Tuesday 30 August 2016

शिक्षक दिवस

शिक्षक दिवस आने वाला है सोचा कुछ लिखा जाए बहुत देर तक विचार किया कि क्या लिखूँ समझ में नहीं आया,हाँ शिक्षकों और गुरूओं की बड़ाई में वही घिसीपिटी परिपाटी पे बहुत कुछ लिखा जा सकता है कि शिक्षक वो सूर्य है जो हमें अज्ञान की रात से मुक्त करता है वो राष्ट्र का भविष्य बनाता है वो राष्ट्र निर्माता है या गुरू गोविन्द दोऊ खड़े.. आदि आदि किताबी आदर्श से भरी हुई और अच्छी अच्छी प्रशंसात्मक बातें भी खूब लिखी जा सकती हैं या शिक्षक और शिक्षा व्यवस्था पे व्यंग्य्/कटाक्ष कर अपनी कलम की भूख शांत की जा सकती है पर वास्तव में क्या इतना ही है शिक्षक दिवस का महत्व? छोड़िये इन बड़ी बड़ी बातों को आइये हम हमेशा की तरह छोटी छोटी बातों से उत्तर निकालने की कोशिश करते हैं

आप में से कितने लोग हैं जो जब जूनियर हाईस्कूल या हाईस्कूल में थे तो उस समय की पढ़ाई उन्हें अच्छे से समझ आती थी? यहाँ मैं अच्छे नंबर लाकर फर्स्ट या सेकंड डिवीजन से पास होने का नहीं पूछ रहा,मेरा पूछने का मतलब है जो भी विषय जैसे विज्ञान,गणित,अंग्रेजी आदि जो पढ़ाये जाते थे वो अच्छे से या छोड़िये थोड़ा बहुत ही सही समझ में आते थे कि ये वास्तव में हैं क्या और हम पढ़ क्या रहे हैं?

कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो लगभग सभी का यही कहना होगा कि बस उस समय हमने याद किया,पेपर दिए और अच्छे या औसत नंबरों से पास हो गए वो क्या था किस बारे में था भौतिक विज्ञान,रसायन विज्ञान या त्रिकोणमिति आदि का अर्थ क्या था से हमें कुछ लेना देना न था
धीरे धीरे जब हम अपनी पढाई आगे जारी रखते हैं और उनमें से किसी एक विषय को मुख्य रूप से पढ़ते हैं तब कहीं जाकर कुछ कुछ उस विषय को जान पाते हैं कि अच्छा ये सबकुछ जो पढ़ाया जा रहा है ये इस कारण है या इसका मतलब तो ये है अब जाके समझ में आया लेकिन ऐसे लोगों का प्रतिशत बहुत कम है ज्यादातर लोग वो हैं जो पढ़ते हैं सम्बंधित विषय में मास्टर की डिग्री तक ले लेते हैं पर अपने विषय पर उनकी कोई पकड़ नहीं होती वो डिग्री लेकर या तो नौकरी या फिर व्यवसाय में लग जाते हैं और शिक्षा एक अनावश्यक आवश्यकता जैसी कोई चीज बनी डिग्री के कागज में लिपटी अलमारी के किसी खाने में धूल खा रही होती है

अब शिक्षक भी कोई अवतार तो होता नहीं जो आसमान से उतरता हो वो भी ऊपर बताये गए हम जैसे छात्रों के बीच से ही निकलता है लेकिन उसके लिए डिग्रियां बहुत काम की हैं उन्हीं के आधार पे उसे प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने का अवसर प्राप्त होता है जो सफल हुआ नौकरी पाई और बन गया राष्ट्र निर्माता, हालाँकि इसमें वो बहुतायत से होते हैं जो कहीं कुछ नहीं कर पाते तो अंत में शिक्षक हो जाते हैं तमाम जगह नौकरी के लिए दूसरों से लिखवाई अंग्रेजी की एप्लिकेशन भेजते भेजते जब थक जाते हैं तो कहीं किसी विद्यालय में मास्साब अंग्रेजी पढ़ाने लगते हैं और पढ़ाते कैसा हैं ये ऊपर हम लोग चर्चा कर ही चुके हैं जहाँ विषय पढ़ाया जाता है छात्र पढ़ते हैं अच्छे नंबर से पास होते हैं और इस पूरी प्रक्रिया में पढ़ाने वाला और पढ़ने वाला दोनों सम्बंधित विषय से लगभग अनजान ही बने रहते हैं और ये चक्र यूँ ही चलता रहता है

