Sunday 12 July 2015

ढपोरशंख

बड़े प्यार से सर टिकाया था तुमने
मेरी सफ़ेद शर्ट के धड़कते सीने पे
इलाहाबाद की बारिश को पीते हुए
यूनिवर्सिटी के 'वैज्ञानिक' जीने पे
गंगा किनारे की सोंधी मिटटी सी तुम
महकती,कांपती,गुनगुनी होती हुईं
जैसे कोई सोने का छल्ला अंगूठी होने को
मढ़ जाना चाहता हो किसी नगीने पे
काश तब मैं 'ढपोरशंख',अपनी उँगलियों की चाबी से
खोल पाया होता तुम्हारी उलझी जुल्फों के ताले करीने से

-तुषारापात®™
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