुरुष कवि है
आश्चर्य है
नहीं गया इस ओर ध्यान
नग्न लिपि को पहनाता
कवि अलंकृत परिधान

नश्वर कवि
अपने वरदहस्त से
उकेरता शब्दांगो की वक्रताएँ
भरता षोडशी चंचलताएँ
करता चिरयौवना
कविता का निर्माण

जीविका नहीं
न विपणन
है कविता उसका सृजन
यायावरी पाठक
छोड़ चीरहरण
कर अतीन्द्रिय सुख का संधान

कविता माँ है
कवि शिशु सा है
चक्रीय है ये विधान
कवि पिता है
कविता उसकी कन्या है
कर कवितादान
कवि हो जाता अंतर्ध्यान

-तुषारापात®™

Monday 8 August 2016

DP में तिरंगा नहीं तो.....

बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि सरहद पे जाकर गोली खाना ही देशभक्ति नहीं तुम सड़क पे गुटखा खा के थूकना छोड़ दो देश के लिए वही बहुत है
बात व्यंग्य की है पर इसका अर्थ काफी गहरा है चूँकि अभी पंद्रह अगस्त आने वाला है तो स्वाभाविक है कि हम सबमें देशभक्ति की भावना जागृत होगी और इस भावना का प्रकटीकरण वास्तविक जीवन और सोशल मीडिया के तमाम मंचों पर भी खूब होगा।

मुझे भावनाओं के इस प्रदर्शन में कोई बुराई भी नहीं दिखती क्योंकि हम सब राष्ट्र को लेकर भावुक होते हैं तथा इन मौकों पे भावुकता अधिक हो ही जाती है और अच्छा भी लगता है जब समाज के सभी वर्गों और धर्मों के लोग एकजुट होकर देशभक्ति का और अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं।

लेकिन इसी के साथ एक बड़ी समस्या भी उत्पन्न होती है जो पहले से अनेक वर्गों में विभाजित भारतीय समाज को कुछ और नए टुकड़ों में बाँटता है इसको समझने के लिए ज्यादा नहीं कुछ दिन पहले की बात करते हैं।

अभी कुछ दिन पहले पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान ने कश्मीर में मारे गए आतंकवादी और उससे भड़की कश्मीर में हिंसा के विरोध में 'ब्लैक-डे' मनाने की घोषणा की जाहिर है उसकी इस घोषणा से भारतीय जनमानस में उसके प्रति वितृष्णा उठनी ही थी अब उसके विरोध में लोगों ने ब्लैक डे के दिन अपनी प्रोफाइल फोटो की जगह भारतीय सेना के प्रतीक चिन्ह को लगाने का निश्चय किया और ये ट्रेंड जंगल की आग की तरह फैलता गया अब समस्या वहाँ आई जो लोग या तो इससे अंजान थे या उनकी इस तरह की भावना के प्रदर्शन में कोई खास रुचि नहीं थी तो उन लोगों ने भारतीय सेना की तस्वीर नहीं लगाई बस इतनी सी बात से पूरा सोशल मीडिया दो पक्षों में बँट गया जिन्होंने तस्वीर लगाई और जिन्होंने नहीं लगाई वे दोनों पक्ष एक दूसरे के विरोधी बन गए और फिर सिलसिला शुरू हुआ आरोप प्रत्यारोप का कोई किसी को देशद्रोही कह रहा था तो कोई किसी को ढोंगी न जाने कितने लोगों की मित्रता इस बात पर टूट गई पूरा माहौल वैमनस्य से भर गया अब सोचिये तो ये कितना अजीब लगता है कि शत्रु राष्ट्र की एक बेवकूफी भरी बात से यहाँ भारत के देशवासी आपस में ही लड़ने लगे।

भावनाओं के इस तरह के अनुचित और उग्र प्रदर्शन से कुछ प्राप्त नहीं होने वाला इस तरह तो ये मात्र एक स्वांग ही लगेगा क्योंकि अगर दोनों पक्षों को राष्ट्र की चिंता होती तो यूँ सार्वजनिक रूप से लड़ते नहीं दिखाई देते और संसार के सामने जगहंसाई के पात्र न खुद बनते और न ही देश को बनाते।

आप लोग ये मत सोचियेगा कि ये महज सोशल मीडिया का मुद्दा है क्योंकि सोशल मीडिया भी वास्तविक लोगों उनकी भावनाओं और उनकी प्रवृत्तियों से ही संचालित होता है तो ये समाज के स्वरुप को ही दर्शाता है हाँ कभी कभी थोड़ा ज्यादा मुखर दिखाई देता है।

हम सबको ये बात स्पष्ट रूप से समझना चाहिए कि स्वतंत्रता दिवस ये भी याद दिलाता है कि हम कभी पराधीन थे हम पराधीन क्यों हुए उन कारणों को जानना समझना और उन्हें फिर कभी न दोहराना ही सच्चा स्वंतत्रता दिवस मनाना है सिर्फ कोरी एक दिनी भावनाओं के वो भी देखा देखी में किये प्रदर्शन से आपकी आजादी तो दिखती है पर हमारी आजादी टिकती कितनी है ये नहीं कहा जा सकता।

अतः सिर्फ राष्ट्रगान के लिए ही नहीं राष्ट्र के लिए भी खड़े होइए वो भी सबको साथ लेकर और अगर खड़े नहीं हो सकते तो चुप बैठिये कम से कम वैमनस्य को बढ़ावा मत दीजिये।

और हाँ अपने DP में तिरंगा लगाइये न लगाइये पर ऊपर जो चित्र छपा है उसे अपने दिल में उतार लीजिये जिसमें एक सैनिक जो देश के लिए शहीद हो गया उसका बुत बना है और उस जवान के दोनों बच्चे अपने पापा के पुतले से पूछ रहे हैं पापा आप कुछ बोलते क्यों नहीं।

-तुषारापात®™

Thursday 4 August 2016

दायरा तोड़ती है जब दरिया तो समन्दर बनता है

दायरा तोड़ती है जब दरिया
तो समन्दर बनता है
पनाह लेता है दिल में जब तू
तो मोहब्बत का रिश्ता बनता है

प्यासा सुलगता चाँद
समन्दर खींच के दरिया पीता है
दहकती दरिया की भाप से
तब कहीं तुझसा फरिश्ता बनता है
पनाह लेता है दिल में जब फरिश्ता
तो मोहब्बत का पाक रिश्ता बनता है

दायरा तोड़ती है जब दरिया
तो समन्दर बनता है.................