खैर छोड़िये चर्चा गंभीर होने लगी,अच्छा मुझे लगता है हम में से लगभग सभी अगर आज अपनी वही पुरानी कोर्स की किताबों के पन्ने पलटें तो पाएंगे अरे इसमें क्या था ये तो बड़ी आसान सी बातें थीं पता नहीं क्यों उस समय कुछ पल्ले नहीं पड़ता था अब तो सब समझ में आ रहा है होता है न ऐसा ? क्योंकि अब हमारी बुद्धि विकसित हो चुकी होती है और साथ ही हमें पढाई का हौवा भी नहीं रहता जोकि कमजोर शिक्षकों के कारण हमारे आप के मन में बैठा रहता था लेकिन मुझे ये नहीं समझ आता ये बात छोटी बड़ी कक्षाओं को पढ़ाने वाले शिक्षकों के साथ क्यों नहीं होती ? उन्हें अपने ही विषय को पढ़ाना क्यों नहीं आ पाता? क्या उनकी बुद्धि विकसित नहीं हो पाती? आखिर इस दुश्चक्र को तोड़ने के लिए क्यों नहीं कोई आगे आता? ठीक है शिक्षा एक व्यापार ही सही,व्यापार मानने में मुझे कोई तकलीफ भी नहीं पर भाईसाहब व्यापार में घटिया उत्पाद देना कितना सही है? पर छोड़िये यहाँ जब क्रेता विक्रेता दोनों संतुष्ट हैं तो हम आप क्या कर सकते हैं?

शिक्षक को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान तो होना ही चाहिए पर साथ ही उसे ये भी आना चाहिए कि कैसे अपने विषय को छात्र के सामने प्रस्तुत करे जिससे छात्र उसे भलीभांति समझ सके उस ज्ञान को आत्मसात कर सके और आगे अगर वो शिक्षक बने तो कुछ और बेहतर छात्र या शिक्षक राष्ट्र को दे सके

हमें ज्ञानी शिक्षकों से कहीं ज्यादा ज्ञान को छात्र में स्थापित करने की विद्वता रखने वाले शिक्षकों की आवश्यकता है अब इसके लिए छात्र या शिक्षक किसी एक को तो पहल करनी होगी जिससे अज्ञानता का ये दुश्चक्र टूटे

इस शिक्षक दिवस मैं अपने शिक्षकों से अधिक अपने उन सहपाठियों को याद कर रहा हूँ जिन्होंने स्वाध्याय से किताबों और शिक्षकों द्वारा बताई गईं बातों को मुझे मेरी बुद्धि के हिसाब से समझाया था जिससे मुझे वो बातें हमेशा के लिए याद रहीं और आज मैं अल्प ज्ञान के बावजूद ये लेख लिखने की विद्वता रखता हूँ मेरे लिए मेरे वो सहपाठी ही मेरे सबसे अच्छे शिक्षक थे आप के शिक्षक कौन थे सोचियेगा खास तौर पे वो अवश्य इसपे विचार करें जो अभी अध्यापन के क्षेत्र में हैं या फिर किसी रूप में अध्ययन रत है और हाँ शिक्षक दिवस का लड्डू खाने से पहले और खिलाने से पहले ही इसका विचार कीजियेगा।

-तुषारापात®™

Friday 19 August 2016

एक करोड़ की साड़ी

"ये ले छुटकी तेरी राखी का तोहफा...देख कितनी सुन्दर साड़ी है..साड़ी वाड़ी पहना कर..निक्कर पहन के तेरा इधर उधर घूमना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं आता" अजय ने राखी बंधवाने के बाद अपने बैग से साड़ी निकालकर उसे देते हुए कहा

"मुक्केबाजी की प्रैक्टिस क्या..साड़ी पहन के होती है...आप भी न भइया...बस कमाल हो...वाह भइया साड़ी तो बहुत ही अच्छी है..." कहकर विजया ने साड़ी खोल के खुद पे लगाई और शीशे में अलट पलट के देखने लगी

