Monday 7 December 2015

असहिष्णुता

"अरे आबिद..रुक मैं भी चलता हूँ तेरे साथ" ऑफिस में लंच टाइम होते ही जैसे ही मैं अपनी डेस्क से उठकर शर्मा भोजनालय जाने को हुआ तो अकरम की इस आवाज ने मुझे रोक लिया, मैं वापस घूम कर उसकी टेबल पे पहुँचा और हँसते हुए बोला-"पर..तू तो अपना लंच घर से ही लाता है..आज क्या हुआ..बीवी ने लात जमा दी क्या"

" नहीं यार..मैडम दो दिन के लिए मायके गई हैं...टिफिन कौन बनाता..तो सोचा तेरे साथ ही लंच किया जाय..वो भी तेरे फेवरिट..शर्मा भोजनालय में" उसने भी हँसते हुए जवाब दिया और यूँ ही इधर उधर की बात करते हुए हम दोनों ऑफिस के बिलकुल नजदीक शर्मा जी के रेस्टॉरेंट कम ढाबे में पहुँच गए

"अच्छा बता क्या लेगा तू...मैं तो जनता थाली ही खाता हूँ कम बजट में पूरा जायका " रेस्टॉरेंट की टेबल के दोनों ओर पड़ी चार कुर्सियों में से एक कुर्सी पे बैठते हुए मैंने उससे पूछा

"तो यार ..हम कौनसे महाराजा हैं ...मेरे लिए भी थाली ही मँगा ले" मेरे ठीक सामने वाली कुर्सी पे बैठा अकरम टेबल पे तबला बजाते हुए बोला

मैंने शर्मा जी को आवाज लगाई-" शर्मा जी..भई आज दो थाली लगा दीजिये..अकरम साहब भी आज शौक फरमाने आये हैं"

"अभी लीजिये आबिद साहब" शर्मा जी अपनी चिर परिचित व्यवसायिक मुस्कान के साथ बोले

रेस्टॉरेंट के एक कोने में पुराना सा टीवी चल रहा था और ज़ी न्यूज़ पे आमिर खान के बयान का पोस्टमार्टम हो रहा था हम दोनों थोड़ी देर तक टीवी देखते रहे फिर मैंने उससे कहा-"बिलकुल सही कहा है आमिर ने..इनटॉलेरेन्स तो है ही हर जगह."

"हाँ यार..सही कह रहा है तू ...हम मुस्लिमों के साथ ज्यादती हर जगह हो रही है" अकरम ने भी आमिर का बयान सही बताया

हम बात कर ही रहे थे और इतनी देर में माथे पे तिलक लगाये एक लंबा चौड़ा आदमी हमारी टेबल पे खाली पड़ी एक कुर्सी पे अकरम के बाजू में आकर बैठ गया छोटा सा रेस्टॉरेंट और कुर्सियाँ भी कम होने के कारण ये एक आम बात थी उसपे हमने कोई विशेष ध्यान नहीं दिया हम अपनी बात करते रहे

"और क्या..सरकार भी उनका ही साथ दे रही है..दादरी में देखो सरेआम क्या हुआ..खुलेआम ज्यादती हमपर की जा रही है और अगर उसकी मुखालफत में कोई कुछ कहे तो...ये साला 'सहिस्नुता' 'असहिनुस्ता' चिल्ला चिल्लाकर हमारी आवाज दबा देना चाहते हैं" मैं हलके गुस्से में आ गया था अकरम के पड़ोस में बैठा शख्श टीवी देख रहा था उसके पहनावे वैगेरह से मैंने समझ लिया था कि हिन्दू है ,हम थोड़ी तेज आवाज में अपना नाम ले ले कर बात कर रहे थे,पता नहीं क्यों,पर मैं चाहता था कि वो हमारी ये बातें सुने,उसने सुना या नहीं मुझे पता नहीं चला वो चुपचाप बैठा टीवी देखता रहा और इसी बीच रामू हमारी दोनों थालियाँ टेबल पे लगा गया और उस बन्दे ने भी थाली ही आर्डर की, मैं और अकरम खाना खाने लगे

"अरे भाई...ओ...लड़के..रोटी ले आओ..अकरम के बाजू में बैठा वही बंदा रामू को आवाज लगा रहा था भीड़ होने के कारण रामू उसकी थाली में दो रोटी दे गया था और भी कई लोग खाना खा रहे थे इसलिए रोटी आने में टाइम लग रहा था हाँ हम दोनों की थाली में शर्मा जी ने चार चार रोटियाँ ही भेजी थीं क्योंकि मैं रोज खाने वालों में से था और वो जानते थे कि मुझे जल्दी रहती है ऑफिस वापस पहुँचने की

"यार आबिद..ये दो रोटियाँ तुम खा लो..मेरा तो दो में ही पेट भर गया" अकरम अपनी थाली से मेरी थाली में रोटियाँ रखते हुए बोला

मुझे किसी की थाली से कुछ भी बचा कु्चा खाना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता है तो मैंने बात घुमाते हुए कहा-"अरे न भाई न...मैं तो चार रोटी में फुल हो गया..और अभी तो चावल भी खाना है तुम्हें नहीं खाना है तो छोड़ दो"

जैसे ही मैं रोटियाँ वापस उसकी थाली में रखने जा रहा था अकरम के बाजू में बैठे शख्स ने मुझसे कहा-"भाई साहब..अगर आप लोग न खा रहे हों तो ये रोटियाँ मुझे दे दें"

मैं और अकरम दोनों ये सुनकर भौंचक्के रह गए एक अनजान हिन्दू मुझ मुसलमान की थाली से रोटी माँग रहा था,थोड़ा सम्भलते हुए मैं उससे बोला-" हाँ हाँ क्यों नहीं..पर अगर आप थाली में दो रोटी कम भी लोगे तब भी आपको पैसे तो पूरी थाली के ही चुकाने होंगे..फिर आप मेरी थाली की रोटियाँ...

वो मेरी बात बीच में ही काटते हुए बोला-"हाँ जानता हूँ पैसे पूरे देने होंगे पर ऐसे दो रोटी फिंकने से बच जाएंगी...और..मेरी थाली की बची रोटियाँ किसी और की भूख मिटा सकेंगी हाँ अब ये मत कहियेगा कि जहाँ फेंकी जायेगी वहाँ कोई भिखारी या भूखा इन्हें बीन के खा लेगा..आखिर किसी इंसान को कूड़े से बीनकर खाना खाते देखना कहाँ की सहिष्णुता है?"

हम दोनों को सांप सूंघ गया मैंने उसे रोटियाँ दी और चुपचाप खाना खाकर जाने ही वाले ही थे कि वो आदमी मुझसे बोला -"बरसों कोई आबिद.. किसी शर्मा के होटल में खाना खाता रहता है..पर एक दिन अचानक..... किसी के कहने से उसे क्यों लगने लगता है कि पूरे देश में भेदभाव है .... आबिद साहब... कभी आराम से सोचियेगा कि..मुल्क में चालीस रुपैये की थाली खाने वाले को असहिष्णुता कहीं नहीं दिखाई देती..पर उसी मुल्क में चार सौ करोड़ कमाने वाला इनटॉलरेन्स की बात करता है क्यों ?"

(सौ फीसदी सच्ची घटना पे आधारित)
-तुषारापात®™
© tusharapaat.blogspot.com

2 comments:

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  2. Wow Bhaiya,
    But Only Politics matters not a single common man
    Intolerance is nothing its only a propaganda

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