Monday 31 December 2018

बालिग सदी

आई है शगुन लेकर दिसम्बर के घर जनवरी
रचाओ स्वयंवर बालिग हुई है इक्कीसवीं सदी

#तुषारापात®

Wednesday 19 December 2018

माथे की दरारों में मिट्टी है

मैं किस्मत,सोने सी करने को,सजदा करता हूँ
मेरे माथे की दरारों में,अब हर दर की,मिट्टी है

~तुषारापात®

Friday 14 December 2018

त्रिवेणी

छोड़ जाने वालों के नाम बुदबुदाने से
जान बच गई मगर होठ नीले पड़ गए

सांप काटे का अब वो जानता है मंतर

(पहली पंक्ति के साथ तीसरी पंक्ति पढ़िए और दूसरी पंक्ति के साथ तीसरी पंक्ति पढ़िए दो शे'र मिलेंगें बाकी त्रिवेणी तो है ही)
~तुषारापात®

Wednesday 12 December 2018

आँखों की दावातें

आँखों की दावातें जो न छलकीं थीं तो
क्यूँ गालों से गीली इबारतें मिटा रहा था

#तुषारापात®

मोल

वो चाँदी को ताँबा बना रहा था
सफेद बालों में मेहंदी लगा रहा था

~तुषारापात®

Monday 10 December 2018

भगवान के कान

नहीं जानते कि क्या है भगवान कहीं
मगर ये तय है कि हमारी ओर उसके कान नहीं

~तुषारापात®

Thursday 6 December 2018

टर्म्स एंड कंडीशन

ज़िन्दगी कुछ टर्म्स एंड कंडीशंस पे मिली है हमें
आसमाँ पे ये इतने स्टार यूँ ही नहीं लगाए उसने

*कंडीशन अप्लाई
~तुषारापात®

Tuesday 20 November 2018

ईश्वर तुझे क्षमा,मैं अपना यह जनम करता हूँ

चक्षु कमंडल से मेरे
छलकते,ये
श्राप के छींटे
तुझ पर पड़ जाएं

सात तहों के
अम्बर के
परिधान तेरे जल जाएं

जनम मरण
काल अकाल से परे
ओ भाग्यविधाता

जा इस क्षण ही
करतल रेखाओं में तेरी
समय चक्र पड़ जाएं

नहीं स्वीकार,तेरी
निरंकुश सत्ता,मैं
विद्रोह करता हूँ

भंग में लीन भगवान
निर्दयी,तुझसे,भंग
अपना मोह करता हूँ

मोक्ष का मेरा भाग
संसार से गुणन करता हूँ
तेरा सब ऋण,धन करता हूँ
ईश्वर तुझे क्षमा,मैं
अपना यह जनम करता हूँ।

~तुषारापात®

Wednesday 14 November 2018

हुनर

बड़ी मुश्किल से आता है
दो सीधी लाइनों के बीच लिखने का
हुनर आदमी को
हथेली की
आड़ी तिरछी लकीरों पे
लिखने वाले को ख़ुदा होना ही था

~तुषारापात®

Sunday 4 November 2018

प्रतिच्छेदन

नदी के व्यास पे
नाव के अर्धवृत्त पर तैरता
एक बिंदु
पतवारों की चाप से
क्षितिज का प्रतिच्छेदन कर
केंद्र होने चला है।

~तुषारापात®

Tuesday 30 October 2018

कुँआ

कुँए के साथ
यही होता है
प्यासा आता है
प्यास बुझाता है
चला जाता है
कुँआ
बाल्टी की चोट से उठी
उथल पुथल संभालता
कराहता ये सुनता रह जाता है
घमंडी कुँए तू
प्यासे के पास नहीं जाता है।

~तुषारापात®

Monday 8 October 2018

नोंकझोंक

"आपके यहाँ तो समोसा भी साहित्यिक बनता होगा..मतलब जब पति-पत्नी दोनो ही इतना अच्छा लिखने वाले हों तो..हर बात साहित्यिक रूप में ही होती होगी"

"मेरे एक जानने वाले दंपति हैं..पति पत्नी दोनो स्थापित गायक हैं..एक बार जब मैं उनसे मिलने..उनके घर गया तो दरवाज़े से ही उन लोगों के झगड़े की बहुत तेज आवाज़ें आ रहीं थीं...आपकी इस बात से आज मुझे ज्ञात हुआ कि शायद उस दिन वो लोग सुर में झगड़ रहे थे"

"हाहाहा...इंटरव्यू मैं ले रहा हूँ..और खिंचाई आप कर रहे हैं..वैसे ये कहा जाता है कि चोटी पर एक ही जगह होती है..क्या कभी अभिमान फिल्म के जैसा कुछ..."