अजय अभिमान से बोला "अच्छी क्यों नहीं होगी...पूरे चार हजार की है" फिर उसने पास ही खड़े अपने छोटे भाई अमर को देखते हुए कहा "इन लाट साहब को कितनी बार कहा...मेरे साथ सूरत चलें...अपनी तरह हीरे का काम सिखा दूँगा...पर नहीं इनको यहीं इस कस्बे में सर फोड़ना है...चल तू इसे राखी बाँध मैं जाकर जरा अम्मा के पास बैठता हूँ"

"सब अगर सूरत चले गए तो माधव पुर का क्या होगा...और मुझे छुटकी को स्टेट लेवल से आगे की एक बढ़िया मुक्केबाज भी बनाना है..इसे ओलम्पिक में भेजना है" अमर ने बुदबुदाते हुए कहा,अजय उसकी बात सुन दोनों को देख एक व्यंग्यतामक मुस्कान छोड़ता है और चला जाता है
विजया अमर को राखी बाँधती है और अपने हाथ से सिवइयाँ खिलाती है अमर अपने हाथ में लिया चमकीली पन्नी का एक पैकेट पीछे छुपाने लगता है विजया उसे सकुचाते हुए देख लेती है और उससे कहती है "भइया क्या छुपा रहे हो"

"कुछ नहीं..अ... वो...मैं...तेरे लिए..." वो आँखों में शर्मिन्दिगी लिए कुछ बोल नहीं पाता,विजया उसके हाथ से पैकेट छीन लेती है और खोलती है उसमें एक बहुत साधारण सी साड़ी होती है वो फिर भी साड़ी की खूब तारीफ करती है

"मैं बस...आज...यही ला सका....ढाई सौ की है...." अमर की आवाज रुंधी हुई थी "लेकिन बस जरा मेरा काम जम जाने दे...छुटकी...देखना एक दिन मैं तेरे लिए एक करोड़ की साड़ी लाऊँगा... पूरे माधवपुर क्या सूरत के किसी रईस ने भी वैसी साड़ी न देखी होगी कभी" दोनों भाई बहन की आँखे भीग गईं

दिन बीतते जाते हैं अमर का काम बस ठीक ठाक ही चल रहा है वो चाहे खुद आधा पेट रहे पर अपनी छुटकी को कोई कमी नहीं होने देता विजया की सेहत और खानपान की चीजें,बॉक्सिंग के सारे सामान,कोच के पैसे आना जाना आदि आदि उसकी जितनी भी जरूरतें होती सब पूरी करता उसका हौसला बढ़ाता और पैसे कमाने के लिए दिन रात खटता रहता उसकी तबियत खराब रहने लगी पर वो विजया के सामने कुछ जाहिर नहीं होने देता था

आखिरकार विजया ओलम्पिक के लिये चुन ली जाती है और विदेश में जहाँ ओलम्पिक का आयोजन होता है चली जाती है इधर अमर को डॉक्टर बताते हैं कि उसे कैंसर है वो भी अंतिम अवस्था में और वो उसे तुरंत सूरत के बड़े अस्पताल जाने को कहते हैं पर पैसे के अभाव में जा नहीं पाता और एक दिन इस संसार से विदा हो जाता है

विजया बॉक्सिंग मुकाबले के फाइनल में पहुँच जाती है अगले दिन उसे स्वर्ण पदक के लिए कोरिया की बॉक्सर से लड़ना है उसे अमर का आखिरी संदेश मिलता है "छुटकी तुझे फाइनल में जीतना ही होगा मेरे लिए नहीं...बड़ी बिंदी वाली उस महिला के लिए जिसने कहा था कि शक्ल सूरत तो इन जैसी लड़कियो की कुछ खास होती नहीं..ओलम्पिक में इसलिए जाती हैं कि चड्ढी पहनकर उछलती कूदती टीवी पे दिखाई दें और अपने गाँव में हीरोइन बन जाएं....छुटकी ये जन्म तो चला गया एक करोड़ की साड़ी अगले जनम दिलाऊँगा...तू बस सोना जीत के आना"

विजया अमर की मौत से टूट के रह जाती है पर किसी तरह खुद को समेट के वो फाइनल लड़ती है और जीतती है उसके गले में गोल्ड मैडल है उसकी आँखों के सामने तिरंगा ऊपर उठाया जा रहा है उसे लग रहा है जैसे उसके अमर भइया तिरंगे की डोर खींच रहे हैं और तिरंगा सबसे ऊपर फहरा रहा है उसकी आँख से आंसू बहते ही जा रहे हैं

