उसके
एक हाथ में किताब
और दूसरे में
छोटा सा एक झोला है
चलते हुए उसकी बाहें
लक्ष्य की ओर जाती नाव की
दो पतवारों की तरह
उल्टी धारा को चीरतीं जा रहीं हैं
उसकी
कॉटन साड़ी की करारी प्लेटें
आदम ज़माने की हवा काट
हव्वा के झंडे की तरह लहरा रहीं हैं
कल लड़ी थी पढ़ी थी
अब अपने जैसी सभी को पढ़ा रही है
दलदल निचोड़ के उसमें कैद पानी को
कलकल बहा रही है कल बना रही है।
~तुषारापात®
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