Tuesday 16 July 2019

गुरुपूर्णिमा-चन्द्रग्रहण


"परंतु गुरुदेव आपने भी देखा कि उस निषादपुत्र ने कैसे श्वान के मुख को अपने बाणों से भर दिया...और उसे मूक कर दिया...यदि स्वयं न देखा होता तो कदाचित विश्वास ही न होता कि कोई धनुर्धर प्रत्यंचा पर इतना अधिक नियंत्रण रखता है..गुरुदेव..पाषाण की आपकी प्रतिमा से उसने प्रतिद्वंदी को निर्जीव किये बिना पंगु करने का वो ज्ञान प्राप्त कर लिया...जो मैं सजीव गुरु के पदचिन्हों पर चलके भी न पा सका..वो मुझसे श्रेष्ठ है.. गुरुदेव..तो भला मुझे आप कैसे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कह सकते हैं" अर्जुन के स्वर में आश्चर्यमिश्रित हताशा थी।

द्रोण गंभीर चिंतन में थे,उन्होंने अर्जुन को ढांढस बंधाया परन्तु ऐसे जैसे कोई कुम्हार अपने कच्चे पात्रों को थपथपाता है "राजपुत्रों को कदाचित हताशा एक बार हो भी सकती है..परन्तु द्रोण के शिष्य को इतनी हताशा शोभा नहीं देती...पाषाण की प्रतिमा कोई वचन नहीं देती..परन्तु सजीव द्रोण की वाणी से निकला वाक्य पाषाण पे खींची रेखा के समान है.. और होने वाले संसार के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर से उसका आचार्य यह आशा रखता कि वह हताशा का प्रदर्शन करने के स्थान पर अपने गुरु से यह कहे कि मुझे इससे भी उत्कृष्ट धनुर्विद्या का अभ्यास कराए..क्षत्रिय को अपने धनुष की प्रत्यंचा की तरह ही अपनी जिह्वा भी कभी ढीली नहीं होने देना चाहिए... अभ्यास हेतु प्रस्थान करो.."

अर्जुन उन्हें प्रणाम कर,कक्ष के बाहर रखा अपना धनुष उठा के अभ्यासशाला की ओर चला जाता है, द्रोण पुनः अपने चिंतन में लौट आए। अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने का उनका वचन हस्तिनापुर संरक्षक भीष्म की चाटुकारिता के कारण नहीं था, उनका यह वचन तो हस्तिनापुर के सिंहासन पर धर्म को संतुलित करने के लिए था, आगामी समय का उन्हें भान था, परशुराम-शिष्य कर्ण की तरह एकलव्य भी इस समीकरण को असन्तुलित करने की सामर्थ्य रखता था। वे अचानक से उठे और स्वकक्ष से वन की ओर चल पड़े।

ताल के समीप उदुम्बर वृक्ष के नीचे एकलव्य,द्रोण की प्रतिमा के समक्ष ध्यानस्थ बैठा था, मुख पर तेज लिए इस ताम्रवर्ण देहधारी को वे देखते ही रह गए, वे निश्चित नहीं कर पा रहे थे कि यह धनुर्विद्या में अधिक श्रेष्ठ है या गुरुभक्ति में, द्रोण एकलव्य के धनुष को उठा के देखने लगे और स्ववृत्तिवश उन्होंने प्रत्यंचा चढ़ा दी, प्रत्यंचा की टंकार से एकलव्य का ध्यान भंग हुआ और अपने समक्ष साक्षात गुरु को देख दण्डवत होते हुए उसने कहा " अवश्य ही इस उदुम्बर (गूलर) वृक्ष पर अब पुष्प आएंगे..गुरु प्रतिमा में अपने प्राण प्रतिष्ठित करने वाले इस शिष्य का प्रणाम स्वीकार हो!"

द्रोण उसे उठा के अपने हृदय लगा के बोले "यशस्वी भव! पुत्र! तुम्हारी धनुर्विद्या ने मेरे सर्वश्रेष्ठ शिष्य को तथा तुम्हारी गुरुभक्ति ने तुम्हारे इस गुरु को अत्यंत लघु कर दिया है..जल अपना मार्ग स्वयं ढूँढता है..परन्तु हिमाच्छादित पर्वत को अपना उद्गम बता के अपनी महत्ता नहीं कहता.. ऐसा ही है तुम्हारा मेरे प्रति समर्पण!"