पूरे देश में विजया का डंका बज जाता है कुछ दिनों बाद एक नामी सोशल वर्क संस्था कैंसर मरीजों के उपचार के लिए धन इकट्ठा करने के उद्देश्य से देश के तमाम बड़े फ़िल्मी और खेल सितारों की चीजों की नीलामी करवाती है

"देवियों और सज्जनों..अब पेश है ओलम्पिक गोल्ड मैडल विनर बॉक्सर विजया की समाज कल्याण के इस कार्य के लिए दी गई अपनी सबसे अनमोल साड़ी जो उनके स्वर्गीय भाई ने उन्हें रक्षाबंधन पे दी थी"

-तुषारापात®™

Monday 15 August 2016

दो शब्द

"और अब मैं मंच पर मुख्य अतिथि महोदय को बुलाना चाहूँगी...जो...इसी विद्यालय के छात्र रहे हैं ..और..आज एक बहुत मशहूर गीतकार और बड़े लेखक हैं...जोरदार तालियों के साथ स्वागत कीजिये श्री सत्तार अहमद जी का" काजमैन जूनियर हाईस्कूल के स्वतंत्रता दिवस समारोह में मंच संचालिका जो कि एक नई अध्यापिका ही थीं ने मुझे मंच पे कुछ इस अंदाज में आमंत्रित किया,मैं कम् ऊंचाई के उस छोटे से मंच पे पहुँचा उन्होंने मुझे माइक दिया और आग्रह किया कि मैं विद्यार्थियों से दो शब्द कहूँ मैंने उनका शुक्रिया अदा किया,तथा प्रिंसिपल और सभी अध्यापकों का अभिवादन कर बच्चों से मुखातिब हुआ

"बच्चों...मुझे 15 अगस्त और 26 जनवरी बिलकुल भी पसंद नहीं थे... जब भी..इनमें से कोई त्यौहार आने वाला होता...तो एक अनजाना सा डर मेरे अंदर पैदा होने लगता था.. मैं जब पाँचवी कक्षा में था तब से ही देशप्रेम की कवितायें और छोटे छोटे लेख लिखा करता था...और जैसे आज आप में से कुछ बच्चों ने..अपनी बहुत सुंदर सुंदर कविताएं सुनाई मैं भी उसी तरह मंच पे आकर अपनी लिखी कविताएं पढ़ना चाहता था मगर..." कहकर मैं रुक गया मेरे सामने 30 साल पहले के दृश्य उभरने लगे दिल में वही बचपन वाली धुकधुक होने लगी सब मेरी ओर उत्सुकता से देख रहे थे तो जल्दी से आगे कहना शुरू किया

"मगर मुझे कविता या लेख पढ़ने की परमिशन नहीं दी जाती थी..क्योंकि मेरे पास फुल यूनिफार्म..अ...ड्रेस नहीं हुआ करती थी.. सफेद बुशर्ट तो थी पर खाकी पैंट नहीं थी.. उसकी जगह काली पैंट थी और वो भी कुल जमा एक ही..जिसे दो तीन दिन के गैप पे रात में धोता था और सुबह तक सुखाकर फिर से पहन लेता था...तो...तो आप सब तो जानते ही हैं कि ऐसे मौकों पे जब कई अतिथि भी आते हैं जैसे कि आज मैं आया हूँ..तो बच्चों का फुल यूनिफार्म में आना जरुरी होता है.. नहीं तो स्कूल का नाम खराब होता है तो इसीलिए उस समय के प्रिंसिपल साहब ने मुझे कभी अलाऊ नहीं किया...हालाँकि मैं पढ़ने में तेज था तो उन्होंने काली पैंट में ही मुझे क्लास में बैठने की अनुमति दे रखी थी..तो कहाँ थे हम..हाँ...तो 15 अगस्त और 26 जनवरी को मैं यहीं..इस खंबे के पास..साइड में खड़े होकर दूसरे बच्चों को अपनी ही लिखी कविताएं पढ़ते और लोगों को तालियाँ पीटते मायूस मन से देखा करता था" कहते कहते गला कुछ रुंधा तो मैंने रुककर पानी पिया और जारी हुआ

