Tuesday 11 July 2017

पूर्णिमा का सूरज-प्रतिपदा

"पूरी दिल्ली फाँद के यहाँ रहते हो?..आई मीन...तुझे कौन सा किसी मल्टीनेशनल कंपनी में ड्यूटी बजानी होती है..दिलदारों की दिल्ली छोड़ के..चित्रकार साहब यहाँ पड़े हैं" रात के ग्यारह बजे सोसाइटी के गेट पे मुझसे गले लगते हुए उसने कहा

"मानेसर..दिल के बहुत करीब है..यहाँ मेरा मन एक सेर का हो जाता है" मैं उसे लिए लिफ्ट की ओर चलने लगा और मुस्कुराते हुए आगे बोला.."और वैसे भी..दिल्ली के लोगों के लिए दिल,दिल बहलाने का शगल है..लगाने का नहीं..तुम्हारी दिल्ली के लोग आँख के आँसू भी तब ही पोछते हैं जब उन्हें नोट गिनने के लिए अपना अँगूठा तर करना होता है"

उसने रुककर मुझे एक पल देखा और मेरी आँखों में देखते हुए बोला "सेर का तो पता नहीं पर ये मन,मन भर भारी तो दिख रहा है" और फिर हँसके आगे बोला  "बेटा सूरज इस आलोक बाबा बंगाली का ये ज्ञान दिमाग में फिट रखो..कि मेट्रो के पिंक कम्पार्टमेंट को बस दूर से देखना चाहिए... उसमें सफर करने वाले का तो कटता ही है..कभी चालान.. तो कभी चूतिया..." उसने बात को हल्का करने के लिए जानबूझकर मज़ाक किया और हँसने लगा मैं भी उसके साथ मुस्कुराने  लगा, थोड़ी ही देर में हम दोनों छठे फ्लोर पे मेरे फ्लैट में पहुँच चुके थे।

बालकनी में पड़ी दो कुर्सियों पे दोनों ढेर हुए,उसने सिगरेट की डिब्बी मेरी ओर बढ़ाई मेरे मना करने पे एक सिगरेट सुलगा के मुझसे बोला "देख जो हुआ उसे छोड़..आगे बढ़..पुरानी यादों के मुर्दा फूलों से  ख़ुश्बू नहीं बासी बदबू आती है"

"मम्मी से मिलके आया न?" मैंने बीयर का एक कैन खुद के लिए खोल लिया और एक उसकी ओर बढ़ाते हुए पूछा,मेरे सीधे सवाल से वो थोड़ा सा अनकम्फर्टेबल होते हुए बोला "हाँ तो?..किस माँ को अपने जवान बेटे का पारो पारो चिल्लाके पागल होना अच्छा लगता है." उसने बीयर का एक घूँट लगाया और आगे कहने लगा "पूर्णिमा की शादी हुए अब साल भर हो रहा है...एक बुरे सपने के चक्कर मे अगला दिन खराब करना सूरज का काम तो नहीं होता"

कैन को बालकनी की रेलिंग पे रख,सिगरेट सुलगा मैंने सामने उँगली दिखाते हुए उससे पूछा "जानता है वो दूर..सामने क्या है?"

अपनी बात का जवाब न पाकर उल्टे मेरे इस सवाल से वो खीजता हुआ बोला "अबे..जयपुर हाइवे है..जिसपर ट्रक आ रहे हैं..जा रहे हैं..और मैं यहाँ उन्हें निहारते हुए एक आशिक के साथ अपना सर फोड़ रहा हूँ.."

"ये हाइवे नहीं उसके गुलाबी शहर को जाता काला रस्ता है..और उस शहर को जाते ये ट्रक..ट्रक नहीं..पोस्टकार्ड हैं..जिनके दो कोनों पे टॉर्च लगी है..ताकि आगे वाले पोस्टकार्ड अंधेरे में भी पढ़े जा सकें..मैं यहाँ बैठकर आते हुए पोस्टकार्डों के जवाब पढ़ता हूँ..शायद किसी दिन कोई पोस्ट कार्ड मेरे नाम का..." यादों की बियर का कैन खुल चुका था और मेरी बातों में बीता वक्त फेने सा निकलने लगा

"साले पेंटर..वो तो शशि के साथ मजे से जयपुर में सेट होकर अपनी रातें गुलाबी कर रही होगी..उसके लिबास के लिफाफे पे अब पति नाम का स्टैम्प है..और तू यहाँ पोस्टमैन-पोस्टमैन खेल रहा है..भूल जा उसके वादे को..वो अब नहीं आएगी" उसने नया कैन खोलते हुए मेरी ओर देखे बगैर कहा और बात कहकर कैन मुँह से लगा लिया

थोड़ी देर के बाद उसने 'खान चाचा' के बिरयानी के पैकेट को मेरी ओर बढ़ाया मैंने पैकेट को एक तरफ रखा और हाइवे को देखते हुए उससे कहा "इश्क में रंगे खुले पोस्टकार्ड अक्सर शादी के लिफाफों में कैद हो जाते हैं..पर उनमें से कुछ..लिफाफों का स्टैम्प हटा के वापस अपने सही पते पे भी आते हैं..ऐसी बेरंग डाक जल्दी आती है..पर लिफाफों का लिबास उतारकर आने वाले पोस्टकार्ड अक्सर देर से आते हैं.."

उसने आधी खाई बिरयानी का पैकेट एक ओर रख चलने का इशारा किया और जाते जाते कह गया "व्हाट्सएप्प के ज़माने में चिठ्ठियों वाला प्यार रद्दी के भाव बिकता है।"

-तुषारापात®