"हम्म एक ताजी घटना सुनिए..अभी कुछ दिनों पहले मेरी पत्नी ने अंग्रेजी में लिखा-
You fall in love
with a person's unique edition
at a unique moment
Edition is revised every year
but you expect the same version still...
Your fault.
मैंने उनकी इन पंक्तियों की तारीफ की और कहा कि इसका तो हिंदी अनुवाद होना चाहिए..तो उन्होंने कहा कि इसका हिंदी अनुवाद संभव ही नहीं"

"लीजिये वही बात आ गई यही तो मैं भी कह रहा था..ये अभिमान की बात हुई न..अपने लेखन की श्रेष्ठता और ईर्ष्या दोनो दिखीं"

"श्रेष्ठता और ईर्ष्या नहीं..बात प्रतिस्पर्धा की है..और प्रतिस्पर्धा कलात्मकता को निखारती है जिससे पाठक की जिज्ञासा बढ़ती है और साहित्य का उत्कर्ष होता है...मेरा मानना है कि अभिमान के पहाड़ होते हैं जिनकी चोटियाँ नुकीली होतीं हैं..सफलता का मैदान होता है...विशाल मैदान...आप इस मैदान पे जितना भी चलो..प्यास बुझाने को एक नदी का होना आवश्यक है..समय समय पर हम एक दूसरे को उकसा के अभिमान के पहाड़ पिघलाते रहते हैं..जिससे ये नदी बनी रहे..जिससे हम दोनों तृप्त होते रहें..और पाठकों को तृप्त करते रहें"

"मतलब आप दोनों एक दूसरे के वैद्य हैं...नुस्खों को खुद पे आजमाते हैं फिर पढ़ने वालों का साहित्यिक इलाज करते हैं..अब तो जिज्ञासा बहुत बढ़ गई..उनकी पंक्तियों का आपके द्वारा किया गया अनुवाद जानने की..चलते चलते सुना दीजिये..हम भी तो जानें कि आपका अनुवाद श्रेष्ठ था या उनकी पंक्तियाँ"

"श्रेष्ठ तो भाव ही होता है और सदैव रहेगा..अनुवादक उस भाव को अपने पाठकों की भाषा के परिधान में प्रस्तुत करने वाला माध्यम मात्र है..आपकी रिपोर्टरी फितरत की शांति के लिए..अनुवाद ये रहा-

वय का विशिष्ट क्षण
प्रियतम का अद्वितीय संस्करण
बढ़ा हृदय त्वरण,प्रेम में
कराता,हृदय का अवरोहण

हो जाता वह विशिष्ट संस्करण
ओढ़कर प्रतिवर्ष नव-आवरण
ढूँढते,हम वही प्रथम संस्करण
भूलकर क्यों,काल का आरोहण।"

~तुषारापात®

Thursday 4 October 2018

अँगूठा वापसी

अनलाइक करके अपना अँगूठा वापस ले जाने वाले एकलव्य,ड्रोन बनकर पेज पर भ्रमण करते हैं।

#तुषारापात®

Tuesday 2 October 2018

रहिमन

रहिमन वे नर तर गए जो 'सुंदरअभिव्यक्ति' कह जाईं
उनसे पहले वे तरे जिनके मुखसे कछु निकसत नाहीं

#तुषारापात®

Sunday 30 September 2018

बात

बात लंबी होने लगे गर
बात को घुमा दिया करो

बात जब तू तू मैं मैं पे पहुँचे
बात में 'हम' लगा दिया करो

-तुषारापात®

Sunday 23 September 2018

ड्रैगन

विवाह आग उगलने वाला वो ड्रैगन जिसकी लपटों में समझदार ही रोटी सेंक पाते हैं।

Saturday 22 September 2018

मोल

तुझे पहनने के बाद,लोग ढूँढते हैं मुझे
शीशे ने,धीरे से,हीरे से,कहा इतना ही

#तुषारापात®

Wednesday 19 September 2018

उदासी के फूल

आबे चश्म काफी था अब्रे बहार फ़जूल आए हैं
इंतज़ार की लंबी बेलों पर उदासी के फूल आए हैं