ख़ुदा की आँख की नमी लेकर
जब कोई बादल निकलता है
छलकता रूहानी बादल
किसी कोह पे जमता है
बर्फीली कोह पे सूरज की आमद से
तब कहीं तुझसा दरिया पिघलता है

दायरा तोड़ती है जब दरिया
तो समन्दर बनता है..................

-तुषारापात®™

Monday 1 August 2016

ताजमहल

"आह..इट्स ब्यूटीफुल..चाँदनी में नहाया हुआ ताज कितना सुन्दर लगता है..है न वेद" यमुना की तरफ वाली एक मीनार के नीचे खड़े थे हम वहीं से ताज को निहारते हुए उसने मुझसे कहा

"हम्म..बहुत..." मैंने धीरे से कहा और एक नजर ताज पे डाल पहले की तरह फिर उसे देखने लगा काली साड़ी में लिपटी वो खुद ताजमहल लग रही थी,गोरा चेहरा रात के अंधेरे और पूर्णमासी की चाँदनी की मिलावट से स्लेटी लग रहा था,हलकी सर्द हवा उसकी खुली जुल्फों को बार बार उड़ा रही थी ऐसा लग रहा था कि इस काले ताजमहल की कई मीनारें उसके चारों ओर झूल रही हैं शाहजहाँ अगर तुम जिन्दा होते तो आज फिर मर जाते तुम्हारा काले ताजमहल का अधूरा सपना जीता जागता यहाँ खड़ा है

सर्द हवा से बचने को उसने साड़ी के पल्लू को अपने चारों ओर लपेट लिया और बोली "पूरनमासी को...चाँद के लोग ताजमहल का दीदार कर कहते होंगे..वो देखो..आज चाँद निकला है...आज तो दो दो चाँद हैं एक आसमान में और एक यहाँ आगरे में..."

"तीन.." मैंने कहा और उसने ताजमहल को देखना छोड़ के मेरी ओर देखा और मुझे खुद को देखते हुए पाया उसने अपने निचले होंठ को हल्का सा चुभलाया और चेहरे पे उड़ आई ज़ुल्फ को कान के पीछे करते हुए बात बदलती हुई बोली "ये हदीस भी न..कितना घुमायेगा उन लोगों को...तुम्हारी कंपनी को भी..तुम दोनों ही मिले थे..फॉरेन डेलीगेट्स को ताज की सैर कराने को...और कितना टाइम लगेगा"

"आयत...खुर्रम को मुमताज महल मिली थी और वो बादशाह हो गया..या ...वो शाहे जहाँ था इसलिए मुमताज उसकी थी.." मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया बल्कि अपना वही पुराना सवाल उससे कर दिया

"वेद...पता नहीं...मुमताज को जीते जी तो बहुत सौत रहीं थीं..हाँ मरने के बाद उसे ये हसीं ताजमहल मिला... बादशाहों के प्यार की कीमत मुमताजों की मौत होती है" मुझसे नजरें हटा वो फिर से ताज देखने लगी उसकी आँखों में उतर आयी यमुना में दो ताजमहल साफ चमकते मुझे दिखे

"किसी मुमताज को आजतक ताज बनवाते देखा नहीं...ये तो हम ही पागल होते हैं जो ताज बनवाते हैं..." मैंने एक मीनार सी उसके सीने में चुभो दी

"हाँ शायद इसीलिए तुम दूसरा ताज नहीं बनवा पाए...क्योंकि ये मुमताज तुम्हारे लिए मरी जो नहीं..."उसने जैसे कोई पुरानी कब्र खोल दी

"मैं तो नहीं बनवा सका..पर तुमने खुद को ताजमहल जरूर बना दिया... अपने सीने में मेरा प्यार दफना के...मेरा मकबरा हो तुम..आयत..मैं दफ्न हूँ तुममें... और मेरी भटकती रूह रोज देखती है अपने इस ताज को किसी और चाँद की रौशनी में नहाते हुए" कहकर मैं उसके पति और अपने कुलीग हदीस की ओर बढ़ चला,विदेशी मेहमान ताज देख चुके थे।

-तुषारापात®™

Tuesday 26 July 2016

लव ऐट फर्स्ट साइट

वो अपने दोस्त को बी4 में बिठा के अपने कोच बी1 में आया है,डिब्बे में हल्का सा उजाला है ज्यादातर लोग सो रहे हैं जो लोग अभी कुछ देर पहले कानपूर से चढ़े हैं वो भी लेट चुके हैं और क्यों न लेटें रात के साढ़े बारह से ऊपर का टाइम जो हो चूका है,ट्रेन भी अपनी रफ़्तार में है।

वो अपना सीट नम्बर ढूँढता धीरे धीरे आगे बढ़ता है हाँ ये रही 16 नम्बर अरे पर ये क्या इसपर तो कोई और सो रहा है वो थोड़ा तैश में आकर उसे जगाने वाला होता ही है कि सोने वाले का एक पैर कम्बल से बाहर आता है डिब्बे में जल रही एक मात्र लाइट के रिफ्लेक्शन से उस पैर में पड़ी पायल चमकने लगती है हल्के अँधेरे में भी वो पंजे की गुलाबी रंगत देख लेता है फिर कुछ हिचकते हुए कहता है "एक्सक्यूज़ मी... मिस.. अ..मैडम.. सुनिये ये मेरी बर्थ है.."

कम्बल हटता है वो हलकी नींद से जागी चेहरे पे बिखरे बाल लिए उठती है और एक सिस्का एल ई डी सा चमकता चेहरा देखके वो ठगा सा खड़ा रह जाता है कुछ बोल नहीं पाता वो कुछ देर तक उसे देखती है फिर पूछती है "ओ हेल्लो...इतनी रात को क्या मुझे ताकने के लिए उठाया है?"