"फीस तो उस समय बहुत ही कम हुआ करती थी..उसे तो देर सबेर मेरे बेहद गरीब माता पिता जमा करा देते थे पर हम सात भाई बहनों के कपड़े-लत्ते खाने-पीने की....जरूरतें...बस किसी ही तरह पूरी हो पाती थीं.. सातों भाई बहनों में सिर्फ मैं ही स्कूल आता था वो भी अपनी जिद से... खैर...तो ऐसे ही दो साल बीत गए और एक दिन आठवीं कक्षा के मेरे नए कक्षाध्यापक सूबेदार सिंह सर ने मेरी एक दो कविताएं पढ़ीं और मुझे आने वाले 15 अगस्त पर इन्हें पढ़ने को कहा मेरी सकुचाहट देख वो पहले तो चौंके पर बाद में पूरी स्थिति जानकर उन्होंने मुझे एक जोड़ी सफेद शर्ट और खाकी पैंट सिलवा दी और कहा कि अब तुम्हें रुकना नहीं है बेधड़क होके कविता पढ़ना तुम बहुत अच्छा लिखते हो...अगर उन्होंने उस समय वो नहीं कहा होता और आगे तक मेरी पढाई का बोझ न उठाया होता तो आज मैं यहाँ आपके सामने यूँ न खड़ा होता" मेरी आँखें कहते कहते डबडबाने लगीं

खुद को संभाला और आगे कहने लगा "बच्चों..यही है भारत..और यही है इसकी एकता.. देश को लेकर बड़ी बड़ी बातें जो करें उन्हें करने देना तुम बस ऐसी ही छोटी छोटी बातें पकड़ना..और निभाना...कभी भी मजहब के नाम पे बाँटने वाले चंद लोगों की बातों को सच मत मानना.. आपस में प्यार और विश्वास रखना...खुद भी बड़े हो जाओगे और देश भी ....." बच्चों ने जोर की तालियाँ बजाई तो मैं हल्का ठहर गया फिर बोला

"वैसे मुझसे दो शब्द बोलने के लिए कहा गया था..मगर...30 साल से दबी दास्ताँ थी..कुछ लंबी हो गई...आखिर तीस साल बाद इस मंच पे मैं आ ही गया और वो भी बिना यूनिफार्म के" ये सुनकर बच्चे खिलखिला दिए मैंने आगे बस ये कहा और सबको सलाम करते हुए मंच से उतर आया

"बाकी इससे बेहतर दो शब्द और क्या हो सकते हैं....जयSS हिंद"

प्रतिउत्तर में बच्चों ने पूरा विद्यालय परिसर जय हिंद से गुंजायमान कर दिया।

-तुषारापात®™

Saturday 13 August 2016

व्हाट्सएप्प वात्सल्य

ऑफिस डेस्क पे था कि तभी व्हाट्सएप्प की नोटिफिकेशन रिंग बजी "ट्यूं.. ट्यूं..ट्यूं.." उसने मोबाइल उठा कर नोटिफिकेशन क्लिक किया "खाना सहि टायम पे खा लेना" ये मैसेज पढ़ते ही उसके चेहरे पे आश्चर्य के भाव आये उसने दोबारा से मैसेज चेक किया और बुदबुदाया "खाना सही टाइम पे खा लेना" वो ये मैसेज बार बार बुदबुदा रहा था और उसकी आँखों में पानी भरता जा रहा था

उसने मैसेज का रिप्लाई किया "ये किसने लिखा है...???" उसके मन में संशय उठा कि कहीं उसकी बेटी ने तो ये मैसेज टाइप नहीं किया मैसेज भेज के वो चैट विंडो बड़ी बेसब्री से देख रहा था थोड़ी ही देर में मैसेज सीन होने के दोनो टिक नीले हुए और उसके बाद टाइपिंग शो होने लगा काफी देर तक टाइपिंग दिखाता रहा करीब 15 मिनट के बाद रिप्लाई आया "मेरा फॉन है तो मैं ही टायप करुंगी न..शिल्पा तो कालेज गई हाई"

पढ़कर वो गीली आँखों के साथ मुस्कुराया और खुशी खुशी टाइप करने लगा और जल्दी से भेज दिया "एक पल को तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ...कमाल हो गया...आज सुबह तो मैं भी हार मान चुका था"