~तुषारापात®

Monday 17 September 2018

लज़्ज़त

उनकी तस्वीर की सारी लज़्ज़त हमारी आँखों के गुनाह से है।

~तुषारापात®

भगवा हरा

रात के हरे ज़ख्मों पे
भगवा सूरज मरहम लगाता है
दिन सेकुलर हो जाता है

शाम को
तेरी यादों का नमक लेकर
चाँद दंगा कराता है।

~तुषारापात®

हरा भगवा

भगवा सूरज
हरी हरी फसलें उगाके
सेकुलर हो जाता है

आदमी
सूर्य-नमस्कार करके
कम्युनल हो जाता है।

~तुषारापात®

Saturday 15 September 2018

प्रार्थना

कान पे
भिनभिनाता
मच्छर मारा गया

प्रार्थना करती
भीड़ पे
मंदिर गिरा

~तुषारापात®

Wednesday 12 September 2018

फ़ना

फ़ना हो जाएंगे 'तुषार' तो ख़ुदा हो जाएंगे
अभी इस बुत की खोज में बस काफ़िर ही आएंगे

#तुषारापात®

Monday 10 September 2018

90's का ज़माना

तुम
गले लग के
मुझमें ही
फुसफुसाया करतीं थीं

रिसीवर
कानों से
लगते ही ऐसा लगता था

और
उँगलियाँ
तार के छल्लों में फँसा के

ज़ुल्फों को
तेरी मैं खूब
सुलझाया करता था

उन दिनों
बात करना ही
तुझसे लिपट जाना होता था

लैंडलाइन का
वो ज़माना भी
क्या ज़माना होता था।

~तुषारापात®

Friday 7 September 2018

ओ लड़के सिगरेट न सुलगाना

"हैं..क्या..स्त्री फिलम की कहानी जैसा..आपके साथ हो रहा है .. अमां.. मतलब..कुछ भी सत गुरुदत्त उड़ा रहे हैं..गररर..गरर..थू..कमाल है फिलमों का..पहले आदमी ख़ुद को शैहरुख ख़ाँ समझता था.. अब.. गलीं के लौंडे..राजकुमार राव बन रहें हैं.." केसर भाई ने कुल्ला करके लोटा एक और रखा और पानदान से  एक गिलौरी उठा के उसकी गिरह खोलते हुए बोले

वैधानिक तिवारी बेचैनी से इधर उधर चहलकदमी कर रहा था, अपने गले पे चुटकी काटते हुए वह उनसे कहता है  "अम्मा कसम ..केसर भइया.. अम्मा कसम.. सच कह रहें हैं...स्त्री पिक्चर की बात नहीं..कैसे समझाएं.. यार..सच में वो हमें नजर आती है..डराती है..हालत ये है कि ..डर के मारे चालीसा तक नहीं पढ़ी जाती उसके सामने"

"अमां..वैदानिक..सुबह ही सुबह ही क्या राजा ठंडाई चले गए थे..नज़र आती है..नज़र आती है..तो..ज़रा बुलाइये यहाँ.. हम भी तो देखें ये चुड़ैलें आखिर दिखतीं कैसीं हैं...वैसे..जनाब से आकर क्या गुफ़्तगू फरमाती हैं मोहतरमा..वाह..ये है बेहतरीन कनकौआ" केसर भाई इतनी देर में एक पतंग के कन्ने बांध चुके थे,पतंग की धनुषाकार तीली के दोनों सिरों को अपनी ओर मोड़ के उसका मिज़ाज चेक कर उससे ये कहते हैं और उसे छुड़ईया देने का इशारा करते हैं

"अमां भइया.. यहाँ हमारी नींद उड़ी पड़ी है...और आपको कनकउए उड़ाने की पड़ी है" वैधानिक पक्के पुल की तरह लाल होते हुए बोला " ऐसे नहीं आती..आती तब है जब हम अकेले में सिगरेट पी रहे होते हैं.."

