Tuesday 31 October 2017

ग्रीन टी विद हस्बैंड

चाय के दो कप
और एक कोस्टर तुम्हारी टेबल पे
सोच रही हूँ
कोस्टर पे किसका कप रखूँ
तुम्हारी चाय झुंझलाती
बात बात पे झूठे गुस्से
की गर्मी से
कप के आपे से बाहर हो जाती है
मेरी चाय चुपचाप सी
ठंडी तासीर लिए
गर्म कप की गहराइयों में छुपके बैठी
बीच बीच में कप की मुंडेर से
चोरी चोरी झाँक लेती है
पर तुम्हारी नजर के
एक शक्करी दाने के पड़ते ही
बेताब हो छलक जाती है
चाय के दो कप
और एक कोस्टर तुम्हारी टेबल पे
सोच रही हूँ इस टेबल को
तुम्हारे कप को न चूमने दूँ
और अपने से
इस निगोड़न का मूँह जला दूँ
दाग लगे इसपे तो
शायद तुम्हारी नजर हटे
आँख जमाये
कागज के परदे के पीछे
इस सौतन टेबल को
कलम से यहाँ वहाँ टटोलते हो
आज बताऊँगी
अंग अंग इसका जलाऊँगी
तुम एक हाथ से कागज की कसौटी पे
अपनी सोने की कलम घिसते हो
और दूजे से चाय की चुस्कियाँ ले
कोस्टर पे कप रखते समय
अपनी नजर की चिड़िया को
पल भर के लिए
मेरी पलकों पे ठहरा फुर्र कर देते हो
मैं यहाँ वहाँ कप के निशान बना
टेबल पे बिखरे कागजों से
उन्हें ढक के चल देती हूँ
तुम तो करते रहोगे रचनाएं महान
पर मेरी ईर्ष्या से रहोगे पूरे अनजान
लेकिन मेरे जाने के कुछ ही देर बाद
तुम एक कविता पोस्ट करते हो
"सौतन ने सौतन को दिया मुँह तोड़ परिचय
दायरे कटे और मैं बना सर्वनिष्ठ समुच्चय*

-तुषार सिंह 'तुषारापात'®