वो हड़बड़ाते हुए जल्दी से कहता है "अ.. आप मेरी बर्थ पे हैं...ये बी1 16 ही है न.. ये मेरी सीट है"

"व्हाट रबिश...ऐसा कैसे हो सकता है...अपना टिकेट चेक करो.."उसने अपने बालों को बाँधते हुए थोड़ा जोर से कहा आसपास के लोग भी अब इंटरेस्ट से उनकी बात सुनने लगे

उसने 15 नम्बर की सीट पे लगा स्विच ऑन कर कूपे में लाइट जलाई और अपना टिकेट निकाल कर उसे पढ़के सुनाने लगा "अबोध श्रीवास्तव मेल 28 कोच बी1 सीट नम्बर 16 कानपूर सेंट्रल टू न्यू डेल्ही प्रयागराज एक्सप्रेस...ये देखिये" कहकर अबोध ने उसके हाथ में टिकेट दे दिया उसने उलट पुलट कर टिकेट देखा फिर अपने पर्स से अपना टिकेट निकाल कर उसे सुनाया "प्रयागराज एक्सप्रेस...बी1..16..कानपूर सेंट्रल टू न्यू देहली.. चैतन्या मिश्रा..24" कहकर चैतन्या ने अबोध को अपना टिकेट दिखाया और वापस रख लिया

अबोध हल्का सा परेशान हुआ पर उसके हिलते गुलाबी होंठ और चमकते दाँतों में खुद को गुम होता भी महसूस कर रहा था खुद को संभाल के वो कहता है "पर ऐसा कैसे हो सकता है...मैं तो प्लेटफॉर्म पे लगे चार्ट में भी अपना नाम देख के चढ़ा हूँ..मेरा एक फ़्रेंड भी बी5 में सफर कर रहा है... उसका सामान चढ़वाने में मुझे जरा सी देर हो गई..और इतनी देर में आप मेरी सीट.."

"भई.. आप लोग टी टी से बात करिये..ये साला रेलवे डिपार्टमेंट का सर्वर कुछ भी कर सकता है..एक ही सीट पे दो दो लोगों को टिकेट वाह" 15 नम्बर की सीट पे लेटे इलाहाबादी अंकल आखिर कब तक बीच में न बोलते,इतने में टी टी आ जाता है अबोध उसे सारी बात बताता है टीटी चार्ट में नाम चेक करता है और वो चैतन्या से टिकेट माँगता है वो अपना टिकेट दिखाती है टिकेट देख कर टीटी मुस्कुराते हुए कहता है "मैडम आपका टिकेट इसी ट्रेन..इसी कोच..इसी सीट का है..पर..बस एक छोटी सी समस्या है..आपको कल इस ट्रेन से सफर करना था"

"क्या मतलब...टिकेट आज का ही तो है..26 जुलाई..देखिये डेट भी पड़ी है इसपर.."चैतन्या ने हड़बड़ाते हुए कहा

"मैडम...प्रयागराज कानपूर सेंट्रल 12 बजकर पाँच मिनट पर पहुँचती है.. और रात 12 बजे के बाद डेट बदल जाती है..टेक्निकली..आज 27 है.. आपकी ट्रेन कल जा चुकी है..अब आप इन्हीं के साथ सीट शेयर करिये ट्रेन पूरी फुल है..सीट नहीं है...मैं अभी लौट के आता हूँ आपके पास" टीटी ने कहा और आगे टिकेट चेक करने चला गया

स्थिति बदल चुकी थी अभी जो मास्टर था वो अब बेग्गर हो चुका था "सॉरी.. आई एम सो स्टुपिड..बट मेरा दिल्ली पहुँचना बहुत जरूरी है.. कैन आई शेयर विद यू......" चैतन्या ने अपनी बड़ी बड़ी आँखें नचाते हुए अबोध से कहा,अबोध के मन में कैडबरी वाले न जाने कितने लड्डू फूटे उसने कहा "श्योर..बट वेट अ मिनट...अंकल आप ऊपर वाली सीट पे चले जायेंगे प्लीज हमें थोड़ी सुविधा हो जायेगी" उसने 15 नम्बर की साइड लोवर वाले अंकल से कहा और वो मान गए चैतन्या ऊपर से उतर के नीचे आई गुलाबी सूट में उसकी सुंदरता और निखर रही थी अबोध उसे देखता ही रह गया दोनों आधी आधी सीट पे बैठ गए और आपस में बातें करने लगे,अबोध तो उसपर दिल ही हार बैठा था उनके बीच मोबाइल नम्बर एक्सचेंज हुए और बात करते करते दोनों दिल्ली आने से थोड़ा पहले सो गए।

ट्रिंग ट्रिंग...ट्रिंग...मोबाइल की घंटी बजती है..चैतन्या मोबाइल पर अबोध का नम्बर देखती है और म्यूट करके एक तरफ रख देती है उसकी रूममेट उससे पूछती है "किसका फोन है जो उठा नहीं रही..?"

"आज ही ट्रेन में साथ आया है...थोड़ा भाव दिखाना जरूरी है..वही अपनी पुरानी कानपूर सेंट्रल से प्रयागराज वाली ट्रिक में फँसा नया मुर्गा है... पिछली बार फँसा अंकल तो बस चार महीने टिका था...पर ये यंग है और रिच भी...आठ दस महीने तो ऐश कराएगा ही" चैतन्या ने आँख मारते हुए कहा और फिर अबोध को फोन कर कहा "हाई.. वो मैं न..मैं..नहा रही थी.........."

लव ऐट फर्स्ट साइट जैसी घटना लाखों में किसी एक की सच्चाई बनती है और मेरे लाल तुम बाकी के 99999 में हो जिन्हें लड़कियाँ__________ बनाती हैं (रिक्त स्थान की पूर्ति अपने मन में करें,कमेंट में नहीं)

मन करे तो शेयर करो,जनहित में जारी द्वारा-
-तुषारापात®™

Friday 22 July 2016

विश्वास...आस्था का

"याद है पिछले साल जब हम लोग शिमला घूमने गए थे तो कुफरी में मौसम अचानक खराब होने से..कितनी बुरी तरह...घंटों..वहाँ फँसे रहे थे..गॉड कितना भयानक तूफान था..."आस्था बिस्कुट को चाय में डुबोती हुई बोली

"हाँ..याद है...पर मैडम..सुबह सुबह वो सब कहाँ से याद आ गया...अरे देखो...ये लो..गया तुम्हारा बिस्कुट चाय में" विश्वास उसके कप की ओर इशारा करते हुए तेजी से बोला

आस्था ने उस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया वो उँगलियों में फँसे बचे हुए बिस्कुट के टुकड़े को फिर से चाय में डुबोने लगी और बोली "विश्वास कल रात मैंने न...एक बहुत ही अजीब सपना देखा.."