ये लीजिये..तौबा..अब चुड़ैलें भी हुक्का पानी करने आने लगीं..एक दो सुट्टा लगवा देते उसे भी..पक्का फ्रेंदशिप..हो जाती..मियां" केसर भाई ने आँख मारते हुए कहा

"अमां..केसर भइया.. हँसिये मत..हुक्का आप भी पीतें हैं..जिस दिन आ गई न पायजामें में पानी आ जाएगा.. मजाक छोड़िए..कोई तरीका बताइए.. कैसे पीछा छुड़ाएं उससे..पिछले हफ्ते से पीछे पड़ गई है..सिगरेट की तलब भी अब बक्शी के तालाब में चली गई है हमारी..जब बर्दाश्त नहीं होता तो सुलगा लेते हैं...तो वो आ जाती है हमारी सुलगाने...कोई रास्ता बताओ..झाड़फूंक वाला है क्या कोई ..आपके जानने में.." वैधानिक छत पे उकड़ूं बैठते हुए पूछता है

"ये लो..अमां हमसे बेहतर कौन है जो..मनतर जनतर..जानता है..हमने तो बड़े बड़े जिन्नात काबू कर दिए..तो ये चुड़ैल की क्या औकात हमारे जलाल के सामने.." केसर भाई इमामबाड़े की तरह चौड़े होते हुए आगे बोले " देखिए वैदानिक मियां..अंदर की बात है..किसी से कहिएगा नहीं.. तुम्हारी भाभीजान पे भी पहले बहुत चुड़ैल आती थी..एक दिन बहुत आएं बाएं साएं बक रहीं थीं..उठा के छुरी..उस दिन जो हमने उनकी चोटी काटी..तब का दिन है और आजका.. चुड़ैल आना तो क्या..ख़ुद भी चियां के रहतीं हैं..पट्टे कट करवा दिया...अब तोते की तरह जो हम बोलें बस वो ही दोहराती हैं..तो मियां अबकी जब वो चुड़ैल तुम्हारे नज़दीक आए तो उड़ा दो कमज़र्फ की चोटी...दादी अम्मा कहतीं आईं हैं कि चुड़ैल की चोटी में उसकी जान होती है" केसर भाई ने बात खत्म की और अपने कमरे की ओर देखके तसल्ली करने लगे कि उनकी शरीके हयात ने कुछ सुना तो नहीं

वैधानिक उनकी सलाह मान वहाँ से रुखसत हुआ और कुड़िया घाट के एक सन्नाटे कोने में आकर सिगरेट सुलगाने लगा सिगरेट सुलगते ही लाल साड़ी में उल्टे पैर वाली चुड़ैल घूँघट से आधा मुँह ढके वहाँ प्रकट हुई और उसे डराके भयानक अट्टहास करने लगी "मारे जाओगे..सब मारे जाओगे..मरेगा तू जल्दी ही..मौत मौत..हाहाहा हाहाहा.."

वैधानिक को इतने दिनों में उसकी आदत हो गई थी तो वो इस बार कम डरता है "ठीक है ठीक है..मारे जाएंगे हम..पर तुम क्यों मारना चाहती हो हमें..और तुम्हारा नाम क्या है...चुड़ैल हो..पर उतनी डरावनी नहीं लगतीं..हो कौन तुम..

"डरावनी..डरावनी क्यों लगूँगी मैं..लखनऊ की चुड़ैल हूँ..यहाँ तो लोग गाली भी तमीज़ से देते हैं..तो चुड़ैल में थोड़ी नफ़ासत तो बनती है..मारे जाओगे आप..जल्दी मारे जाओगे आप.." चुड़ैल ने इस बार अट्टहास नहीं किया

वैधानिक कमर पे छुरी टटोलते हुए उसे बहलाने की कोशिश करते हुए कहता है "अच्छा तुमने अपना नाम तो बताया नहीं..क्या नाम है.तुम्हारा.. मरने से पहले मौत का नाम जानने का हक तो बनता है.."