"लैंड लाइन की जगह मोबाइल पे बात करना ही किसि तरह सीखा था...पुराने मोबाइल में बटन नहीं समझ आते थे और ये नए टच वाले को चलाना तो बहुत टफ है... उपर से ये गूगल हिंदी इनपोट...पर तुम 20 दिन से सिखा जो रहे थे तो कैसे नहीं आता" दूसरी ओर से इस बार 25 मिनट बाद रिप्लाई आया

वो समझ गया टाइप करने में समय लग रहा है और कुछ शब्द गूगल इनपुट के ऑटो ऑप्शन के कारण थोड़े बहुत गलत भी टाइप हो रहे हैं वो आज सुबह की घटना याद करके दुखी भी था और अभी आये मैसेजों के कारण बहुत खुश भी था उसने टाइप करा "सुबह मैंने बहुत गलत बिहैव किया... कितना झुँझलाया था आप पर..गुस्सा भी किया कि आपके बसका नहीं है...आप वही पुराना फोन चलाओ..." और भेज दिया

"कोई बात नहीं..झल्लहाट तो होती ही है जब एक ही चीज किसी को बार बार समझाओ और वो उस बात को जरा सा भी न पकड़ पाए :) " उधर से इस बार रिप्लाई में एक स्माइली भी आया

उसने तुरंत रिप्लाई किया "बट मुझे इस तरह चीखना नहीं चाहिए था... सॉरी.. सॉरी.. वैसे मैं बता नहीं सकता आपके आये हुए मैसेज देख के इस समय मैं कितना ज्यादा खुश हूँ..बहुत बहुत ज्यादा"

"पर मुझे पक्का यकीन है मैंने तुम्हें उतनी खुशी नहीं दी होगी..जितनी तुमने मुझे उस समय दी थी जब मैं तुमको लिखना सिखा रही थी और तुमने सबसे पहला शब्द लिखा था 'माँ'"

उसने ये मैसेज पढ़ा और टप टप की आवाज के साथ मोबाइल स्क्रीन आँसूओं से भीग गई।

-तुषारापात®™


Tuesday 9 August 2016

कवितादान

कविता स्त्री है
और पुरुष कवि है
आश्चर्य है
नहीं गया इस ओर ध्यान
नग्न लिपि को पहनाता
कवि अलंकृत परिधान

नश्वर कवि
अपने वरदहस्त से
उकेरता शब्दांगो की वक्रताएँ
भरता षोडशी चंचलताएँ
करता चिरयौवना
कविता का निर्माण

जीविका नहीं
न विपणन
है कविता उसका सृजन
यायावरी पाठक
छोड़ चीरहरण
कर अतीन्द्रिय सुख का संधान

कविता माँ है
कवि शिशु सा है
चक्रीय है ये विधान
कवि पिता है
कविता उसकी कन्या है
कर कवितादान
कवि हो जाता अंतर्ध्यान

-तुषारापात®™

Monday 8 August 2016

DP में तिरंगा नहीं तो.....

बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि सरहद पे जाकर गोली खाना ही देशभक्ति नहीं तुम सड़क पे गुटखा खा के थूकना छोड़ दो देश के लिए वही बहुत है
बात व्यंग्य की है पर इसका अर्थ काफी गहरा है चूँकि अभी पंद्रह अगस्त आने वाला है तो स्वाभाविक है कि हम सबमें देशभक्ति की भावना जागृत होगी और इस भावना का प्रकटीकरण वास्तविक जीवन और सोशल मीडिया के तमाम मंचों पर भी खूब होगा।

मुझे भावनाओं के इस प्रदर्शन में कोई बुराई भी नहीं दिखती क्योंकि हम सब राष्ट्र को लेकर भावुक होते हैं तथा इन मौकों पे भावुकता अधिक हो ही जाती है और अच्छा भी लगता है जब समाज के सभी वर्गों और धर्मों के लोग एकजुट होकर देशभक्ति का और अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं।

लेकिन इसी के साथ एक बड़ी समस्या भी उत्पन्न होती है जो पहले से अनेक वर्गों में विभाजित भारतीय समाज को कुछ और नए टुकड़ों में बाँटता है इसको समझने के लिए ज्यादा नहीं कुछ दिन पहले की बात करते हैं।