"सपना...कैसा सपना" विश्वास चाय का एक सिप लगाता है और प्लेट से एक बिस्कुट उठाते हुए उससे पूछता है

"मैंने देखा कि हम लोग वैसी ही किसी बहुत ठंडी जगह में फँस गए हैं... चारों ओर सिर्फ बर्फ ही बर्फ हैं...और हम..दो तीन दिनों से वहाँ भटक रहे हैं...खाने पीने का सारा सामान खत्म हो चुका है..भूख से बेहाल हम दोनों थक के एक जगह निढाल होकर पड़ गए हैं...और अब दोनों में से किसी एक से एक कदम भी उठाया नहीं जा रहा" आस्था ऐसे बोलती गई जैसे अभी भी वो वहाँ फँसी हो,डर उसकी आवाज से साफ महसूस किया जा सकता था

विश्वास सुनता गया और शरारती अंदाज में बोला "वैसे जान बड़ा रोमैंटिक सीन होगा न...दूर दूर तक..सिर्फ सफेद उजली बर्फ..और हम दोनो बिल्कुल अकेले...वो भी 'भूखे'...."कहकर उसने हलकी सी आँख मारी और मुस्कुराया

आस्था भी हल्के से मुस्कुरा दी और आगे कहने लगी "आगे तो सुनो....हम लोगों का बेस कैंप वहाँ से लगभग दस ग्यारह किलोमीटर दूर है..ये बात मैं तुम्हें बताती हूँ..पता नहीं सपने में अचानक से तुम इतने स्मार्ट कहाँ से हो गए..जो कहते हो कि अगर कुछ खाने को मिल जाए तो.. हममें ताकत आ जायेगी और हम अपने बेस कैंप तक पहुँच सकते हैं...और मजे की बात मुझे तुरंत ही..अचानक से..एक पैकेट में दो रोटियाँ घी से चुपड़ी हुई मिल भी जाती हैं..मगर..."कहते कहते वो चुप हो जाती है और चाय में बिस्कुट का वो बचा टुकड़ा भी छोड़ देती है

"मगर..मगर क्या...आगे तो बोलो.." विश्वास उतावला हो उससे पूछता है

"मगर वो दोनों रोटियाँ...तुम मुझसे छीन के खा जाते हो...मुझे एक टुकड़ा भी नहीं देते..और तभी मेरी आँख खुल जाती है" आस्था ने मायूस आवाज में कहा

"हा हा हा हा..तुम औरतें सपनो में भी अपने पति को ऐसे ही देखती रहती हो..कमाल है...वैसे सपना है सपने में तो हम कुछ भी देखते हैं.."विश्वास हँसते हँसते ही बोला

"हँसों नहीं...मैं सीरियस हूँ...भूख तो हम दोनों से ही नहीं सधती है...ऊपर से तुमने उस समय जब मैं तीन दिन से भूखी थी..अकेले ही वो दोनों रोटियाँ खा लीं...एक तो मुझे दे सकते थे न...कभी अगर ऐसा कुछ रियल वर्ल्ड में हो तब भी क्या तुम ऐसा ही करोगे? बताओ न..क्यों किया तुमने ऐसा ?" आस्था मोस्ट कॉमन स्त्री चिंता मोड में आ चुकी थी

"तुमने सपना अधूरा ही छोड़ दिया...पूरा देखती तो पता चलता न...अच्छा सुनो...मैंने क्यों किया ऐसा..हमें बेस कैंप तक पहुँचने की ताकत चाहिये थी..एक एक रोटी खाने से हमारी ताकत बँट जाती...इसलिए वो दोनों रोटी मैंने खाईं...और..तुम्हें..अपनी बाहों में उठाकर..ग्यारह किलोमीटर चलकर ...बेस कैंप में ले आता हूँ और इस तरह हम दोनों सेफ हो जाते हैं और हमारी जान बच जाती है" कहकर वो आस्था को झट से अपनी बाहों में उठा लेता है और दोनों की खिलखिलाहट कमरे में गूँजने लगती है।

आस्था की चाय में पड़े बिस्कुट के दोनों टुकड़े घुल चुके थे।

-तुषारापात®™ 

Monday 18 July 2016

गिरहबान

उसने अपना टॉप उतारा और दरवाजे पे लगी खूँटी पे टाँग दिया बालों में लगा क्लच निकालकर बेसिन पे रखा और नल खोल दिया पानी बाल्टी में भरने लगा अपना लोवर उतारने ही वाली थी कि उसे दरवाजे और बाथरूम की जमीन के बीच की दराज से एक रुकी हुई परछाई नजर आई उसने झट से अपना लोवर ऊपर किया और टॉप वापस पहनकर तुरंत दरवाजा खोला परछाई जा चुकी थी उसने बाहर निकल कर भी देखा कोई नहीं था मम्मी किचेन में थी पापा पूजा कर रहे थे और भाई लॉबी में बैठा मोबाइल पे लगा हुआ था
अजीब से एक डर के साथ वो धड़कते दिल से वापस बाथरूम में आई और जल्दी जल्दी नहाने की रस्म सी पूरी की

कई दिनों से उसे लग रहा था कि कोई उसे नहाते हुए देखने की कोशिश करता है उसके अंतः वस्त्रों के साथ भी खिलवाड़ हो रहा था एक बार तो कुछ चिपचिपा सा...उफ़्फ़ सोच के ही उसे उबकाई आई

कॉलेज जाने की पब्लिक बस की कई गन्दी छुहन उसके लिए अब आम हैं राह चलते उसके यौवन का मापन करती नजरें उसे पहले चुभती थीं अब नहीं ,अपने टीचरों और साथ पढ़ने वाले लड़कों के 'सहयोगी' रवैये को भी खूब समझती है उनके इस अति सहयोगात्मक रवैये से वो अपने कई काम निकलवाने की खूबी भी ईजाद कर चुकी थी अपने बॉयफ्रेंड के साथ वो ओपन थी ये सब तो उसे आम लगता था पर अपने घर में हो रहीं हरकतें उसे बहुत परेशान करती थीं

रात में खाना पीना निपटा के हर युवा की तरह अपने कमरे का दरवाजा बंद कर वो भी इंटरनेट पे आ जाती कुछ देर फेसबुक पे रहती उसके लिए लार टपकाते लोगों के मैसेज देखती कुछ के साथ थोड़ी बहुत चुहलबाजी करती और फिर अपने बॉयफ्रेंड के साथ रात भर वीडियो चैट पे बतियाती रहती

