Thursday 16 July 2015

बाहुबली

बड़ी विशाल बाहें थीं उसकी जो हमें भी खींच लिया उसने एक नजदीक के सिनेमा हाल में , चारों तरफ उसकी ही चर्चा थी तो हम भी देखने चले गए उस 'बाहुबली' को ।
फ़िल्म अच्छी है और उसका प्रस्तुतिकरण और भी अच्छा है। एक एक सीन पे बड़ी मेहनत की गई है कल्पना को परदे पे उतारना कोई आसान काम नहीं पर डायरेक्टर और उनकी टीम ने बहुत बढ़िया काम कर दिखाया।
पर एक लेखक होने के नाते मेरा फ़िल्म की कहानी पे ध्यान जाना स्वाभाविक ही था,राजसत्ता और राजवंशों की सिंहासन के लिए लड़ाइयों पे आधारित कोई भी कहानी हो वो महाभारत की कथा के आसपास ही जाकर क्यों ठहर जाती है,शायद ये महाभारत की कथा की विशेषता है या लेखक इससे आगे सोच ही नहीं पाते या फिर ये भी हो सकता है कि जानबूझकर ऐसा किया गया हो कि सबसे अधिक लोकप्रिय और जन जन को याद ऐतिहासिक कथा से ही कहानी का प्लॉट उठाया जाय जिससे लोग अधिक जुड़ाव महसूस करें।
कहानी के किरदारों को अमीष के 'मेलुहा' के किरदारों की तरह प्रस्तुत किया गया है और पूरी फ़िल्म का स्टाइल और प्रेजेंटेशन हॉलीवुड की एक फ़िल्म 300 की याद दिलाता है ।
नायक द्वारा शिवलिंग पर प्रहार कर उसे झरने के नीचे स्थापित करने पर किसी की भावनाएं नहीं आहत हुईं ये मेरे लिए बहुत ही आश्चर्यजनक रहा पर फ़िल्म की इस घटना से ईश्वर के प्रतीकों से कहीं अधिक उससे जुड़ी भावना को अधिक महत्व देते दिखाया गया ये एक सराहनीय प्रयास है दूसरा नायक द्वारा देवी को जानवर की बलि को मना करना ये कहकर कि देवी को प्रसन्न करने के लिए किसी निर्बल की बलि देने की क्या आवश्यकता है मुझे पसंद आया।
झरने पे नायक का बार बार गिरकर फिर भी चढ़ने का प्रयास करते रहना एक सीख देता है कि असफलता से डरकर प्रयास नहीं छोड़ने वाला एक दिन सफल अवश्य होता है।
कुल मिलाकर बाहुबली एक अच्छा प्रयास कहा जा सकता है भारतीय फ़िल्म जगत के लिए और दर्शकों के लिए। निर्माता और निर्देशक का खेला हुआ दाँव कि इसे दो भागों में बनाया जाय सही पढता दिख रहा है अब अगले भाग की प्रतीक्षा में आपके साथ...मैं भी हूँ।

-तुषारापात®™

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