Friday, 30 August 2019

एक खिड़की बहुत आवाज़ करती है

याद है..उस दिन जब बारिश में..मैं आधी से ज्यादा भीग गई थी और तुमने मुझे हल्के से छुआ था..तुम्हारी उस जरा सी छुअन से..काँपने लगी थी मैं... अगर थोड़ी सी और ताकत से तुम अपना हाथ..मेरी ओर बढ़ा देते तो मैं सारे बंधन तोड़ के खुल जाती लेकिन..तुम.. तुम मुझपर बनी बारिश की लकीरों को देख अपनी डायरी को स्याही से भिगोने में मशगूल हो गए।

ऐसे ही एक रोज तुम सो रहे थे और सुबह की हल्की धूप तुम्हारी गहरी नींद में ख़लल डाल रही थी..तो मैंने बहती हवा से कहा था कि..जरा मेरे साइड में काँधे पे पड़े आँचल को तुम्हारी ओर फहरा दे और ऐसे मैंने तुम्हें साये में रखा.. कुछ देर बाद जब तुम जागे तो तुमने बस एक हल्की सी नज़र मेरी ओर डाली...उफ्फ..तुम्हारी वो उड़ती सी नज़र मेरे आरपार हो गयी थी पर चढ़ते सूरज को देख तुम हड़बड़ाते हुये घड़ी पर नज़र जमाये गुसलखाने की ओर दौड़ गये और मैं अपने दोनों खुले हाथ लिए जड़ी रह गई।

तुम्हारे कमरे में उमस ज़्यादा होने लगी थी..लाइट जाने पे जब पसीने की बूंदें तुम्हारे माथे पर चमकने लगतीं थीं तो मैं..छटपटा के अपने हाथ मारने लगती थी कि थोड़ी सी हवा पैदा हो और तुम्हारे माथे का पसीना सूख जाए पर एक दिन तो तुम एहसानमंद होने की बजाय उल्टे गुस्से में ही आ गए.. "शोर से लिखा नहीं जाता" यह कहकर तुमने मेरे हाथ बाँध दिए थे.. एहसान फरामोश कहीं के।

रात रात भर तुम अपनी कुर्सी पे बैठे लिखते रहते थे..मेज से ऊपर  पासपोर्ट फोटो जितना हिस्सा तुम्हारा मुझे दिखता था..मैं तुम्हें निहारा करती थी और जब दिन को..तुम देर तक सोते थे..तो भी..बस मैं तुम्हें देखती रहती थी और कोशिश करती थी कि बाहर का जरा सा भी शोर तुम तक न पहुँचे..धूल का एक जर्रा भी तुम्हारे फूले बदन को न छुए..पर बुरा हो तुम्हारे पियक्कड़ दोस्तों का जिनके आने पर तुम मुझपर मोटी सी साड़ी डाल दिया करते थे और मैं मर्यादा में बँधी बहू की तरह घूँघट के भीतर से सब देखती जानती पर कुछ कह नहीं पाती थी।

तुम्हारी सारी ज़्यादतियाँ मुझे मंज़ूर थीं और ये सारी बातें मैं तुमसे कभी कहती भी नहीं...तुमने मेरे दोनों हाथ तोड़ डाले मैंने उफ़ भी नहीं की पर कलमकार!..तुमने मेरा दिल तोड़ दिया..जिस छोटे से कमरे में तुम मेरे सामने अपनी मेज पर बैठे लिखते रहते थे..उसी कमरे में तुमने मेरे सामने अपनी सुहागरात मनाई...आह!..और ज़ुल्म की इंतेहा ये कि अपने मायके से लाया एयर कंडीशनर मेरे सीने में धँसा के तुम्हारी नई नवेली दुल्हन मेरी चुगली लगाने को तुमसे कहती है "ये खिड़की आवाज़ बहुत करती है।"

~तुषार सिंह #तुषारापात®

Monday, 26 August 2019

आवारा परछाइयाँ

एड़ी के खूँटे से बँधी परछाइयाँ
सूरज डूबते ही आवारा हो गईं

#तुषारापात®

Friday, 16 August 2019

दरिद्रता

"आहा! नरेंद्र..कितने दिनों बाद आया तू..ले ये खीर खा.." रामकृष्ण,नरेंद्र को आया देख प्रसन्नता से भर उठे और उसे अपने हाथों से खीर खिलाने को  मानो दौड़ ही पड़े