आज की रात भी वो अपने बॉयफ्रेंड के साथ मूड में आगे बढ़ रही थी कि उसके कमरे के दरवाजे पे दस्तक होती है वो जल्दी से अपने कपड़े ठीक करती है और मोबाइल तकिये के नीचे छुपाकर दरवाजा खोलती है उसका भाई कमरे में घुस आता है दरवाजा बंद करता है और उसे पकड़ के कहने लगता है कि उसे सब पता है कि वो अपने बॉयफ्रेंड के साथ क्या क्या गुल खिलाती है और मोबाइल पे क्या क्या दिखाती रहती है वो भी उससे सब कुछ दिखाने की डिमांड करने लगता है धक्का मुक्की होने लगती है और अचानक भाई के धक्के से उसका सर टेबल से टकराता है और वो सिसक सिसक के मरने लगती है

उसका भाई मम्मी पापा को बताता है कि वो किस तरह परिवार की इज्जत खराब कर रही थी उसका मोबाइल उठाकर चैट की पहले से ऑन विंडो पर उसकी सारी करतूतें उन्हें दिखाता है

केस मीडिया में भी उछलता है लोग चटकारे लगा लगा के खबर देखते हैं कुछ उसकी फेसबुक प्रोफाइल ढूंढते हैं कुछ नए जोक्स भी बनते हैं कई इंसेस्ट पॉर्न वीडियो देखने वाले ,लड़कियों के इनबॉक्स में नंगी फोटो भेजने वाले और आपसी रिश्तों में सम्बन्ध वाली मस्तराम की कहानियाँ पढ़ने वाले भी यही कहते हैं "उसके भाई ने जो किया सही किया ऐसी गन्दी लड़कियों के साथ ऐसा ही होना चाहिए।"

पुरुष अपने गिरहबान में नहीं झाँकते क्योंकि उन्हें स्त्रियों के गिरहबानो में झाँकना पसंद है।

-तुषारापात®™

Friday 15 July 2016

छोटू

"जिज्जी...मुकुंद को सुबह दस..साढ़े दस बजे के बीच तुम्हारे घर इसीलिए भेज देती हूँ... यहाँ तो एक टाइम (रात) का खाना ही बन जाए तो बहुत है...मोहल्ले की औरतों से सिलाई कढ़ाई का काम कभी कभी ही मिलता है" रजनी ने घर आई अपनी बड़ी ननद कुसुम के एक सवाल के जवाब में ये कहा और उससे अपनी आँखें चुराते हुए थोड़ी दूर बैठे अपने सबसे छोटे बेटे मुकुंद को देखने लगी

"भाभी...भईया ने तो शराब में अपने को बर्बाद कर डाला है.. समझती हूँ तभी तो तुमको अपनी गली के बगल वाली गली में मकान दिलवाया..... किराये वगैरह की चिंता मत करना...वो मैं देख लूँगी" कुसुम ने उसका हाथ दबाते हुए कहा

रजनी अपने एक कमरे के मकान में चारो ओर नजर दौड़ाती हुई,ग्लानि और कृतज्ञता से दबी भर्राई आवाज में बोली "जिज्जी तुम्हारा ही सहारा है ...बस मुकुंद जब सुबह आया करे...तो तुम खुद ही उससे खाने का पूछ लिया करो.....और अपने से उसे खाना दे दिया करो....वो माँगने में शरमाता है...कई बार भूखा ही लौट आता है...सात साल का ये लड़का अपना स्वाभिमान अच्छी तरह समझने लगा है"

"हाँ..मुझे ही ध्यान रखना था...पर नहीं पता था...भाभी...हालात इतने..." कुसुम के रुंधे गले से आगे आवाज न निकल पाई ,अपने को सँभालते हुए उसने आगे कहा "अच्छा भाभी चलती हूँ...हिम्मत रखना..भगवान दिन फेरेगा जरूर" रजनी उठी कुसुम के पैर छूकर उसने उसको विदा किया और घर के कामकाज में लग गई

कम पढ़ी लिखी रजनी के पति ने अपना सबकुछ शराब में भस्म कर डाला था,वो मोहल्ले में तुरपाई और फाल आदि लगाने का काम कर किसी तरह अपने तीनो बच्चों को पाल रही थी

इसी तरह दिन बीत रहे थे कि गर्मी की छुट्टियों में उसकी छोटी बहन किरण अपने पति के साथ उससे मिलने आई और उसकी स्थिति जानकर दुखी हुई किरण के पति जो पैसे से मजबूत माने जाते थे (उनकी दवा की दुकान थी) सबकुछ सुनकर एकदम से निर्णायक स्वर में बोले "दीदी..एक काम करो ये मुकुंद को हम अपने साथ लिए जाते हैं...यहाँ तो ये कुछ पढ़ लिख भी नहीं पायेगा...वहाँ आगरा में हम इसका एक स्कूल में एडमिशन करा देंगे आराम से पढ़ेगा और खा पीकर मस्त भी रहा करेगा" किरण को भी अपने पति का ये सुझाव बहुत पसंद आया उसने भी अपनी दीदी को इसके लिए राजी हो जाने को कहा

"पर ऐसे कैसे भेज दूँ...मेरे बगैर तो ये कभी एक दिन भी...कहीं नहीं रहा" रजनी ने सशंकित मन से कहा ,एक माँ चाहे जितनी मजबूर हो अपने बच्चे अपने कलेजे के टुकड़े को अपने से अलग करना उसके लिए आसान नहीं होता लेकिन मुकुंद के सुनहरे भविष्य के लिए वो किसी तरह हाँ कह देती है रजनी के पति को इसपे क्या ऐतराज होता उसकी तो एक बला ही छूटी थी

"नहीं माँ...माँ..माँ..मैं कहीं नहीं जाऊँगा... माँ मुझे खुद से दूर मत करो...मैं वादा करता हूँ...कभी खाने के लिए..तुम्हें..तंग नहीं करूँगा.."मुकुंद चिल्ला रहा था पर किरण और उसके पति ने उसे जबरदस्ती कार में बिठा लिया और रजनी से विदा ली,रजनी चौराहे पे खड़ी सुबक रही थी और जाती हुई कार को तब तक देखती रही जब तक वो आँख से ओझल न हो गई

आगरा में किरण का ससुराल एक संयुक्त परिवार था उसके पति और उनके भाइयों के भरे पूरे परिवार थे सास ससुर आदि सब एक साथ ही एक विशाल भवन में रहते थे मुकुंद का एक सस्ते मद्दे सरकारी स्कूल में पहली कक्षा में नाम लिखवा दिया गया और उसे नए कपड़े और भर पेट भोजन भी मिलने लगा पर वो अपनी माँ की याद में दुखी रहता था,धीरे धीरे वो नए माहौल में ढलने लगा

