Tuesday 23 April 2019

काली का तुषारापात

"ये संसार ससुराल के जैसा है..कितने ताने हैं..उलाहने हैं यहाँ...माँ.. मैं तेरे पास आया हूँ ..अपने मायके..तू पूरे ब्रह्माण्ड की रानी..तू भी मेरा कष्ट नहीं हर सकती क्या.." दक्षिणेश्वर मंदिर के प्रांगण में काली की मूर्ति के ठीक सामने बैठा वो बुदबुदा रहा था

अचानक से तेज हवाएं चलने लगतीं हैं,हुगली नदी की ओर से हवा का एक बहुत ही तेज झोंका पसीने से लथपथ मंत्र बुदबुदाते उस आदमी को ठंडक से भर देता है "इस ब्रह्माण्ड में ऐसा कोई भी कर्म है क्या..जिसे मुझे करने की आवश्यकता पड़े...मेरे सोचने से पहले ही वो कार्य सम्पन्न हो जाता है" काली ने मानों काल पर अपनी पकड़ बताई और आगे बोली "मैं सब कुछ कर सकती हूँ..पर मायके और ससुराल का भेद भी तो मुझे बनाये रखना है..अगर मैं ससुराल के तेरे सारे दुख दूर कर दूँगी तो मायके और ससुराल का अंतर न समाप्त हो जाएगा"

"समझा..मतलब..ब्याही गयी बेटी की तरह..मुझे मायके आकर भी चूल्हा चौकी में लगना होगा..तुझे प्रसन्न करने के लिए और कितना जप मुझे करना होगा" वो ऐसे बिलखा जैसे माँ को देखकर कोई बच्चा बिलखने लगता है

काली मुस्कुरा रही थी "मैंने कब कहा कि तू यहाँ के चूल्हे चौके को संभाल... तू ही हठ करके बैठा है कि मैं इतनी माला फेरूँगा... मैंने तो तुझे बस देखने को बुलाया था.. देखना था कि तू तैयार है न और दुख सहने को...ये जाप छोड़ इसकी तुझे कोई आवश्यकता नहीं..मुझसे वार्ता कर.. पुत्र..मुझसे वार्ता कर..तेरी जपी हर माला मुझे भीतर तक चुभ जाती है...मुझे अनुभव कराती है तेरे दुखों से..कौन माँ अपने पुत्र को दुखी देखना चाहती है..उसकी आँखों को तरसते हुए देखना चाहती है..यूँ भूखे प्यासे जप तप में पड़े अपने पुत्र को देख कर प्रसन्न होती है.."

काली की मुस्कुराहट गंगा की आई लहर की तरह लौट गई वो आगे कहती है "मेरी कुंडली बाचेगा...मैं गदाधर को रोगमुक्त न कर सकी..नरेंद्र को दीर्घायु न दे सकी..मेरे पास देने को सुख नहीं है पुत्र..मैं तुझे और कष्ट देने वाली हूँ .. इसलिए सोचा एक बार अपने इस लाल को निहार लूँ..स्नेह के दो शब्द सुन लूँ..बस..जप छोड़ मुझसे वार्ता कर.."

" कुंडली बाच लेने से अगर कष्ट दूर हो जाते तो मैं प्रथम अपनी ही बाच लेता..प्रारब्ध के विषैले बीजों से उत्पन्न फलों को तो चखना ही होगा..पर बालक माँ से अपने मन की बात तो कर ही सकता है..अपनी पीड़ा माँ से भी न कहूँ तो कहाँ जाऊँ... तू भी उल्टे मुझे अपनी पीड़ा बताने लगी.." मंत्र जपने वाले के चक्षुओं में गंगा यमुना उतर आईं

"संभवतः यही तेरा प्रारब्ध है...तुझे सबके कष्ट सुनने का दण्ड मिला हो.. यह तेरा सौभाग्य है या दुर्भाग्य इसका निर्णय तुझपर छोड़ती हूँ...जब तू यहाँ आया था तब तेरे मन में एक प्रश्न था" काली रहस्यमयी मुस्कान के साथ उससे बोली

"अब उस प्रश्न का औचित्य है क्या?..तूने खुद ही कह दिया...परन्तु पूछ ही लेता हूँ...मैं सदैव तुझसे ये प्रश्न करना चाहता था कि विवेकानंद को इतनी कम उम्र क्यों दी तूने..क्यों परमहंस को इतनी पीड़ा दी..कुछ माँगने नहीं बस यही प्रश्न लेकर आया था तेरे पास" तपस्वी ने स्वयं को व्यवस्थित कर कहा

काली,मूर्ति छोड़कर प्रांगण में ठीक उसके सामने आकर खड़ी हो गयी और कहने लगी "जानती हूँ कि तुझे स्नेह और प्रेम से अधिक तर्क की भाषा भाती है तो सुन....दीपक देर तक जलता है दियासलाई नहीं...पाषाणों की रगड़ से उत्पन्न चिंगारी की आयु कितनी..ये महत्वपूर्ण नहीं ...परन्तु वो वन को भस्म कर सकती है इससे उसका महत्व है..दियासलाई की आयु क्षण भर की है परन्तु उससे प्रज्ज्वलित दीपक का प्रकाश एक युग है..एक दीपक से असंख्य दीपक प्रकाशित होते रहते हैं....गदाधर में पाषाण का प्रकाश था और पाषाण अचल रहते हैं ....उसने नरेंद्र को चलित अग्नि प्रदान की..उसे दियासलाई सम बनाया जो कहीं भी जाकर किसी को भी प्रकाशित कर सकती थी और एक बार उनको सौंपें कार्य सम्पन्न हुए तो वे विदा हुए...शेष उनके कष्ट के लिए क्या कहूँ प्रकाश देने वाले को स्वयं को अग्नि को समर्पित करना ही पड़ता है...तू भी प्रकाशित हुई इस दीप-श्रखंला का एक चलित दीपक है..बस स्मरण रखना राजमहल रात्रि में भी प्रकाशित रहते हैं किंतु मलिन बस्तियों में सूर्य भी नहीं पहुँचता.. तुझे वहाँ अपना प्रकाश लेकर जाना है"

"समझा..मुझे अपने प्रथम प्रश्न का उत्तर मिल गया..माँ और कितने दुख हैं मेरे लिए तेरी झोली में... मुझे सब स्वीकार हैं" तपस्वी के चक्षुओं की गंगा यमुना अब मुख की सरस्वती से मिलन कर चुकी थी

महाकाली ने सरस्वती रूप में उससे कहा "तुझे और कष्ट यूँ दूँगी कि... औरों के सब कष्ट तुझे दूँगी..अर्थात तुझे अपने समीप आने वाले सभी के कष्ट सुनने होंगें.. उन्हें ग्रहों के प्रकाश से सत्य का मार्ग दिखाना होगा... जा तुझे यह वर देती हूँ..जिसका भी कष्ट तू मन से सुन लेगा उसका प्रारब्ध कट जाएगा...जा अपनी मीठी ज्ञान 'गंगा' को संसार के दुख के इस खारे 'सागर' में मिला दे...यही तेरे भी प्रारब्ध का मोक्ष होगा"

तपस्वी ने अपनी कंठी माला छोड़ दी, अपने आसन से उठकर उसने काली को दण्डवत प्रणाम किया, काली वहाँ से जा चुकी थी वह भी वहाँ से चल दिया।

~तुषारापात®