ताबिश,अब्बास,मोईन,बिलाल,शहजाद,अकरम,फैजल,इत्यादि से क्या पता चलता है? अच्छा असित,अमित,अव्यक्त,विजय,तुषार,वरुणेन्द्र, सिद्धार्थ,प्रदीप इन नामों से क्या पता चलता है? पहली नजर में आप सब एक साथ कहेंगें कि पहली पंक्ति के नाम मुस्लिम मजहब के लोगों के हैं और दूसरी पंक्ति के सभी नाम हिन्दू धर्म का पता देते हैं
तो मोटे तौर पे हम ये कह सकते हैं कि नाम का पहला शब्द धर्म का स्पष्ट/अस्पष्ट पता देता है अच्छा अब आते हैं नाम के दूसरे शब्द पे जो कि सरनेम होता है जैसे अहमद,जाफरी,शेख या चतुर्वेदी,मिश्र, सिंह आदि आदि इनसे क्या पता चलता है मोटे तौर पे ये जातिसूचक शब्द होते हैं जो दादा से पिता को और पिता से पुत्र को प्राप्त होता है
पहले नक्षत्र आधारित नाम की व्यवस्था हुआ करती थी प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं जिसका एक अलग अलग अक्षर होता है (मात्रा सहित) बालक नक्षत्र के जिस चरण में जन्म लेता था उसी चरण वाले अक्षर से आरम्भ होने वाले नाम दैवज्ञ (ज्योतिषी,पंडित) सुझा देते थे जिससे उस व्यक्ति के जन्म के समय का भी मोटा मोटा पता चलता था,इतनी लंबी भूमिका से तात्पर्य ये है कि जाति, नाम आदि समाज के वर्गीकरण की प्रक्रिया थी लेकिन दुर्भाग्य से उसे हमने विभाजन मान लिया तब सामाजिक सरंचना उतनी जटिल नहीं थी और जनसंख्या विरल थी अतः यह प्रक्रिया चलती थी पर आज समाज अत्यंत जटिल स्वरूप में है बाकी सब छोड़ भी दिया जाए तो भी नाम अभी भी अपना एक अलग महत्व रखता है लेकिन ये सब कुछ नहीं है।
अपने जिगर के टुकड़े को आप घर में कुछ भी प्यार से अजीब अजीब संबोधन से बुलाते हैं कुछ घरों में अभी भी पिता अपने सबसे बड़े पुत्र को भइया कहके बुलाते हैं उसका नाम नहीं लेते पर नाम बाहर वालों के लिए रखा जाता है नाम व्यक्तिगत नहीं सार्वजनिक संबोधन है इसलिए नामकरण अत्यधिक सतर्कता से करना चाहिए विशेष तौर पे उन्हें जिनका प्रत्येक कार्य समाज के एक बड़े हिस्से पर प्रभाव छोड़ता हो उन्हें जन भावना को आहत करने वाले नामों से बचना चाहिए पर ये कोई अंतिम सिद्धान्त नहीं है कि उन्हें ऐसा करना ही चाहिए।
नामकरण को लेकर बुद्धिजीवियों द्वारा पक्ष विपक्ष में कई तर्क कुतर्क दिए जा रहे हैं हालाँकि मैं तब लिख रहा हूँ जब ये मामला ठंडे बस्ते में जा रहा है लेकिन मैं इस मुद्दे पे नहीं इस प्रवृत्ति पे लिख रहा हूँ तो बुद्धिजीवियों नाम एक अति महत्वपूर्ण स्थान रखता है नाम हमें पशुओं से अलग करता है घोड़े घोड़े होते हैं शेर शेर होते हैं इसी प्रकार भेड़ों के झुण्ड होते हैं लेकिन मनुष्यों में सत्यपाल,अबोध, सुबोध,मुश्ताक आदि आदि होते हैं क्यों तुम भेड़ के झुण्ड बने जा रहे हो कुछ और रचनात्मक लिखने को शेष नहीं है तुम्हारे पास,तनिक विचार करना,किसी भी विषय पर अत्यधिक समाधन प्रस्तुत करना कभी कभी उस समस्या को और बढ़ा देता है।