अभी कुछ दिन पहले पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान ने कश्मीर में मारे गए आतंकवादी और उससे भड़की कश्मीर में हिंसा के विरोध में 'ब्लैक-डे' मनाने की घोषणा की जाहिर है उसकी इस घोषणा से भारतीय जनमानस में उसके प्रति वितृष्णा उठनी ही थी अब उसके विरोध में लोगों ने ब्लैक डे के दिन अपनी प्रोफाइल फोटो की जगह भारतीय सेना के प्रतीक चिन्ह को लगाने का निश्चय किया और ये ट्रेंड जंगल की आग की तरह फैलता गया अब समस्या वहाँ आई जो लोग या तो इससे अंजान थे या उनकी इस तरह की भावना के प्रदर्शन में कोई खास रुचि नहीं थी तो उन लोगों ने भारतीय सेना की तस्वीर नहीं लगाई बस इतनी सी बात से पूरा सोशल मीडिया दो पक्षों में बँट गया जिन्होंने तस्वीर लगाई और जिन्होंने नहीं लगाई वे दोनों पक्ष एक दूसरे के विरोधी बन गए और फिर सिलसिला शुरू हुआ आरोप प्रत्यारोप का कोई किसी को देशद्रोही कह रहा था तो कोई किसी को ढोंगी न जाने कितने लोगों की मित्रता इस बात पर टूट गई पूरा माहौल वैमनस्य से भर गया अब सोचिये तो ये कितना अजीब लगता है कि शत्रु राष्ट्र की एक बेवकूफी भरी बात से यहाँ भारत के देशवासी आपस में ही लड़ने लगे।

भावनाओं के इस तरह के अनुचित और उग्र प्रदर्शन से कुछ प्राप्त नहीं होने वाला इस तरह तो ये मात्र एक स्वांग ही लगेगा क्योंकि अगर दोनों पक्षों को राष्ट्र की चिंता होती तो यूँ सार्वजनिक रूप से लड़ते नहीं दिखाई देते और संसार के सामने जगहंसाई के पात्र न खुद बनते और न ही देश को बनाते।

आप लोग ये मत सोचियेगा कि ये महज सोशल मीडिया का मुद्दा है क्योंकि सोशल मीडिया भी वास्तविक लोगों उनकी भावनाओं और उनकी प्रवृत्तियों से ही संचालित होता है तो ये समाज के स्वरुप को ही दर्शाता है हाँ कभी कभी थोड़ा ज्यादा मुखर दिखाई देता है।

हम सबको ये बात स्पष्ट रूप से समझना चाहिए कि स्वतंत्रता दिवस ये भी याद दिलाता है कि हम कभी पराधीन थे हम पराधीन क्यों हुए उन कारणों को जानना समझना और उन्हें फिर कभी न दोहराना ही सच्चा स्वंतत्रता दिवस मनाना है सिर्फ कोरी एक दिनी भावनाओं के वो भी देखा देखी में किये प्रदर्शन से आपकी आजादी तो दिखती है पर हमारी आजादी टिकती कितनी है ये नहीं कहा जा सकता।

अतः सिर्फ राष्ट्रगान के लिए ही नहीं राष्ट्र के लिए भी खड़े होइए वो भी सबको साथ लेकर और अगर खड़े नहीं हो सकते तो चुप बैठिये कम से कम वैमनस्य को बढ़ावा मत दीजिये।

और हाँ अपने DP में तिरंगा लगाइये न लगाइये पर ऊपर जो चित्र छपा है उसे अपने दिल में उतार लीजिये जिसमें एक सैनिक जो देश के लिए शहीद हो गया उसका बुत बना है और उस जवान के दोनों बच्चे अपने पापा के पुतले से पूछ रहे हैं पापा आप कुछ बोलते क्यों नहीं।

-तुषारापात®™

Thursday 4 August 2016

दायरा तोड़ती है जब दरिया तो समन्दर बनता है

दायरा तोड़ती है जब दरिया
तो समन्दर बनता है
पनाह लेता है दिल में जब तू
तो मोहब्बत का रिश्ता बनता है

प्यासा सुलगता चाँद
समन्दर खींच के दरिया पीता है
दहकती दरिया की भाप से
तब कहीं तुझसा फरिश्ता बनता है
पनाह लेता है दिल में जब फरिश्ता
तो मोहब्बत का पाक रिश्ता बनता है

दायरा तोड़ती है जब दरिया
तो समन्दर बनता है.................