"ऐसा न कहे गुरुदेव..पर्वत से अनेक धाराएं निकलती हैं..परन्तु वही धारा एक विशाल नदी बनती है जिसे पर्वत स्वयं को पिघलाकर सतत जल प्रदान करता है" एकलव्य ने विनम्र स्वर में कहा

"प्रिय शिष्य मैं तुम्हें नदी नहीं विशाल सागर के रूप में देखता हूँ.. परन्तु जिस तरह सागर के भाग्य में किसी की तृष्णा मिटाने का सुख नहीं है..ऐसे ही मैं तुमसे तुम्हारा एक सुख छीनने आया हूँ" क्षणभर भी असन्तुलित न होने वाले धनुर्धर द्रोण के अधर अंतिम पंक्ति कहते हुए काँप गए

एकलव्य एक क्षण भी विचार किये बिना दृढ़ स्वर में बोला "मेरा सौभाग्य है जो गुरु ने आज दर्शन दिए..यदि आप मेरी धनुर्विद्या से संतुष्ट हैं तो इसका अर्थ है मेरी शिक्षा पूर्ण हुई..और दीक्षांत तभी होगा जब गुरुदेव गुरुदक्षिणा स्वीकार करेंगें.. आदेश करें गुरुदेव"

द्रोण जानते थे कि जाति आधारित लिखे जाने वाले इतिहास में यह निषाद धनुर्धर पक्षपात के चलते अपना स्थान न बना सकेगा और ऐसे वीर धनुर्धर और श्रेष्ठ शिष्य का नाम संसार को सदैव स्मरण रहे ऐसा विचार कर इस गुरु ने स्वयं के नाम वह पाप ओढ़ने का निश्चय किया जिससे एकलव्य अमर होने वाला था, वे दोनों हाथ जोड़ते हुए बोले "पुत्र..गुरुदक्षिणा में मैं तुझसे यह वचन माँगता हूँ कि तुम अबसे कभी भी धनुष बाण चलाते समय अपने दाहिने अंगुष्ठ का प्रयोग नहीं करोगे"

एकलव्य ने तुरंत तूणीर से एक बाण निकाला और अपने दाहिने हाथ के अँगूठे पर बाण का अग्रभाग रखते हुए कहा " वचन है..इस गुरुआज्ञा का जीवनपर्यंत पालन होगा ..गुरुदेव यदि कहते हैं तो अभी इस बाण से अंगुष्ठे को उनके चरणों में अर्पित किए देता हूँ..पूर्णिमा के चंद्र को ही ग्रहण लगता है..एकलव्य की शिक्षा पूरी होने के लिए उसके द्वारा दिए गए वचन को गुरुदक्षिणा में ग्रहण करें गुरुदेव!"

"जो अपने समर्पण और स्वाभ्यास से अर्जित विद्या का सम्पूर्ण श्रेय गुरु की प्रतिमा को देता हो उस गुरुभक्त शिष्य के अंगुष्ठ से अधिक मूल्यवान अंगुष्ठ न प्रयोग करने का वचन है...पुत्र..वर्तमान संसार चाहे जिसे भी सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर माने, परन्तु आने वाले युगों युगों तक द्रोण का सर्वश्रेष्ठ शिष्य एकलव्य ही कहा जायेगा...आओ तुम्हें वह विद्या बताता  हूँ जिसे कलिकाल में आधुनिक धनुर्विद्या कहा जाएगा और वह एकलव्य की धनुर्विद्या कही जाएगी अर्जुन की नहीं " कहकर द्रोणचार्य ने  एकलव्य का धनुष उठाकर अपनी तर्जनी और मध्यमा से एक बाण सरोवर में चलाया एकलव्य ने देखा कि वह बाण एक मछली के मुख में गया है परन्तु मछली मृत्यु को प्राप्त नहीं हुई है,जीवित है।

~तुषार सिंह #तुषारापात®