और अंत में नाम को लेकर बवाल मचाने वालों से बस एक पंक्ति कहना चाहूँगा "तुम्हारी भावनाएं कभी आहत नहीं होती तुम बस भावनाएं आहत होने का ढोंग करते हो, और तुम्हारे इसी आडम्बर के ढोल की कर्कश ध्वनि में तुम्हारी तूती के गौरवपूर्ण सुर विलुप्त हो रहे हैं।
-तुषारापात®™
तो मोटे तौर पे हम ये कह सकते हैं कि नाम का पहला शब्द धर्म का स्पष्ट/अस्पष्ट पता देता है अच्छा अब आते हैं नाम के दूसरे शब्द पे जो कि सरनेम होता है जैसे अहमद,जाफरी,शेख या चतुर्वेदी,मिश्र, सिंह आदि आदि इनसे क्या पता चलता है मोटे तौर पे ये जातिसूचक शब्द होते हैं जो दादा से पिता को और पिता से पुत्र को प्राप्त होता है
पहले नक्षत्र आधारित नाम की व्यवस्था हुआ करती थी प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं जिसका एक अलग अलग अक्षर होता है (मात्रा सहित) बालक नक्षत्र के जिस चरण में जन्म लेता था उसी चरण वाले अक्षर से आरम्भ होने वाले नाम दैवज्ञ (ज्योतिषी,पंडित) सुझा देते थे जिससे उस व्यक्ति के जन्म के समय का भी मोटा मोटा पता चलता था,इतनी लंबी भूमिका से तात्पर्य ये है कि जाति, नाम आदि समाज के वर्गीकरण की प्रक्रिया थी लेकिन दुर्भाग्य से उसे हमने विभाजन मान लिया तब सामाजिक सरंचना उतनी जटिल नहीं थी और जनसंख्या विरल थी अतः यह प्रक्रिया चलती थी पर आज समाज अत्यंत जटिल स्वरूप में है बाकी सब छोड़ भी दिया जाए तो भी नाम अभी भी अपना एक अलग महत्व रखता है लेकिन ये सब कुछ नहीं है।
अपने जिगर के टुकड़े को आप घर में कुछ भी प्यार से अजीब अजीब संबोधन से बुलाते हैं कुछ घरों में अभी भी पिता अपने सबसे बड़े पुत्र को भइया कहके बुलाते हैं उसका नाम नहीं लेते पर नाम बाहर वालों के लिए रखा जाता है नाम व्यक्तिगत नहीं सार्वजनिक संबोधन है इसलिए नामकरण अत्यधिक सतर्कता से करना चाहिए विशेष तौर पे उन्हें जिनका प्रत्येक कार्य समाज के एक बड़े हिस्से पर प्रभाव छोड़ता हो उन्हें जन भावना को आहत करने वाले नामों से बचना चाहिए पर ये कोई अंतिम सिद्धान्त नहीं है कि उन्हें ऐसा करना ही चाहिए।
नामकरण को लेकर बुद्धिजीवियों द्वारा पक्ष विपक्ष में कई तर्क कुतर्क दिए जा रहे हैं हालाँकि मैं तब लिख रहा हूँ जब ये मामला ठंडे बस्ते में जा रहा है लेकिन मैं इस मुद्दे पे नहीं इस प्रवृत्ति पे लिख रहा हूँ तो बुद्धिजीवियों नाम एक अति महत्वपूर्ण स्थान रखता है नाम हमें पशुओं से अलग करता है घोड़े घोड़े होते हैं शेर शेर होते हैं इसी प्रकार भेड़ों के झुण्ड होते हैं लेकिन मनुष्यों में सत्यपाल,अबोध, सुबोध,मुश्ताक आदि आदि होते हैं क्यों तुम भेड़ के झुण्ड बने जा रहे हो कुछ और रचनात्मक लिखने को शेष नहीं है तुम्हारे पास,तनिक विचार करना,किसी भी विषय पर अत्यधिक समाधन प्रस्तुत करना कभी कभी उस समस्या को और बढ़ा देता है।
और अंत में नाम को लेकर बवाल मचाने वालों से बस एक पंक्ति कहना चाहूँगा "तुम्हारी भावनाएं कभी आहत नहीं होती तुम बस भावनाएं आहत होने का ढोंग करते हो, और तुम्हारे इसी आडम्बर के ढोल की कर्कश ध्वनि में तुम्हारी तूती के गौरवपूर्ण सुर विलुप्त हो रहे हैं।
-तुषारापात®™
No comments:
Post a Comment