Monday 21 November 2016

चाँद पर लिखना छोड़ दो

"सुनो...कोई फिर से चाँद खुरच रहा है.." बारह बजे रात मेरे कान में फुसफुसाती है,मैं लिखना छोड़ के ऐसी कोई आवाज सुनने की कोशिश करता हूँ काफी देर चाँद की ओर कान लगाए रहने के बाद भी जब कुछ नहीं सुनाई दिया तो उसको डाँटते हुए कहता हूँ "रात!..तेरे इन सारे हतकंडो से वाकिफ हूँ मैं...देख...काम करने दे मुझे... तंग मत कर"

वो सहम के चुपचाप घड़ी की सुई पे जाकर बैठ गई मैं फिर से लिखने लगा अभी आधी ही लाइन लिखी थी कि वो फिर से बोली
"ये देखो...चाँद चीख रहा है...आह!...कितनी जोर जोर से...सुनो तो...सुनो..जरा" मैं लिखता रहा मेरे लिए ये रोज की बात है रात हमेशा मुझे लिखने से रोकने को कुछ न कुछ करती रहती है

"सच कह रही हूँ...जरा सुन तो...बस एक बार उसकी दर्द में डूबी आवाज सुनने की कोशिश तो कर...उफ़ इसकी ये चीखें मुझे सोने नहीं देती....ओ कलम घिसने वाले...सुन...चाँद की चीखें रात को सोने नहीं देती...नहीं सोने देती..."उसकी आवाज ऐसी थी जैसे किसी अपने के दुःख में डूबा और भीगा कोई कई सदियों से सोया न हो,लिखना छोड़ कर पता नहीं क्यों मैं इस बार बहुत ही धीमी आवाज में उससे बोला "पर ऐसी कोई चीख मुझे क्यों नहीं सुनाई देती..."

मेरे लहजे में आई नरमी से उसकी हिम्मत बढ़ी "तुम चलोगे उसके पास...देखना चाहोगे...चाँद को चीखते हुए"

"ह..हाँ..पर कैसे?" मैंने हड़बड़ाते हुए पूछा

वो बड़ी वाली सुई से उतर के पेंडुलम पे आके बैठ गई और मुझे अपना हाथ देते हुए बोली "बस तुम इस घड़ी के पेंडुलम पर नजर जमाये रखना...मैं इसपर तुम्हें बिठाके चाँद के पास ले चलूँगी"

और अगले ही पल हम चाँद पे थे,मैंने देखा चाँद की पीठ पे बहुत सारे जख्म थे जैसे किसी आदमी की पीठ पे चाकू छुरी तलवार वगैरह से सैकड़ों वार किए गए हों उसके कुछ जख्म पपड़ी बनकर सूख चुके थे कुछ गहरे थे तो कुछ हल्के हल्के से थे एक बिल्कुल ताजा घाव था जिससे चाँदनी रिस रही थी चाँद कराह रहा था

मुझे देखते ही वो रुआँसा हो कहने लगा "तुम्हारी और मेरी एक जैसी है मैं अपनी पीठ पे धूप झेलता हूँ और चाँदनी देता हूँ और तुम अपने सीने में जख्म रखते हो और कहानी कहते हो...दुनिया हमारे मुस्कुराते चेहरे देखती है..पर भीतर के जख्म नहीं...पर मेरे भाई तुमको तो मेरी चीखें सुननी चाहिए थीं..."

अपने हमजख्म से ये बात सुन मैं थोड़ा शर्मिंदा हुआ पर उसके जख्मों का क्या राज है इस जिज्ञासा में ज्यादा था उससे पूछा "पर तुम्हें ये इतने सारे जख्म किसने दिए?आखिर..ये माजरा क्या है?"

"तुम अभी क्या कर रहे थे....?" उसने मेरे सवाल के जवाब में सवाल किया, एक पल को मैं चौंक गया और अगले ही पल राज जान गया बस पक्का करने को उससे एक बात पूछी "ये जो जख्मों के बीच ...थोड़ी थोड़ी...मरहम पट्टी दिख रही है..वो..गुलजार ने की है?"

उसने कोई जवाब नहीं दिया पर उसके लबों पे आई दर्द के साथ हलकी सी मुस्कुराहट ने मुझे गहराई से सब समझा दिया,रात मुझे वापस मेरे कमरे में ले आई,मेज पर रखी अपनी डायरी के जिस पन्ने को लिखते लिखते अधूरा छोड़ गया था डायरी से उसे नोचा और उसके टुकड़े टुकड़े करके डस्टबिन में फेंक दिए...चाँद की चीखें बंद हो चुकी थीं...रात अब चैन से सो रही है।

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