नरेंद्र अस्तव्यस्त कुर्ते में अपने झुके कंधे छुपाए उनके पास खड़ा था, खीर खिलाते उनके हाथ को रोक कर, माँ काली के मंदिर की ओर अपना हाथ करते हुए नरेंद्र बोला "क्या आप माँ को भोग लगाए बिना भोजन कर लेते हैं.... जिसके घर में रसोई और अग्नि परस्पर विलोम हो चुके हों..अपने दूध से जिसे सींचने वाली माँ..भात के कुछ सूखे दानों के लिए रीते पात्रों को बार बार देखती हो..वह पुत्र यहाँ बैठ कर खीर खायेगा तो क्या माँ को अपना मुख दिखा पायेगा..." नरेंद्र जीवन संघर्ष की व्यथा में आगे कहता गया "आप कहते हैं काली के चरणों में सम्पूर्ण संसार का वैभव है..फिर आप दरिद्र क्यों हैं..आपके शिष्य दरिद्र क्यों हैं..आप कहते हैं माँ आपकी हर बात सुनती है.. आप उससे यह दरिद्रता मिटाने को क्यों नहीं कहते.."

रामकृष्ण परमहँस ने मंदिर की ओर देखकर कहा "माँ.. माँ.. सुन..नरेंद्र तेरे पास आ रहा है यह जो भी वर माँगे..उसे पूरा कर देना.." खीर से भरा कटोरा पकड़े रामकृष्ण ने मुस्कुराते हुए नरेंद्र से कहा " जा.. मांग ले माँ से जो भी तू माँगना चाहता है..धन..शक्ति...वैभव..जो भी कुछ तू माँगेगा.. माँ तुझे प्रदान करेगी.."

रामकृष्ण के यह वचन सुनते ही नरेंद्र की आँखों में उसकी माँ का रसोई में भोजन बनाता चित्र सजीव हो उठा वह माँ काली के मंदिर की ओर दौड़ा और अपने चरणों को नग्न कर काली की प्रतिमा के समक्ष  पहुँचा पर ये क्या  प्रतिमा के सामने जाकर उसके मुख से कोई बोल नहीं निकल पा रहा है, वह विचारशून्य हो गया है, मानसिक चेतना के  अनेक असफल प्रयासों के उपरान्त वह भागकर रामकृष्ण के पास वापस आता है

"मांग आया माँ से..आ अब खीर खा..." परमहँस ने परम स्नेह से कहा तो नरेंद्र ने फिर खीर के कटोरे को परे करते हुए निराश स्वर में कहा "परन्तु मैं तो कुछ माँग ही नहीं सका..कुछ बोल ही न पाया तो माँगता क्या..."

रामकृष्ण ने निराश नरेंद्र की ओर देखा भी नहीं, खीर के कटोरे को देखते हुए ही बोले "जा एक बार पुनः जा..माँग ले..माँ.. नरेंद्र आ रहा है.. पुत्र जो वरे.. वार दे"

नरेंद्र पुनः प्रतिमा के सम्मुख गया और इस बार भी चेतनाशून्य सा हो गया, उसकी जिह्वा मानो थी ही नहीं,मस्तिष्क में उसे बस 'ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम्.......... यही मंत्र सुनाई दे रहा था, कुछ समय पश्चात वह स्वयं को मंदिर से बाहर रामकृष्ण के सम्मुख पाता है तो रोष से भरे स्वर में उनसे कहता है "ये आप ही हो न..जो मुझे भेजते तो हो पर कुछ माँगने नहीं देते.. एक शिष्य की लालसा में उसके जीवन से यूँ क्रीड़ा करना आपको शोभा नहीं देता"

मैं.. माँगने नहीं देता..पगले मैं तो स्वयं देने को उत्सुक हूँ.. परन्तु तू..माँगता ही नहीं..माँ से ही माँगना चाहता है तो उन्हीं से माँग परन्तु माँग तो..जा पुनः प्रयास कर..जा नरेंद्र..जा..माँग ले..मैं नहीं रोकता..जा" रामकृष्ण रहस्यमयी स्वर में इतना बोल के चुप हो गए, नरेंद्र इस बार मंदिर प्रांगण के बाहर से जो माँगना था वह बुदबुदाते हुए प्रतिमा के सामने जाने का प्रयत्न करता है, परन्तु काली के सम्मुख जाते ही वह सम्मोहित हो जाता है, उसे काली की प्रतिमा के स्थान पर रामकृष्ण परमहँस दिखाई देते हैं, वह इस बार स्वयं को समस्त बंधनो से मुक्त पाता है उसकी विचार और चेतना शक्ति और अधिक प्रबल हो गयी है,वह माँगता है "माँ.. मुझे बुध्दि दे" इतना माँगते ही उसके चक्षुओं में नीर भर आता है , वह काली को दण्डवत  प्रणाम करता है और प्रणाम कर उठता है तो स्वयं को पंचवटी में खीर का कटोरा पकड़े रामकृष्ण के सम्मुख पाता है,