चुड़ैल ने मरने वाले की आखिरी तमन्ना पूरी करते हुए नाम बता दिया "चेतावनी"

वैधानिक उसका नाम सुनकर एक पल को चौंका और अचानक से सबकुछ उसे समझ आ गया उसने उँगली में पकड़ी सिगरेट को होठों से लगाया और गोल्डन कश लेकर बोला "अलविदा"  और सिगरेट के सिर यानी फिल्टर को एक झटके से तोड़ते हुए दोनों हिस्सों को को ज़मीन पर फेंक दिया.. चुड़ैल सेकंड के सौवें हिस्से से भी कम समय में हवा में उड़ती राख की तरह छू हो गई।

वैधानिक चेतावनी: सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

~तुषारापात®

Monday 3 September 2018

श्री 16108

भाभियों की पोस्ट पर 16108 कमेंट पूरे करने वाले सभी देवरों को जन्माष्टमी की शुभकामनाएं।

~तुषारापात®

Sunday 2 September 2018

संहार के बाद उपसंहार

"केशव! यमलोक की जनसंख्या में अनंत वृद्धि करने वाले..इस महायुद्ध के पश्चात भी क्या..तुम्हारा उद्देश्य पूर्ण न हुआ..धर्म स्थापित हो चुका.. अब शेष क्या.. क्यों मैं और तुम अभी भी संवाद कर रहे हैं..क्यों न अब मुक्ति लें?" शरशैया पे लेटे भीष्म ने कृष्ण से सविनय प्रश्न किया

जगत के स्वामी कृष्ण ने अपनी चिर परिचित मुस्कान के साथ उत्तर दिया "पितामह..इस युद्ध की प्रस्तावना भी आप हैं और उपसंहार भी आप.. पांडव कौरव व अन्य समस्त जन आप ही के मध्य हैं..और..मैं मात्र एक सूत्रधार.. नाटक के अंत में उपसंहार और सूत्रधार ही संवाद करते हैं"

सहस्त्रों बाणों पे लेटे भीष्म भी मुस्कुरा उठे "जगतपिता के मुख से पितामह का सम्बोधन कोई व्यंग्य तो नहीं..जो विजयी हुए हैं वो भी मेरे हैं और जो मृत्यु को प्राप्त हुए वो भी मेरे थे..परंतु अब मन में दोनों के प्रति कोई मोह शेष नहीं ...इस शरशैया पे स्थित होते ही मुझे मेरे समस्त जन्मों का स्मरण हो गया केशव..परन्तु तुम्हें अपने और समस्त जीवों के साथ मेरे भी समस्त जन्मों का ज्ञान है..मुझे मेरे नाम से पुकारो देवकीनंदन.. देवव्रत को पुकारो"

"पितामह...इस जन्म में जिन नातों से बँधा हूँ.. उन्हें तोड़ना सम्भव नहीं... कथा के उद्घाटन और समापन के अनन्त चक्र होते हैं परन्तु कथा को  कथा रखने के लिए..चरित्र कभी भी अपनी मर्यादा नहीं लाँघते.." कृष्ण का स्वर रहस्मयी हो चला

भीष्म ने मानो आश्चर्य सा व्यक्त किया और कृष्ण को किंचित उत्साहित करने के उद्देश्य से कहा "वासुदेव.. हाथी को एक तिनके ने बाँध लिया.. सम्पूर्ण ब्रह्मांड में किसी भी चर अचर के लिए जिसे बाँधने की कल्पना स्वप्न में भी असम्भव है वो आज यहाँ बंधन की बात कर रहा है...मेरे ज्ञान के अनुसार तो कदाचित अवतार व्यक्तियों के बंधन काटने के लिए होते हैं.." 