"छोटू... छोटू...ये ले जरा ये गर्म पानी की बाल्टी ऊपर छत पे नरेश चाचा को दे आ.." छोटी चाची की आवाज आई

"अरे..छोssटूss...कहाँ मर गया...स्कूल से आया और गायब हो गया...बहू ओ किरण...जरा छोटू को भेज बाजार...मेरी तंबाखू तो मँगवा दे..."किरण के ससुर चिल्ला रहे थे

स्कूल से वापस आकर वो अपना बस्ता भी नहीं रख पाता था कि उसके कानों में रोज ऐसी ही आवाजें...नहीं नहीं..चीखें सुनाई देने लगती थीं, वो उसे पढ़ा रहे थे,खिला पिला रहे थे,पर वे सब उसे उसके नाम से क्यों नहीं बुलाते हैं,साढ़े सात साल का लड़का अब ये अच्छी तरह समझ चुका था

माँ का लाडला 'मुकुंद' माँ-सी के यहाँ 'छोटू' हो चुका था।

-तुषारापात®™

Saturday 9 July 2016

मलाई की गिलौरी

"देख बहु...तू नई नई आई है...इन नौकरों को ज्यादा सर पे मत चढ़ाना...सुवरिया का बाल होता है इनकी आँखों में"सासू माँ ने अंतरा को गृहस्थी की बागडोर सौंपते हुए नसीहत दी

"जी मम्मी जी" अंतरा ने हामी भरी

"और सुन ये लक्ष्मी से एक टाइम खाने की बात हुई है...जो भी बचा-खुचा हुआ करे दे दिया करना उसको...हाँ पहले बर्तन और पूरा झाड़ू पोछा करवा लिया करना...बहुत नालायक है एक काम ढंग से नहीं करती कम्बख्त" सासू माँ ने काम निकलवाने की तकनीक समझाई,अंतरा ने हाँ के अंदाज में सर हिलाया और उनके पैर छूकर उन्हें तीर्थ यात्रा पे विदा किया

अब आज से खाना बनाना और नौकरों से काम करवाने के सारे काम-धाम उसके जिम्मे हो चुके थे पंद्रह दिन में ही उसने पूरे घर का काया कल्प कर दिया,सबके पसंद का खाना घर में बनने लगा वो भी बिना खाना बर्बाद हुए और लक्ष्मी भी अपना काम अब अच्छे से करने लगी

"अरे अंतरा...ये क्या लक्ष्मी के आते ही तू उसे खाना दे देती है...वो भी आज का बना ताजा खाना.." सासू माँ तीर्थ से लौट चुकी थीं और आज पहली बार बदली हुई व्यवस्था और चमकते हुए घर को देख रहीं थीं

"हाँ मम्मी जी...बेचारी धूप में..थकी हुई और भूखी प्यासी आती है...खाना खिला दो तो.. फ्रेश मूड से खुशी खुशी मन लगाकर सारे काम अच्छे से करती है.."अंतरा ने मुस्कुराते हुए कहा

"पर उसे ताजा खाना देने की क्या जरूरत है...बासी बचा खाना बेकार जाएगा...मेरे बेटे की कमाई बर्बाद कर रही है तू तो"सासू माँ ने नकली चिंता में अपना पक्ष लपेट कर पेश किया

"मम्मी जी...खाना उसी हिसाब से बनाती हूँ कि ज्यादा खाना बेकार न् जाए...और...जब खाना सबके मन का बनता है तो बचता भी बहुत कम है ..अगर.थोड़ा बहुत बचता है तो हम सब मिलके उसे खत्म कर लेते हैं..लक्ष्मी को भी दे देते हैं...अब जब लक्ष्मी को रोज खाना खिलाना ही है...तो.. जबरदस्ती खाना ज्यादा बना के उसे एक दिन का बासी खिलाने से अच्छा है.. घरवालों की तरह उसका भी खाना ताजा ही बना लिया जाए" अंतरा ने उनके हाथ में एक प्लेट देते हुए कहा जिसमे मलाई की गिलौरी (लखनऊ की मशहूर मिठाई) के दो पीस थे

"अच्छा सुन...ये गिलौरी बहुत जल्दी खराब हो जाती है...सबको आज ही खिला देना...फ्रिज में रखने पर भी कल तक इनका मजा मर जायेगा"

"मम्मी जी...पर ये तो बहुत सारी हैं...सबके खाने के बाद भी बचेंगी" फिर उसने प्रश्नवाचक मगर मुस्कुराती नजरों से उनसे पूछा "नौकरों को आज ही दूँ...या......"

सासू माँ के चेहरे पे एक जोर की मुस्कान आ गई "तू तो मेरी सास हो गई है" कहकर खिलखिलाते हुए उन्होंने एक गिलौरी अंतरा के मुँह में भर दी।

-तुषारापात®™

Wednesday 6 July 2016

आवास विकास योजना

"अमाँ आवास..बताये दे रहें हैं..बात बहुत अच्छी तरह दिमाग में बिठा लो...इस बार बीच में ना आना... मामला बहुत सीरियस है इस बार..कसम इमामबाड़े की..तुम्हारे यार को सच्चा वाला प्यार हो गया है" विकास ने अपनी दोनों आँखें पूरी गोल बनाते हुए कहा

आवास भी तैश में आ गया पान को चुभलाते हुए उसने जवाब दिया "वो तुमने घंटाघर वाला तिराहा देखा है न...तो ये समझ लो विकास मियाँ... मामला उसी तिराहे जैसा है..अब ये तो वही बताएंगी कि वो छोटे इमामबाड़े की तरफ (अपनी ओर इशारा करता है) मुड़ेंगी या बड़े इमामबाड़े (उसकी ओर इशारा किया) की तरफ जाएंगी"

"मतलब तुम अपनी भौजी को हमारी भाभी बनाने पे लगे हो...बस यही है तुम्हारी दोस्ती...अमाँ भाई मान जाओ...रास्ते से हट जाओ.....पहली बार जब उसका बस नाम ही सुने थे तभी से मोहब्बत हो गई थी उससे... हाय...योजना पांडे... और तुम तो जानते हो यार...ये 'पांडे' लड़कियाँ तुम्हारे इस भाई पे मर मिटती हैं... तुम्हारी कसम अगर ई पांडे नहीं होती तो हम बीच में न आते..." विकास गले पे चुटकी काटके कसम खाते हुए उससे बोला

