Sunday 2 September 2018

संहार के बाद उपसंहार

"केशव! यमलोक की जनसंख्या में अनंत वृद्धि करने वाले..इस महायुद्ध के पश्चात भी क्या..तुम्हारा उद्देश्य पूर्ण न हुआ..धर्म स्थापित हो चुका.. अब शेष क्या.. क्यों मैं और तुम अभी भी संवाद कर रहे हैं..क्यों न अब मुक्ति लें?" शरशैया पे लेटे भीष्म ने कृष्ण से सविनय प्रश्न किया

जगत के स्वामी कृष्ण ने अपनी चिर परिचित मुस्कान के साथ उत्तर दिया "पितामह..इस युद्ध की प्रस्तावना भी आप हैं और उपसंहार भी आप.. पांडव कौरव व अन्य समस्त जन आप ही के मध्य हैं..और..मैं मात्र एक सूत्रधार.. नाटक के अंत में उपसंहार और सूत्रधार ही संवाद करते हैं"

सहस्त्रों बाणों पे लेटे भीष्म भी मुस्कुरा उठे "जगतपिता के मुख से पितामह का सम्बोधन कोई व्यंग्य तो नहीं..जो विजयी हुए हैं वो भी मेरे हैं और जो मृत्यु को प्राप्त हुए वो भी मेरे थे..परंतु अब मन में दोनों के प्रति कोई मोह शेष नहीं ...इस शरशैया पे स्थित होते ही मुझे मेरे समस्त जन्मों का स्मरण हो गया केशव..परन्तु तुम्हें अपने और समस्त जीवों के साथ मेरे भी समस्त जन्मों का ज्ञान है..मुझे मेरे नाम से पुकारो देवकीनंदन.. देवव्रत को पुकारो"

"पितामह...इस जन्म में जिन नातों से बँधा हूँ.. उन्हें तोड़ना सम्भव नहीं... कथा के उद्घाटन और समापन के अनन्त चक्र होते हैं परन्तु कथा को  कथा रखने के लिए..चरित्र कभी भी अपनी मर्यादा नहीं लाँघते.." कृष्ण का स्वर रहस्मयी हो चला

भीष्म ने मानो आश्चर्य सा व्यक्त किया और कृष्ण को किंचित उत्साहित करने के उद्देश्य से कहा "वासुदेव.. हाथी को एक तिनके ने बाँध लिया.. सम्पूर्ण ब्रह्मांड में किसी भी चर अचर के लिए जिसे बाँधने की कल्पना स्वप्न में भी असम्भव है वो आज यहाँ बंधन की बात कर रहा है...मेरे ज्ञान के अनुसार तो कदाचित अवतार व्यक्तियों के बंधन काटने के लिए होते हैं.." 

कृष्ण के सुदर्शन चक्र ने बाँसुरी का रूप ले लिया "जिस प्रकार युद्ध में मारे गए सारे कौरव और कुछ पांडव आपके थे उसी प्रकार आप सहित अब तक बार बार जीवित और मृत हुए सभी जीव मेरे हैं..मात्र मेरे..मैं अवतार लेता हूँ जब मुझे पुष्ट होना होता है...सृष्टि में जीवन जब अधर्मी हो जाता है..तो मैं उन्हें ग्रहण करने की लीला करता हूँ..मैं स्वयं के बंधन काटता हूँ.. शुद्ध होते हुए भी स्वयं को स्वयं के द्वारा शुद्ध करने आता हूँ..मैं अव्यक्त से कुछ व्यक्त होने आता हूँ..अपनी ही माया में रमने आता हूँ...और माया को रचके भी जाता हूँ..मैं अपने द्वारा निर्मित जल को पीने आता हूँ..मैं धर्म अधर्म का संतुलन करने आता हूँ..अधर्म के कुछ मात्रक उठा के धर्म के कुछ नए मानक तय कर जाता हूँ..मैं निष्कामी..अकर्मी..इस जैसी असंख्य सृष्टियों में कर्म करने आता हूँ..मैं ही कर्म हूँ और मैं ही उसका फल हूँ इसलिए मैं निष्काम कर्म का सार्वत्रिक मानक हूँ.. इसी के सापेक्ष मैं सबसे कर्म करवाता हूँ"

बाँसुरी के स्वरों की द्रुत गति के समान कृष्ण की वाणी महाकृष्ण भगवान नारायण के स्वरों में परिवर्तित होती जा रही थी "और इसी कर्म चक्र को बाधित करने वाली प्रतिज्ञाओं को तोड़ने आता हूँ..मेरा ये अवतार कौरवों के विनाश और पांडवों के उत्थान हेतु न होकर..तेरी प्रतिज्ञा के समापन हेतु है..इस प्रतिज्ञा ने मेरे कर्म सिद्धांत को बाधित किया है.. धृतराष्ट्र की राज्य हेतु की गई समस्त अन्धकामनाएं...दुर्योधन का सुई की नोक तुल्य भूमि न देना...दु:शासन का द्रौपदी का चीरहरण करना...अभिमन्यु की नृशंस हत्या होना..आदि सब तुम्हारे सक्षम होते हुए भी तुम्हारा अपने पिता के स्त्री मोह के फलस्वरूप अपने कर्तव्य से विमुख होकर ऐसी प्रतिज्ञा करने के ही रूप हैं...अपनी शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा तुम्हारे समक्ष तोड़ के तुम्हें तुम्हारी प्रतिज्ञा का मूल्यांकन कराता हूँ..स्वयं को जगत के समक्ष लघु कर तुम्हें तुम्हें तुम्हारी लघुता का भान कराके वास्तव में मैं जगत रूपी स्वयं को ही वृहद करता हूँ...मैं देवव्रत के काँधे से भीष्म का भार हटाने आया हूँ... मैंने पहले तुम्हें इच्छामृत्यु का वरदान दिया था और अब तुम्हारे जीने की इच्छा ही मिटाने आया हूँ..इस कथा के दोनों चरित्रों की मर्यादा की सीमा बढ़ा के मैं इसे महागाथा बना रहा हूँ..हे भीष्म...देख मुझे उत्साहित करने के तेरे प्रयास से पूर्णतया परिचित होते हुए भी एक बार पुनः  अपने ही कहे वचनों को खंडित कर रहा हूँ...परन्तु साथ ही कुछ वचन संगठित कर रहा हूँ "

कृष्ण धारा प्रवाह वाचन कर रहे हैं और भीष्म चक्षुओं की कठौतियों में गंगा की धाराएं लिए उनके एक एक शब्द को आत्मसात करते जा रहे हैं ,भीष्म असीम आनंद में हैं उनके शरीर में बाणों से जो असंख्य छिद्र बने हुए हैं उनसे वो भगवान को अधिक से अधिक सोखते जा रहे हैं और कृष्ण हुए जा रहे हैं।

~तुषारापात®