कृष्ण के सुदर्शन चक्र ने बाँसुरी का रूप ले लिया "जिस प्रकार युद्ध में मारे गए सारे कौरव और कुछ पांडव आपके थे उसी प्रकार आप सहित अब तक बार बार जीवित और मृत हुए सभी जीव मेरे हैं..मात्र मेरे..मैं अवतार लेता हूँ जब मुझे पुष्ट होना होता है...सृष्टि में जीवन जब अधर्मी हो जाता है..तो मैं उन्हें ग्रहण करने की लीला करता हूँ..मैं स्वयं के बंधन काटता हूँ.. शुद्ध होते हुए भी स्वयं को स्वयं के द्वारा शुद्ध करने आता हूँ..मैं अव्यक्त से कुछ व्यक्त होने आता हूँ..अपनी ही माया में रमने आता हूँ...और माया को रचके भी जाता हूँ..मैं अपने द्वारा निर्मित जल को पीने आता हूँ..मैं धर्म अधर्म का संतुलन करने आता हूँ..अधर्म के कुछ मात्रक उठा के धर्म के कुछ नए मानक तय कर जाता हूँ..मैं निष्कामी..अकर्मी..इस जैसी असंख्य सृष्टियों में कर्म करने आता हूँ..मैं ही कर्म हूँ और मैं ही उसका फल हूँ इसलिए मैं निष्काम कर्म का सार्वत्रिक मानक हूँ.. इसी के सापेक्ष मैं सबसे कर्म करवाता हूँ"

बाँसुरी के स्वरों की द्रुत गति के समान कृष्ण की वाणी महाकृष्ण भगवान नारायण के स्वरों में परिवर्तित होती जा रही थी "और इसी कर्म चक्र को बाधित करने वाली प्रतिज्ञाओं को तोड़ने आता हूँ..मेरा ये अवतार कौरवों के विनाश और पांडवों के उत्थान हेतु न होकर..तेरी प्रतिज्ञा के समापन हेतु है..इस प्रतिज्ञा ने मेरे कर्म सिद्धांत को बाधित किया है.. धृतराष्ट्र की राज्य हेतु की गई समस्त अन्धकामनाएं...दुर्योधन का सुई की नोक तुल्य भूमि न देना...दु:शासन का द्रौपदी का चीरहरण करना...अभिमन्यु की नृशंस हत्या होना..आदि सब तुम्हारे सक्षम होते हुए भी तुम्हारा अपने पिता के स्त्री मोह के फलस्वरूप अपने कर्तव्य से विमुख होकर ऐसी प्रतिज्ञा करने के ही रूप हैं...अपनी शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा तुम्हारे समक्ष तोड़ के तुम्हें तुम्हारी प्रतिज्ञा का मूल्यांकन कराता हूँ..स्वयं को जगत के समक्ष लघु कर तुम्हें तुम्हें तुम्हारी लघुता का भान कराके वास्तव में मैं जगत रूपी स्वयं को ही वृहद करता हूँ...मैं देवव्रत के काँधे से भीष्म का भार हटाने आया हूँ... मैंने पहले तुम्हें इच्छामृत्यु का वरदान दिया था और अब तुम्हारे जीने की इच्छा ही मिटाने आया हूँ..इस कथा के दोनों चरित्रों की मर्यादा की सीमा बढ़ा के मैं इसे महागाथा बना रहा हूँ..हे भीष्म...देख मुझे उत्साहित करने के तेरे प्रयास से पूर्णतया परिचित होते हुए भी एक बार पुनः  अपने ही कहे वचनों को खंडित कर रहा हूँ...परन्तु साथ ही कुछ वचन संगठित कर रहा हूँ "

कृष्ण धारा प्रवाह वाचन कर रहे हैं और भीष्म चक्षुओं की कठौतियों में गंगा की धाराएं लिए उनके एक एक शब्द को आत्मसात करते जा रहे हैं ,भीष्म असीम आनंद में हैं उनके शरीर में बाणों से जो असंख्य छिद्र बने हुए हैं उनसे वो भगवान को अधिक से अधिक सोखते जा रहे हैं और कृष्ण हुए जा रहे हैं।

~तुषारापात®

Friday 31 August 2018

उनचास लफ्ज़ उनवाने इश्क

कमरे के दरवाज़े बंद थे,खटखटा के अमृता ने कहा "क्या तेरे दरवाज़े पे हमें भी दस्तक देकर आना होगा"

उन्होंने मुस्कुराते हुए दरवाज़ा खोला "आम सी लकड़ी है मगर तुम आते जाते यूँ ही छू दिया करो..साहिर..इसी के संदूक में एक रोज दुनिया से रवाना होगा।"

~तुषारापात®

Thursday 30 August 2018

प्रार्थना: ईश्वर के प्रति विद्रोह

अनंत
महासागर किनारे बैठना
और माँगना
अपनी तृप्ति का वरदान

मीठी
नदियां मिलीं हैं आकर
सोचना
शर्करा का होगा निर्माण

उठ
सागर से नमक बना
नदियाँ बाँध प्यास बुझा
अकर्मी का उससे विछोह है

प्रार्थना
सृष्टि की अपूर्णता
के लिए
ईश्वर के प्रति विद्रोह है।

~तुषारापात®

सामने से पीठ में खंजर?