"हाँ हाँ पता है ...तुम और तुम्हारा पांडे प्रेम...पिछली वाली पंडाइन के बच्चों के प्रिय मामा तुम्हीं हो.."आवास ने चटकारा मारा तभी सामने से योजना को अपने कुत्ते के साथ आते देख वो उसकी तरफ बढ़ा,विकास ने भी योजना को आते देखा वो भी उसके साथ हो लिया

"कैसी हो योजना...पांडे.."विकास ने पांडे पे जोर देते हुए मीठे स्वर में कहा

"जी माई सेल्फ वेरी मच फाइन..."उसने नए लखनऊ की अंग्रेजी में जवाब दिया और आवास से कुछ कहने ही जा रही थी कि विकास उसे थोड़ा किनारे ले जाकर कहने लगा "अरे कहाँ लफंगों के मुँह लगती हैं आप...कोई भी काम हो इस शरीफ बन्दे से कहिये...ये सब तो छिछोरे लड़के हैं.. लड़की को बस एक ही.. समझीं न.. एक ही नजर से देखते हैं"

"हाँ हाँ और ये भाई तो इतने शरीफ हैं कि 'टिप टिप बरसा पानी..पानी ने आग लगाई' वाले गाने में भी रवीना टंडन को नहीं..बस अक्षय कुमार को ही एकटक देखते हैं" आवास ने थोड़ा जोर से मजा लेते हुए कहा आसपास ठहाके गूँज गए

योजना उसे अनसुना करते हुए अपनी आँखें चमका के मीठी आवाज में विकास से बोली "मुझे न..अम्मा ने..मतलब मम्मी ने..इसे टहलाने भेज दिया है...मुझे बहुत 'इंसल्टी' फील होती है... वो...क्या...आप हमारे टॉमी को जरा पॉटी करवा देंगे..हम यहीं आपका इंतजार करते हैं"विकास का मुँह उतर गया पर जनाब कहते क्या खुद ही आगे बढ़कर बोले थे तो बस उसके हाथ से पट्टा लेकर कुत्ते को लेकर जाने लगा

आवास जोर से हँसा और बड़ी अदब (बनावटी) दिखाते हुए उसके पास आकर बोला "जाइये बड़े नवाब साहब ...जरा कुत्ते को पाखाने खास घुमा लाइए हुजूर..तब तक आपकी बेगम साहिबा का ध्यान हम रखते हैं" कहकर वो योजना के पास आया और उससे पूछा "ठंडा पियेंगी आप...अभी उसे टाइम लगेगा...आइये उधर दुकान पे चलते हैं"

"हाँ पर आप अपने दोस्त का इतना 'जोक' क्यों उड़ाते हैं" कहकर वो आवास के साथ ठन्डे की दुकान की तरफ चलने लगती है

"वो क्या है मियाँ भूल गए हैं...ये यू पी है यहाँ योजनाबद्ध विकास कभी नहीं होता..(फिर मुस्कुराते हुए कहता है)..हाँ आवासीय योजनाएं खूब घोषित होती रहती हैं" कहकर वो दुकान वाले चचा से दो स्प्राइट माँगता है।

-तुषारापात®™

Monday 27 June 2016

Sin२θ + Cos२θ =1

"पति महोदय...ये तो मानते हो न...मुझसे बेहतर पत्नी तुम्हें किसी जनम में नहीं मिलेगी" Sin(साइन) पीछे से अपनी बाहों का 'चाप' उसके गले में डालके उससे सटते हुए बोली

कुर्सी पे बैठा वो डूबी आवाज में बोला "हाँ ये तो है...मैं तो ये भी मानता हूँ.. मुझसे बेहतर पति तो...तुमको हर जनम में मिल जाएगा"

"Cos (कॉज)...ये क्या...इतना डिप्रेसिव आन्सर...जब वाइफ मूड हल्का करने की बात यूँ गले लग के करे तो...हसबैंड को उसे...उसे चूमके अपनी सारी परेशानी दूर कर लेनी चाहिए" कहकर Sin ने Cos के माथे को चूम लिया,उसके माथे पे Sin के लिपस्टिक लगे होठों से एक लाल 'थीटा'(θ) सा निशान बन गया
Cos ने अपने माथे पे हाथ फेरा,हाथ में लग आई लिपस्टिक को उसकी साड़ी में पोछा और उसे कमर से थाम कर बोला "क्या करूँ...हर महीने कार और मकान की EMI निकालने के बाद कुछ हाथ में रह ही नहीं पाता... सारी सेलरी तो लगता है बस बैंक वालों के लिए ही कमाता हूँ...बार बार तुमसे पैसे लेना अच्छा नहीं लगता मुझको"
"तो क्या हो गया..ये गृहस्थी हम दोनों की है..इसे निभाने की जिम्मेदारी भी हम दोनों की है...किसी एक की तो नहीं..डिअर हब्बी ये मत भूलो.. Sin२θ + Cos२θ =1... यानी अपने अपने दायित्वों के वर्ग में हम दोनों साथ हैं तो 'एक' हैं...अब अगर कभी कभी कोई एक कुछ कम पड़ेगा.. तो..दूसरे को उतना बढ़ना ही पड़ेगा तभी तो गृहस्थी का 'एका' बना रहेगा..हम दो नहीं एक यूनिट हैं" Sin ने बातों बातों में जीवन का गूढ़ सत्य बता दिया

Cos का मन अभी भी अशांत था "पर मुझे लगता है पति होने के नाते.. सारे खर्चे मुझे ही उठाने चाहिए...तुम हमारी इस गृहस्थी के और भी तो कितने काम करती हो"

"अब अगर Cos ही सब कर देगा..तो फिर Sin का मान शून्य नहीं हो जायेगा..वो पुराना जमाना अब नहीं रहा...अब पति पत्नी दोनों को घर और बाहर दोनों तरह के काम करने होते हैं और खर्चे भी साथ उठाने होते हैं... और मेरे पति परमेश्वर....गणित में Sin45° और Cos45° का मान बराबर(1/√2) यूँ ही नहीं दिया गया...दोनों के 1/√2 के होल स्कवायर करने से 1/2..1/2 मिलता है....ये आधा मेरा और आधा तुम्हारा जोड़ के  बनी 'एक' गृहस्थी ही राईट एंगल(90°) वाली गृहस्थी कहलाती है"Sin ने काँधे पे पड़ी साड़ी को यूँ उचकाया जैसे कॉलर उचकाया जाता है
"वाह...मैथ्स टीचर..वाकई में तुमसे अच्छी पत्नी मुझे नहीं मिलेगी" कहकर Cos, Sin के गाल पे एक गहरा नीला 'थीटा' बनाने में मशगूल हो गया।
-तुषारापात®™

