Friday 10 June 2016

तुम्हारे अधरों की कमनीय बाँसुरी पे  प्रेम का स्वर फूँकू मैं पंचमा 

आकाश है ओढ़े सुरमई कालिमा
धरती पर छाई यौवन की हरीतिमा
श्रावण की चंचल बरखा में
मिलन को तरसे मन प्रियतमा

छा जाए जब मेघों की कालिमा
देखूँ मैं तुम्हारे मुख का चंद्रमा
साथ तुम्हारे है देखनी मुझे
उगते सूर्य की भी लालिमा

नयन कटारी तीक्ष्ण करता सुरमा
कपोलों पे लाज की लालिमा
आलिंगन में जब भर लूँ तुम्हें
कहो बड़े चंचल हो बालमा

बाँहों में भर लूँ तुम्हें सुमध्यमा
लांघ जाऊँ समस्त बंधन सीमा
तुम्हारे अधरों की कमनीय बाँसुरी पे
प्रेम का स्वर फूँकू मैं पंचमा

-जब तुषारापात सिर्फ तुषार था (किशोरावस्था की कविता)

No comments:

Post a Comment