Wednesday 21 March 2018

फेमिनिस्ट

वो गुस्से से किचेन में गया
और अब तक जैसे
मेरी आवारा ख्वाहिशों को
रौंदता आया है
उबले आलूओं को मसल रहा है

कड़ाही को
कानों से उठा के
गैस के जलते चूल्हे पे दे पटकता है
मेरे दोनों काँधे पकड़ के
ऐसे ही तो रातों में मुझे झंझोड़ता रहा है

खूब सारा तेल डालके
जीरे की चटचटाहट से खुश हुआ
मगर मेरे सूखे खुले
बालों की लहलहाहट से
बड़ा छटपटाता है वो

प्याज लहसुन के जैसी
उसकी मुँह की दुर्गंध
कड़ाही से भी उठने लगी है अब
जली कटी उसकी बातों के दिए
जख्मों की तरह
प्याज गोल्डन ब्राउन से कुछ ज्यादा गहरा रहा है

धनिया के दो चम्मच कड़ाही में पड़े
मेरी हथेली की लकीरों पे मेहंदी से
उसके नाम की मोहर जड़ी गई थी
पूरे बदन पे हल्दी भी मली गई थी
गर्म कड़ाही में
थोड़ी सी अभी हल्दी छिड़की गई है

लाल मिर्ची की
एक बारीक सी लाइन
काली कड़ाही के बीचो बीच खींच देता है
सर पे मेरे खिंची
सिंदूर की लक्ष्मण रेखा याद दिलाके
मेरे ऑफिस के मर्दों से हुई
नार्मल सी बातें भी खूब चटपटी बना लेता है

आलू के भुर्ते को
इस छुंछुनाते मसाले में मिलाके
कलछुरि को कड़ाही में
जोर जोर से हिलाके
मेरे मुँह में जलते अंगारे ठूँसने की
अपनी तमन्ना पूरी कर रहा है

सारा पानी तो
मेरे अरमानों पे फेर चुका है
इसलिए सूखी सब्जी बन रही है
तेज डाँट से हड़काने के बाद
धीमी झिड़कियों से समझाता है
गैस तेज से धीमी की थी
और अब बंद हो चुकी है

शुरू के पहले या दूसरे
करवाचौथ पे लाई
एक सस्ती साड़ी की तरह
धनिया की पत्तियों से
इस सब्जी को सजा रहा है

सब्जी तैयार है और
फेमिनिस्ट कविता भी

नहीं नहीं
नमक बताना नहीं भूली मैं
वो तो अभी एक्सट्रीम फेमिनिस्ट्स के
कॉमेंट्स में भर भर के आएगा
थोड़ा सा
मेरी थाली की सब्जी के काम आएगा
बाकी
'उस' सब्जी बनाने वाले के ज़ख्मों पर जाएगा।

~तुषार सिंह #तुषारापात®

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