Wednesday 15 November 2017

चाँद की हसिया से रात नहीं कटती है

चाँद की हसिया से रात नहीं कटती है
काम कल्पना से विरह कहीं मिटती है

एक हाथ के अंतर पे था मुखड़ा
एक हाथ के समांतर था अंतरा
दोनों हाथ बाँधे असहाय रह गया मैं
बेसुरी मर्यादा बड़ा बेसुरा गीत रचती है
चाँद की हसिया से रात नहीं कटती है...

एक फूँक में उड़ाता मैं तुम्हारी लाज
एक फूँक से भर देतीं तुम मुझमें आग
दो फूँकों से संसार की,फुँक गया ये स्वप्न
साँसों की धौंकनी से अब राख उड़ती है
चाँद की हसिया से रात नहीं कटती है...

एक आस बसन्त बनके तुम महकोगी
एक आस सावन बनके तुम बरसोगी
दो आसें ओस सी जेठ में वाष्पित हुईं अब
पूस की हवा इस बरस बहुत चुभती है
चाँद की हसिया से रात नहीं कटती है...

एक चुंबन में मुंदती आँखें चंद्रमा सी
एक चुंबन से काँपती नाभि मध्यमा की
दो चुम्बन नियति के क्रूर,सुखा गये होंठ
बार बार जिह्वा अब इनपे फिरती है
चाँद की हसिया से रात नहीं कटती है...

एक कविता में लिखता तुम्हारा यौवन
एक कविता से पढ़ता तुम्हारा अन्तर्मन
दो कविताओं में था रचा किंतु अपना दुर्भाग्य
तेरी और मेरी हथेली प्रतिदिन कहती है
चाँद की हसिया से रात नहीं कटती है...

-तुषारापात®

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