Friday, 10 July 2015

मुस्कुराइए हुज़ूर !

तुम्हारे हुश्न की 'भूलभुलैया' में फंसकर
हमारे इश्क का 'रूमी गेट' गिरा जाता है
दिल धड़कता था कभी 'घंटाघर' सा
अब यादों का 'कुड़ियाघाट' बना जाता है
तुम लगते हो जैसे गिलौरी 'हजरतगंज' की
यहाँ 'टुंडे के कबाब' सा मुंह हुआ जाता है
किसी गैर के नाम का दुपट्टा चिकन का ओढ़ के
हमारा मक्खन मलाई सा नवाबी दिल तोड़ के
बड़ी तहजीब से हमसे कहते हो रोते क्यों हो
ये लखनऊ है हुज़ूर! यहाँ मुस्कुराया जाता है
हैं नहीं तो
-तुषारापात®™

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