नरेंद्र शान्त है और रामकृष्ण उससे कह रहे हैं "हमें दुखों को आत्मसात करना नहीं आता, हम दुख से दूर भागना चाहते हैं हम चाहते हैं कि कोई हमारा दुख दूर कर दे और अगर दूर न कर सके तो कम से कम सुन अवश्य ले, संभवतः इसी से ईश्वर के प्रतीकों की उत्पत्ति हुई होगी, हम उसपर ईश्वर की कृपा मानते हैं जो अपने सुखों का यदा कदा प्रदर्शन करता रहता है जो अपने दुख का प्रदर्शन करता है हम उसे अभागा कहते हैं परन्तु...हम उसे क्या कहते हैं जो अपने दुखों को आत्मसात करता जाता है ... वो योगी होता है जो दुखों को स्वयं के भीतर भस्म करता जाता है और स्वयं भी जलता जाता है लेकिन इस अग्नि में उसका शरीर जलता है और जैसे स्वर्ण कुंदन हो जाता है वैसे ही उसकी आत्मा उच्चावस्था को प्राप्त हो जाती है... परन्तु..यह एक कठिन और बहुत लंबी प्रक्रिया है जैसे कि किसी ज्वालामुखी का बनना, उसे सहस्त्रों वर्ष लगते हैं लेकिन सुख के बादल हर वर्ष बरसते हैं लोग सुख की वर्षा देखते हैं और सुख की कामना करते हैं कोई भी स्वयं में सहस्त्र दुखों को सहस्त्र वर्ष तक क्यों जलाना चाहेगा, देवताओं का एक अहोरात्र (दिन+रात) हमारे एक वर्ष के बराबर होता है और ब्रह्मा के मात्र एक दिवस (रात्रि नहीं) का मान एक कल्प है,
जिसे दैवीय सुख चाहिये वो सुख के बादलों की कामना करता है और देवताओं तक सीमित रह जाता है परंतु जो सहस्त्र वर्ष तक दुख आत्मसात करता है वह ब्रह्म के एक दिन  में क्षणिक ही सही परन्तु स्वयं की उपस्थिति बना लेता है"

नरेंद्र ने सुना उन्हें प्रणाम किया और उनसे खीर खिलाने का आग्रह किया, रामकृष्ण उसे बहुत स्नेह से एक माँ के समान वात्सल्य से भरे हाथों से खीर खिलाने लगते हैं, प्रत्येक कौर के साथ रामकृष्ण परमहँस,गदाधर होते जा रहे थे और नरेंद्र,स्वामी विवेकानंद।

(परमपूज्य गुरु भगवान श्री श्री रामकृष्ण परमहँस की महासमाधि दिवस पर )
~तुषार सिंह #तुषारापात®

Tuesday, 13 August 2019

वाशिंग मशीन में लिपटे कपड़ों का इश्क

इश्क क्या है जानना है तो वाशिंग मशीन में एक दूसरे से लिपटे कपड़ों को देखो..उन्हें न ज़िंदगी की बेदर्द धूप की परवाह है..न ही ज़माने की गर्म इस्त्री का डर।

~तुषारापात®

Sunday, 11 August 2019

दिमाग ठीक है?

मेरे दिमाग का न ले इम्तिहान रे
माथे पे मेरे,सही (√) का निशान है

~तुषारापात®

Saturday, 10 August 2019

शाम से आँख में नमी सी है

रात से आँख खुली सी है
सहर जाने क्यों मुंदी सी है

दफ़्न हूँ बाँस के खेत में
कब्र फिर भी बेसुरी सी है

वक़्त बैठा है यहीं टिककर
दिल में एक घड़ी चुभी सी है

हजार रिश्ते हैं जगमगाते से
बस दुआ सलाम बुझी सी है

~तुषार सिंह #तुषारापात®

Tuesday, 6 August 2019

अकड़

विवेकानंद के लिए किसी ने परमहँस से यह कहा "ज्ञानी तो हैं परन्तु न जाने क्यों मुझे थोड़े से अभिमानी लगते हैं..मैंने तो सुना था फलों से लदे वृक्ष झुके रहते हैं..विनम्र रहते हैं..पर उनमें थोड़ी अकड़ दिखाई देती है"

"फलविहीन वृक्ष तो सदैव लचीला रहेगा क्योंकि उसपर कैसा बोझ...फलों से लदे वृक्ष की शाखाएं झुकीं रहतीं हैं..जिसे तुम अभिमान समझ रहे हो वह फलों के बोझ से उत्पन्न हुआ तनाव है..अकड़ नहीं..शाखा अगर सीमा से अधिक लचीली होगी तो फल मिट्टी में मिल जाएंगे..सड़ जाएंगे..ज्ञान रूपी स्वस्थ फल के लिए शाखा का यह तनाव ही जिज्ञासु को परिश्रम कराता है" परमहँस ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया।

~तुषार सिंह #तुषारापात®