Wednesday 15 June 2016

अर्धवृत्त

"कहाँ थीं तुम....2 घण्टे से बार बार कॉल कर रहा हूँ...मायके पहुँच के बौरा जाती हो" बड़ी देर के बाद जब परिधि ने कॉल रिसीव की तो व्यास बरस पड़ा

"अरे..वो..मोबाइल..इधर उधर रहता है...तो रिंग सुनाई ही नहीं पड़ी..और सुबह ही तो बात हुई थी तुमसे...अच्छा क्या हुआ किस लिए कॉल किया.. कोई खास बात?" परिधि ने उसकी झल्लाहट पे कोई विशेष ध्यान न देते हुए कहा

"मतलब अब तुमसे बात करने के लिए...कोई खास बात ही होनी चाहिए मेरे पास..क्यों ऐसे मैं बात नहीं कर सकता...तुम्हारा और बच्चों का हाल जानने का हक नहीं है क्या मुझे.... हाँ अब नाना मामा का ज्यादा हक हो गया होगा" व्यास उसके सपाट उत्तर से और चिढ़ गया उसे उम्मीद थी कि वो अपनी गलती मानते हुए विनम्रता से बात करेगी

उधर परिधि का भी सब्र तुरन्त टूट गया "तुमने लड़ने के लिए फोन किया है ..तो..मुझे फालतू की कोई बात करनी ही नहीं है..एक तो वैसे ही यहाँ कितनी भीड़भाड़ है और ऊपर से त्रिज्या की तबियत.." कहते कहते उसने अपनी जीभ काट ली

"क्या हुआ त्रिज्या को...बच्चे तुमसे संभलते नहीं तो ले क्यों जाती हो.. अपने भाई बहनो के साथ मगन हो गई होगी.. ऐसा है कल का ही तत्काल का टिकेट करा रहा हूँ तुम्हारा..वापस आओ तुम...मायके जाकर बहुत पर निकल आते हैं तुम्हारे..मेरी बेटी की तबियत खराब है और तुम वहाँ सैर सपाटा कर रही हो... नालायकी की हद है...लापरवाह हो तुम......." हालचाल लेने को किया गया फोन अब गृहयुद्ध में बदल रहा था व्यास अपना आपा खो बैठा था

"जरा सा बुखार हुआ है उसे..अब वो ठीक है..और सुनो..मुझे धमकी मत दो मैं दस दिन के लिए आईं हूँ..पूरा रहकर ही आऊँगी.. अच्छी तरह जानती हूँ मेरे मायके आने से साँप लोटने लगा है तुम्हारे सीने पे...अभी तुम्हारे गाँव जाती..जहाँ बारह बारह घंटे लाइट तक नहीं आती..बच्चे गर्मी से बीमार भी होते तो तुम्हें कुछ नहीं होता..पूरे साल तुम्हारी चाकरी करने के बाद जरा दस दिन को मायके क्या आ जाओ तुम्हारी यही नौटँकी हर बार शुरू हो जाती है" परिधि भी बिफर गई उसकी आवाज भर्रा गई पर वो अपने 'मोर्चे' पे डटी रही

"अच्छा मैं नौटंकी कर रहा हूँ...बहुत शह मिल रही है तुम्हें वहाँ से..अब तुम वहीं रहो..कोई जरूरत नहीं वापस आने की... दस दिन नहीं अब पूरा साल रहो..ख़बरदार जो वापस आईं..." गुस्से से चीखते हुए व्यास ने उसकी बात आगे सुने बिना ही फोन काट दिया

परिधि ने भी मोबाइल पटक दिया और सोफे पे बैठ के रोने लगी उसकी माँ पास ही बैठी सब सुन रही थी वो बोलीं "बेटी.. वो हालचाल पूछने के लिए फोन कर रहा था..देर से फोन उठाने पे अगर नाराज हो रहा था तो तुम्हे प्यार से उसे 'हैंडल' कर लेना था..खैर चलो अब रो नहीं..कल सुबह तक उसका भी गुस्सा उतर जायेगा"

परिधि अपना मुंह छुपाये रोते रोते बोली "मम्मी.. सिर्फ दस दिन के लिए आईं हूँ.. जरा सी मेरी खुशी देखी नहीं जाती इनसे..."

"बेटी...ये पुरुष होते ही ऐसे हैं...ये बीवी से प्यार तो करते हैं पर उससे भी ज्यादा अधिकार जमाते हैं..और बीवी के मायके जाने पे इनको लगता है इनका अधिकार कुछ कम हो रहा है तो अपने आप ही अंदर ही अंदर परेशान होते हैं..ऐसी झल्लाहट में जब बीवी जरा सा कुछ उल्टा बोल दे तो इनके अहम पे चोट लग जाती है..और बेबात का झगड़ा होने लगता है..परु(परिधि)..तेरे पापा का भी यही हाल रहता था..ये इन पुरुषों का स्वाभाविक रवैया होता है" माँ ने उसके सर पे हाथ फेरते हुए उसे चुप कराया

"पर मम्मी..औरत को दो भागों में आखिर बाँटते ही क्यों हैं ये पुरुष?...मैं पूरी ससुराल की भी हूँ और मायके की भी....मायके में आते ही ससुराल की उपेक्षा का आरोप क्यों लगता है हम पर?...ये दो जगह का होने का भार हमें ही क्यों ढोना पड़ता है..? उसने मानो ये प्रश्न माँ से नहीं बल्कि सबसे किये हों

माँ ने उसे चुप कराया और अपने सीने से लगाकर बोलीं "इनके अहम् और ससुराल में छत्तीस का आंकड़ा रहता ही है....जब...स्वयं..भोले शंकर इससे अछूते नहीं रहे तो..और किसकी बात करूँ....परु..मैंने पहले ही कहा... पुरुष होते ही ऐसे हैं ये इनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है...ये खुद नहीं जानते..
और बेटी...व्यास का काम ही है परिधि को दो बाँटो में बाँट देना..जिससे एक अर्धवृत्त मायके का और दूसरा ससुराल का अर्धवृत्त बनता है।"

#परिधि_बराबर_व्यास_गुणा_बाइस_बटे सात
-तुषारापात®™