सामने से?
पीठ में ख़ंजर खाया था?
हाँ!
एक बार उसे
गले लगाया था।

~तुषारापात®

Sunday 26 August 2018

लता की कलमें

"बेटा..तुम्हारी छोटी बहन है लता..कोई पराई नहीं...लोग तो परेशानी में पड़े किसी गैर की भी मदद कर देते हैं और तुम दोनों भाई...हूँ..अच्छा है..जो तुम्हारे पिताजी नहीं रहे..रामजी मुझे भी उनके साथ उठा लेते तो अच्छा होता" कुसुम आँचल से आँसू पोछते हुए अपने बड़े बेटे विशाख से बोली।

विशाख ने तमतमाते हुए कहा "अम्मा..ये क्या बात हुई..जब पिताजी ट्रक भर भर के लता के दहेज का सामान भेज रहे थे..तब तो तुमने..कुछ न कहा था..कहतीं उनसे कि जरा अपने दोनों बेटों का भी ख्याल करो..सब कुछ बेटी दामाद को ही दे दोगे तो इनका क्या होगा..और कौन सा हम उसके यहाँ रहने पे कोई आपत्ति कर रहे हैं..पर अब तुम ये कहो कि इस मकान में भी उसका हिस्सा होगा तो अम्मा..कहे देता हूँ ये न होगा।"

"और क्या..पिताजी तो खण्डहर छोड़ के गए थे..ये तो भैया और मैंने अपना पेट काट काट के ये मकान रहने लायक बनवाया है...और वैसे भी ब्याह के बाद लता की जिम्मेदारी उसके ससुराल वालों की है हमारी नहीं.. कमबख्तों ने उसे तो अभागिन कह के घर से निकाल दिया..पर दहेज  पूरा डकार गए.." छोटे बेटे प्रसून ने भी अपने बड़े भाई के सुर में सुर मिला दिया।

"ससुराल की क्या बात कहूँ..जिसके दो बड़े भाई..सबकुछ होते हुए भी दो रोटी न खिला पाएं..वो अभागन नहीं तो क्या है..और सुन रे प्रसून.. मेरा मुँह न खुलवा कि तेरे पिताजी क्या क्या तुम दोनों के लिए छोड़ गए हैं.. वसीयत किसने जलाई...लता के ब्याह के गहने के पाँच लाख रुपये कहाँ गायब हुए..सब बताऊँ क्या.. अभागिन न होती तो क्यों मेरी कोख से जन्मती... अभागन न होती तो क्यों उसका पति न रहता...राम जी की लाठी भी अभागिनों पे पड़ती है...चोरों को उनका बाण भी नहीं छूता " प्रसून को आईना दिखा कुसुम आँगन से उठकर  अपने कमरे में चली गई।

उधर लता आँगन के दूसरी ओर बने कोठे में बैठी ये सारी बातें सुन रही थी, उसकी आँखों में उतना अंधेरा और पानी था जितना सावन की किसी बदली में होता है। वो अंदर ही अंदर तो ये समझती ही थी कि असल समस्या क्या है पर उसने ये कभी नहीं सोचा था कि उसके दोनों भाई इस तरह खुले रूप में ऐसा व्यवहार करेंगे।

करीब आधे घण्टे वो मंदिर के बाहर बैठी हुई भिक्षुणी सी बनी सोचती रही पर कुछ समय बाद देवालय की घंटियों सी उसके दृढ़ पगों की ताल उसकी माँ के कक्ष की ओर जाती सुनाई देती है।

