कभी महसूस किया
रेतघड़ी में बंद रेत का दर्द
न जाने कितनी बार
कभी उलट के कभी पलट के
उसे वक्त के पोस्टमैन सा दौड़ाते हो
मीलों का सफर छोटी सी इक डिबिया मेँ
ज़र्रा ज़र्रा उसका गर्म होकर प्यासा है
अब तो उसे काल के इस चक्र से आज़ाद कर दो
नम होकर बिखर जाने दो
समंदर की रेत बन जाने को
-तुषारापात®™