Thursday 11 May 2017

सिद्ध साधना

"ऑटोग्राफ प्लीज" बुक फेयर में मेरी लिखी एक पुरानी नावेल लिए एक हाथ मेरी ओर बढ़ता है...नावेल पकड़ी उन उंगलियों को मैं तुरंत पहचान लेती हूँ...मेरी जुल्फों में इन पोरों के प्रिंट आज तक मौजूद हैं.. "त.तुम..." अपने आसपास मौजूद प्रशंसकों को अपनी नई नावेल पे ऑटोग्राफ देते हुए मैं बस इतना ही बोल पाई उसे बैठने का इशारा किया और कुछ फैन्स को फटाफट नावेल साइन करके थोड़ा सा वक्त माँग एक ब्रेक लिया

"आज न्यूज़ में पता चला कि अपनी नई नावेल के लिए तुम दिल्ली आई हो तो चला आया...तुम्हारी सबसे पहली नावेल का ये पहला पहला प्रिंट आज तक तुम्हारे हस्ताक्षर को तरस रहा है..सोचा शायद आज बत्तीस साल के बाद..."पूरी बात कह उसने आखिरी सेन्टेन्स अधूरा छोड़ दिया

मैंने उसके हाथ से नॉवेल अपने हाथ मे ली और उसपे हाथ फिराया "अधूरी साधना..ये जब लिखी थी तो नहीं जानती थी कि कभी मैं ही पूरी नहीं हो पाऊँगी.. क्या करोगे मेरे हस्ताक्षर लेकर..'दी साधना मजूमदार फ्रॉम लंदन' मैं लिखना नहीं चाहती और वक्त ने तुम्हारी साधना लिखने नहीं दिया" मैंने आंखों में आई नमी को मुस्कुराहट की मिट्टी से सुखाते हुए कहा

"एक टाइम रुकी हुई घड़ी..दोबारा से भी चल सकती है..वक्त सुइयों की बाहें फैलाएं फिर से खड़ा है..साधना..कुछ भी तो नहीं बदला..तुम भी वही हो और मैं भी..हाँ..तुम्हारी कमर थामने वाले ये हाथ अब कमजोर हो चुके हैं पर इतने नहीं कि...तुम्हारे हाथ न थाम सके" उसने अपने हाथों को आगे बढ़ाते हुए कहा

"सिद्ध..जानते हो पिछले बत्तीस सालों में अपने अड़तालीस नावेल मैं कैसे लिख सकी..शायद मेरी बेरंग जिंदगी ही कागजों को रंगीन करती गई...आज इस मुकाम पे हूँ..तो तुम्हारी वजह से.. तुमने मुझे न ठुकराया होता..." मैंने जैसे ही ये कहा तो वो दर्द से कराह उठा "दर दर की ठोकर खाने वाला किसी को क्या ठुकरा सकता है..सधी..कितने बरस मैं स्ट्रगल करता रहा..खुद को बनाने में..और उसके बाद न जाने कितने साल तुम्हें खोजने में..पर तुम तो अपनी मम्मी के साथ लंदन....पर क्या आज दो अधूरे टुकड़े उन बीते लम्हों के गोंद से नहीं जुड़ सकते..कितने खुश थे हम उन लम्हों में..."

फैन्स की भीड़ बढ़ने से मेरी टीम मुझे आने का इशारा करती है देखकर भी उन्हें अनदेखा करते हुए उससे कहती हूँ "वही लम्हें मेरी साँसे हैं.. सिद्ध..मैं उन्हें अब तुम्हारे साथ भी शेयर नहीं कर सकती..कम से कम उनका भरम तो बना हुआ है..और वैसे भी अब इस चेहरे पे झुर्रियाँ आ रहीं हैं..मेरे हर एक उपन्यास के साथ एक नई सलवट चेहरे पे बढ़ जाती है..यही मेरा ईनाम है..और इस ईनाम पे मैं लाल बिंदी का फुलस्टॉप नहीं लगाना चाहती" कहकर मैं जल्दी जल्दी उसकी लाई हुई नॉवेल के पहले पन्ने पे कुछ लिख के उसे वापस देती हूँ और यह कहकर वापस अपनी टीम के पास आ जाती हूँ "लम्हों की स्त्री उल्टी चलाने से वक्त की सलवटें नहीं मिटा करतीं।"

मेरी नजरें उसपे ही थीं नॉवेल पे मेरा लिखा पढ़ते हुए वो वापस जा रहा था "कुछ साधनाएं अधूरी ही रह जाती हैं उन्हें कोई सिद्ध नहीं कर सकता"

#तुषारापात®