"भाभियों की लाल हरी साड़ियों के बीच पैबंद लगी दो सफेद साड़ियाँ अच्छी नहीं लगती माँ.. तुम अपना जी क्यों दुखाती हो...आज्ञा दो माँ...कलकत्ता जाकर मौसी के यहाँ कुछ न कुछ कर लूँगी... नहीं चाहती कि यहाँ मेरी वजह से.... आँगन वही है माँ पर अब यहाँ तुम्हारी लगाई तुलसी नहीं भाभियों की मेंहदी महकती है...और आँगन में यहाँ वहाँ उग आए सफेद कुकरमुत्ते किसे अच्छे लगते हैं..सावन में बेटियां मायके आतीं हैं पर माँ ये बेटी तुमसे इस सावन..विदा माँग रही है" लता के ये कहते ही कुसुम की पलकें शिव की जटा की तरह हो गईं और उनसे गंगा प्रवाहित होने लगी। दोनों माँ बेटी एक दूसरे से चिपट के खूब रोईं और यदि कोई ऊपर आकाश से उन्हें देखता तो ऐसा लगता मानों गंगा-जमुना,सरस्वती के वियोग में एक दूसरे के गले लगीं दुख मना रहीं हैं।

सेकेंड की सुई किसी चुहिया की तरह धीरे धीरे ही सही,कई सदियों के पहाड़ कुतर देती है तो सात वर्ष का समय काटना कौन सा कठिन कार्य था। पिछले सात सालों में लता ने अपने जीवन यापन के लिए क्या क्या कार्य किए ये बस वो ही जानती है लेकिन उसने अपने ज्ञान को विकसित करने का कोई मौका नहीं छोड़ा। उसने अपनी पढ़ाई पूरी की और दो वर्ष पूर्व कलकत्ता के एक प्राइवेट स्कूल में उसे उसके मौसा के कारण अंग्रेजी पढ़ाने की नौकरी भी प्राप्त हो गई थी। कलकत्ते में उसे अपार साहित्य पढ़ने का मौका भी खूब मिला और एक दिन उसके साथ पढ़ाने वाली उसकी सह शिक्षिकाओं ने उसके लेखन को देखते हुए उसे एक उपन्यास लिखने की सलाह दी और लता ने अपने जीवन के समस्त दुखों और संघर्षों को एक उपन्यास 'लता में कलम लगी-ऊपर चढ़ी' में ढाल दिया उसका वो उपन्यास बहुत ही लोकप्रिय हुआ और उसे उस वर्ष का नवोदित साहित्य पुरस्कार भी मिला।

"बेटी..रामजी का बाण, कृष्ण का मोर पंख बन, तेरे जीवन की सारी स्याही को सुनहरे अक्षरों में बदल गया..जुग जुग जिये तू..ऐसी ही खूब तरक्की करो...तुझे पता है कि आज सावन की पूरनमासी पर मुझे तेरे पास आए पूरे दो साल हो गए हैं...तूने कितने दुख झेले जानती हूँ.." कुसुम उसकी बलाइयाँ लेते हुए बोली

लता उसके गले लगते हुए बोली "माँ शायद भगवान जिसे लेखक या लेखिका बनाना चाहते हैं उसे जानबूझकर खूब असफलता और कष्ट देते हैं.. जिससे कि उसमें वो मानवीय संवेदनायें जागृत हो जाएं जो आम व्यक्ति में सुप्त होतीं हैं"

"बस मन करता है कि तेरे दोनों भाइयों को सद्बुद्धि आ जाती.. काश.. याद है तेरे ब्याह से पहले आज के दिन तू कितने चाव से सिवइयां बनाया करती थी और अपने हाथ से राखी बना के विशाख और प्रसून की कलाइयों पे बाँधा करती थी...तेरे पिताजी तो....." कुसुम पुरानी यादों में खो गई

लता वर्तमान में ही रहना चाहती है " राखी तो आज भी बनाई है माँ और बाँधूँगी भी पर उसे जिसने मेरी वास्तव में रक्षा की है...मेरे ससुराल में तो ये अपना काम कर आया है..पर..आज अगर मैं चाहूँ तो बस इससे कह भर दूँ कि जा पिताजी की वसीयत में मेरा हिस्सा जलाने वालों से मेरा हक ले आ तो ये तुरंत ले आएगा..पर मेरा वो हिस्सा मैं अपने दोनों भाइयों को दान करतीं हूँ..और यही मेरी ओर से दोनों भाइयों को रक्षाबंधन की मिठाई है" कहकर लता ने अपने पर्स से निकाले अपने कलम को राखी बाँध दी।

~तुषारापात®