ख़ुदा की आँख की नमी लेकर
जब कोई बादल निकलता है
छलकता रूहानी बादल
किसी कोह पे जमता है
बर्फीली कोह पे सूरज की आमद से
तब कहीं तुझसा दरिया पिघलता है

दायरा तोड़ती है जब दरिया
तो समन्दर बनता है..................

-तुषारापात®™

Monday 1 August 2016

ताजमहल

"आह..इट्स ब्यूटीफुल..चाँदनी में नहाया हुआ ताज कितना सुन्दर लगता है..है न वेद" यमुना की तरफ वाली एक मीनार के नीचे खड़े थे हम वहीं से ताज को निहारते हुए उसने मुझसे कहा

"हम्म..बहुत..." मैंने धीरे से कहा और एक नजर ताज पे डाल पहले की तरह फिर उसे देखने लगा काली साड़ी में लिपटी वो खुद ताजमहल लग रही थी,गोरा चेहरा रात के अंधेरे और पूर्णमासी की चाँदनी की मिलावट से स्लेटी लग रहा था,हलकी सर्द हवा उसकी खुली जुल्फों को बार बार उड़ा रही थी ऐसा लग रहा था कि इस काले ताजमहल की कई मीनारें उसके चारों ओर झूल रही हैं शाहजहाँ अगर तुम जिन्दा होते तो आज फिर मर जाते तुम्हारा काले ताजमहल का अधूरा सपना जीता जागता यहाँ खड़ा है

सर्द हवा से बचने को उसने साड़ी के पल्लू को अपने चारों ओर लपेट लिया और बोली "पूरनमासी को...चाँद के लोग ताजमहल का दीदार कर कहते होंगे..वो देखो..आज चाँद निकला है...आज तो दो दो चाँद हैं एक आसमान में और एक यहाँ आगरे में..."

"तीन.." मैंने कहा और उसने ताजमहल को देखना छोड़ के मेरी ओर देखा और मुझे खुद को देखते हुए पाया उसने अपने निचले होंठ को हल्का सा चुभलाया और चेहरे पे उड़ आई ज़ुल्फ को कान के पीछे करते हुए बात बदलती हुई बोली "ये हदीस भी न..कितना घुमायेगा उन लोगों को...तुम्हारी कंपनी को भी..तुम दोनों ही मिले थे..फॉरेन डेलीगेट्स को ताज की सैर कराने को...और कितना टाइम लगेगा"

"आयत...खुर्रम को मुमताज महल मिली थी और वो बादशाह हो गया..या ...वो शाहे जहाँ था इसलिए मुमताज उसकी थी.." मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया बल्कि अपना वही पुराना सवाल उससे कर दिया

"वेद...पता नहीं...मुमताज को जीते जी तो बहुत सौत रहीं थीं..हाँ मरने के बाद उसे ये हसीं ताजमहल मिला... बादशाहों के प्यार की कीमत मुमताजों की मौत होती है" मुझसे नजरें हटा वो फिर से ताज देखने लगी उसकी आँखों में उतर आयी यमुना में दो ताजमहल साफ चमकते मुझे दिखे

"किसी मुमताज को आजतक ताज बनवाते देखा नहीं...ये तो हम ही पागल होते हैं जो ताज बनवाते हैं..." मैंने एक मीनार सी उसके सीने में चुभो दी

"हाँ शायद इसीलिए तुम दूसरा ताज नहीं बनवा पाए...क्योंकि ये मुमताज तुम्हारे लिए मरी जो नहीं..."उसने जैसे कोई पुरानी कब्र खोल दी

"मैं तो नहीं बनवा सका..पर तुमने खुद को ताजमहल जरूर बना दिया... अपने सीने में मेरा प्यार दफना के...मेरा मकबरा हो तुम..आयत..मैं दफ्न हूँ तुममें... और मेरी भटकती रूह रोज देखती है अपने इस ताज को किसी और चाँद की रौशनी में नहाते हुए" कहकर मैं उसके पति और अपने कुलीग हदीस की ओर बढ़ चला,विदेशी मेहमान ताज देख चुके थे।

-तुषारापात®™